(निरुक्त भार्गव, पत्रकार, उज्जैन)
मीडिया यानी छापेखाने की दुनिया और विसुअल माध्यम इस दौर में जब अपने चरमोत्कर्ष पर है और भारत-भर में सम्पूर्ण प्रभुत्व के साथ एक ही राजनीतिक दल (भाजपा) केंद्र और कई राज्यों में सत्ता के शिखर पर चढ़ा हुआ है, एक नया विमर्श खड़ा करने की जरूरत है. ये इसलिए भी समय की मांग है क्योंकि नरेन्द्र मोदी ही नहीं अपितु ममता बनर्जी (पश्चिम बंगाल), उद्धव ठाकरे (महाराष्ट्र), पी विजयन (केरल) और योगी आदित्यनाथ (उत्तर प्रदेश) के नेतृत्व में सत्ता प्रतिष्ठानों और समूची मीडिया के बीच सीधे तौर पर टकराव के हालात बने हुए हैं…
केंद्र सरकार के मंत्रियों, राज्य सरकारों के मंत्रियों सहित प्रमुख जनप्रतिनिधियों और भिन्न-भिन्न राजनीतिक दलों के रिश्ते विविध समाचार माध्यमों के प्रतिनिधियों के साथ उतने मधुर नहीं रहे हैं जो कई दौरों में हुआ करते थे. अविश्वास का एक भीषण संकट इन सभी के रिश्तों में उभरा है, हाल के समय में! आज का जो परिदृश्य है वो कमोबेश पहले भी रहा है, पर 1975-1977 (आपातकाल) के भुलाए ना भूलने वाले दिनों को छोड़कर! बावजूद इसके, पत्रकार बिरादरी के मध्य जो सुगबुगाहट है वो तो यही है कि मोदी और उनके जैसे क्षत्रपों के राज में मीडिया का गला घोंटा जा रहा है!
मीडिया के साथियों को भले-ही नागवार गुजरे, पर ये बात मैं पूरी शिद्दत से कहना चाहता हूं कि मेरी और आपकी कमियों और कमजोरियों का फायदा सबने उठाया है: नौकरशाहों से लेकर राजशाही तक ने! नेता और तमाम दलाल भी उनमें शामिल हैं! ऐसे में मोदी को अथवा ममता को या फिर योगी को भला-बुरा कहने से कुछ हासिल नहीं होने वाला! दो-दो वित्तीय वर्षों में नौकरियों से जुड़े जिन विपरीत हालातों को अनगिनत साथियों ने झेला है, उसका जिक्र करते हुए मन भर आता है! तिस पर घर और परिवार में कोरोना और डेंगू इत्यादि शत्रुओं ने जो लगातार आक्रमण किया है, उसकी मर्मान्तक पीड़ा का क्या विवरण पेश करूं?
आज जब भारतवर्ष में उसकी आज़ादी का अमृत (अमृत महोत्सव, 75वां साल) सबको छकाने का प्रचार सिर चढ़कर बोल रहा है, मुझे कहीं से भी आभास नहीं हो रहा है कि मीडिया की आज़ादी खतरे में है! जाने-अनजाने और षड़यंत्र के तहत कोई किसी के खिलाफ घर बैठे किसी प्रकार का ताना-बाना बुन ले, तो उस बारे में क्या कहा जाए? बहरहाल मेरा अंतरमन बार-बार कह रहा है कि वैसा कुछ नहीं है जो निरंतर प्रचारित किया जा रहा है…
मोदी बहुत हठी हैं और ममता और महंत भी कतई कम नहीं गिरते! इन महाशयों से हमारी मुक्कालात कभी ख़त्म नहीं होने वाली! लेकिन मैं बहुत पॉजिटिव हूं, सो कह रहा हूं आज मीडिया के पक्ष में वो सब अनुकूलताएं हो सकती हैं जो शायद कट्टर आलोचक भी उम्मीद नहीं कर सकते!
कहना अपरिहार्य है कि प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया में गैर-सरकारी प्रतिनिधित्व को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. इस पर सरकारी नियंत्रण सिर्फ इसलिए ही होना चाहिए कि मीडिया की स्वतंत्रता कायम रहे और अंतिम पंक्ति के वास्तविक पत्रकार का स्वाभिमान संरक्षित किया जा सके! इस प्रतिष्ठित संस्था को सर्वोच्च शक्तियां, अधिकार और सुविधाएं दी जानी चाहिए, ताकि वो मीडिया का हित संरक्षण कर सके!…मीडिया माफियाओं, फर्जी पत्रकारों और अवांछनीय संगठनों का नहीं!
एक अलर्ट भी दे रहा हूं: भांति-भांति के डिजिटल प्लेटफार्म पर सक्रिय बन्दे किसी भी सूरत में ‘सोशल मीडिया’ के प्रतिनिधि होने का दंभ नहीं भर सकते. असल में जिसे सोशल मीडिया के रूप में पेश किया जा रहा है और जिन्हें तरह-तरह से प्रोत्साहित किया जा रहा है, ना तो वे शैक्षणिक रूप से क्वालिफाइड हैं और ना ही उनका स्वतंत्र और सामूहिक रूप से कोई वैधानिक ढांचा है. अर्थात उनकी विश्वसनीयता और वैधानिकता दोनों शून्य है.
ऐसे में शीर्ष और दीर्घ से लेकर धरातल तक पर शासन और प्रशासन करने वाले तबके को “वांछनीय” मीडिया के महत्त्व को स्वीकारते हुए उसे चारों तरफ स्थापित करना चाहिए! वे सब ऐसा कर सकें और वो भी अविलम्ब तो शायद लोकतंत्र की धारा को पुष्ट कर पाएंगे और अपनी छवि को भी…
पृष्ठभूमि
· 1966 में भारतीय प्रेस परिषद की स्थापना को सम्मानित करने और स्वीकार करने के लिए हर साल 16 नवंबर को राष्ट्रीय प्रेस दिवस मनाया जाता है। यह वह दिन था जब भारतीय प्रेस परिषद ने यह सुनिश्चित करने के लिए एक नैतिक प्रहरी के रूप में कार्य करना शुरू किया कि प्रेस इस शक्तिशाली माध्यम से अपेक्षित उच्च मानकों को बनाए रखे।
· 1956 में प्रथम प्रेस आयोग ने भारत में प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए एक प्रेस परिषद बनाने की योजना बनाई। 4 जुलाई 1966 को भारत में प्रेस परिषद की स्थापना हुई। यह 16 नवंबर 1966 से लागू हुआ। इसलिए हर साल 16 नवंबर को राष्ट्रीय प्रेस दिवस के रूप में मनाया जाता है।
· 1956 में भारतीय प्रेस परिषद की स्थापना की सिफारिश करते हुए, प्रथम प्रेस आयोग ने निष्कर्ष निकाला था कि पत्रकारिता में पेशेवर नैतिकता को बनाए रखने का सबसे अच्छा तरीका वैधानिक अधिकार के साथ एक निकाय को अस्तित्व में लाना होगा, मुख्य रूप से इस उद्योग से जुड़े लोगों का, जिसका कर्तव्य होगा मध्यस्थता।
· न्यायमूर्ति चंद्रमौली कुमार प्रसाद भारतीय प्रेस परिषद के वर्तमान अध्यक्ष हैं। उन्हें दूसरे कार्यकाल के लिए नियुक्त किया गया है। उन्होंने परिषद के अध्यक्ष बनने के लिए न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू (2011-2014) का स्थान लिया।