आँकलन/जयराम शुक्ल
पत्रकारिता और ज्योतिष में एक साम्य गजब का है। ज्योतिषी ग्रह-नक्षत्रों की चाल के हिसाब से भविष्यवाणी करते हैं और हम पत्रकार नेताओं मतदाताओं के रुआब देखकर। यह कभी तुक्का सटीक बैठता है तो कभी गलत।
वैसे अच्छा पत्रकार वह है जो घटना घटित होने के पूर्व उसके होने की घोषणा कर दे और जब सही न निकले तो अपने तर्कों से यह साबित कर दे कि वह क्यों नहीं हुई। ज्योतिषी भी यही करते हैं। ऐसे तीर-तुक्के पत्रकारिता और ज्योतिष दोनों के धंधे के लिए फलदायी होते हैं।
मध्यप्रदेश में 28 विधानसभा सीटों के लिए हुए मतदान के बाद 10 नवंबर तक सब अपने-अपने हिसाब से गुणाभाग लगा रहे हैं। जब तक परिणाम न आ जाए भाँग की तरंग की भाँति अनुमानों की पतंग चंग पर चढ़ती उतरती रहेगी..। चलिए आपके साथ अपन भी इस उपचुनाव को लेकर कुछ बुद्धिविलास कर लें।
चर्चाओं की वरीयता में पहली बात वोटिंग के ट्रेंड और टर्नआउट को लेकर है। औसतन पैंसठ से सतसठ प्रतिशत वोट पड़े हैं। वोटिंग का ट्रेंड असमान है। कहीं पचास के करीब तो कहीं तिरासी प्रतिशत से ज्यादा। बहरहाल वोट का प्रतिशत ठीकठाक है। कोरोना के भय के बीच यदि इतने वोट ईवीएम में घुसे तो इसे अच्छा मतदान माना जाएगा।
अब इस अच्छे मतदान को लेकर दोनों प्रतिद्वंद्वी दलों के अपने-अपने दावे हैंं। कांग्रेस का कहना है कि वोटरों ने गद्दारों को सबक सिखाने के लिए वोट डाला जबकि भाजपा मानती है कि उन्हें शेष कार्यकाल तक काम करने का जनादेश मिला है।
कांग्रेस के छोटे बड़े सभी नेताओं का दावा है कि उनके अट्ठाइसों प्रत्याशी जीत रहे हैं। यह दावा अपने-आप में हास्यास्पद है। जबकि एक नेता जी ने तो यहां तक कहा कि यदि उनके सभी विधायक नहीं जीते तो वे राजनीति से सन्यास ले लेंगे।
दरअसल कांग्रेस के पास अब खोने को कुछ बचा नहीं.. सिर्फ पाने की झीनी सी उम्मीद है..और वे सत्ता में तभी लौट सकते हैं जब अट्ठाइस की अट्ठाइसों सीटें जीत जाएं जो कि असंभव सा है। कांग्रेस के नेता यदि यह दावा नहीं करते तो इसे स्वमेव सत्ता से बाहर रहने का ऐलान माना जाता सो चुनाव प्रचार में यह माइंडगेम से ज्यादा कुछ नहीं था। हाँ रही बात गद्दारों को सबक सिखाने वाली बात।
क्या यह सच है..? मेरा मानना है कि चुनाव में गद्दारी-खुद्दारी और बिकाऊ-टिकाऊ का मुद्दा सिर्फ नेताओं की जुबान और मीडिया की सुर्खियों तक रहा। वह इसलिए कि नेताओं के चरित्र का यह स्थाई भाव है और मतदाता इसे समझ चुका है।
दूसरे यह भी कि प्रथम चरण में कांग्रेस ने भी भाजपा के सदस्यों को येनकेन प्रकारेण अपने पाले में लाने की कोशिश की थी। विधानसभा के भरे सदन में भाजपा के दो सदस्य नारायण त्रिपाठी और शरद कोल सत्ता के पाले में जा बैठे थे। संख्या बल का सवाल न होता तो ये दोनों अबतक निलंबित या बर्खास्त होते। सो कांग्रेस खरीद फरोख्त के आरोप भले लगाए पर दम नहीं है।
प्लान ए की असफलता के बाद भाजपा का प्लान बी फुलप्रूफ था। और उसका असर इतना कि सरकार में आने के बाद कांग्रेस में पतझड़ सी मच गई। चुनाव की तारीख घोषित होने के बाद दो विधायक उधर से इधर आ गए।
अब इस चुनाव के तौरतरीकों पर आते हैं। चैनलों और राजनीतिक दलों ने एक बात सुर्खियों पर रखी कि मतदाताओं में गजब का उत्साह दिखा..। मेरा मानना है कि इस चुनाव में उत्साह और गुस्सा जैसी कोई चीज नहीं थी। और न ही कोई राष्ट्रीय या प्रादेशिक मुद्दा।
इस उप चुनाव में पंचायतों के चुनाव जैसी गरमागरमी और गहमागहमी थी। पंचायतों के चुनाव मुद्दा विहीन व्यक्ति केंद्रित होते हैं। प्रत्याशी एक-एक वोटपर दाँव लगाता है। लोभ-लालच, लेनदेन सब चलता है। इस चुनाव में भी वही चला।
अट्ठाईस सीटों पर प्रदेश भर के नेता कार्यकर्ता जूझे..लड़े, लड़े, भिड़े, ईवीएम तोड़ी, वोट डलवाने के लिए हर वह कृत्य किया जो कभी बिहार के खाते जाता था। संभवतः इसीलिए मतदान का प्रतिशत इतना बढ़ा।
अब बढ़ा हुआ मतदान किसके हक में है ? यह भी एक सवाल है..। मेरा मानना है कि इसका ज्यादा फायदा भाजपा को मिलेगा। वजह साफ है, भाजपा के पास कार्यकर्ताओं का अच्छा नेटवर्क है। वे सामान्य दिनों में भी इलेक्शन मोडपर रहते हैं। वोटरलिस्ट के एक पन्ने में दर्ज वोटरों को सँभालने के लिए पाँच-पाँच कार्यकर्ता एक प्रभारी के साथ रहते हैं..लिहाजा इनकी पहुंच और प्रभाव कांग्रेस से ज्यादा है।
कांग्रेस में कमलनाथ का वनमैन शो था। दिग्विजय सिंह निकले नहीं( या वोट कटने के डर से निकलने नहीं दिया गया) सुरेश पचौरी भी कहीं नहीं दिखे और न ही भूरिया व अरुण यादव। सिर्फ अजय सिंह राहुल की सक्रियता खबरों पर रही।
दूसरी ओर भाजपा ने अपने दो-चार को छोड़ प्रायः सभी बड़े नेताओं को निर्धारित सीट के दायरे में ही सक्रिय रहने को कहा। रणनीतिक दृष्टि से भाजपा कांग्रेस से आगे रही।
अब आते हैं इस चुनाव के महत्व पर। सो यह जान लिजिए कि यह चुनाव निकट भविष्य में इलेक्ट्रोलर डेमोक्रेसी की एक नजीर बनेगा। दलबदल के इस नए तौर तरीके को लेकर.. यद्यपि कर्नाटक में भी ऐसा ही हुआ लेकिन जितनी चर्चाओं में मध्यप्रदेश है उतना कर्नाटक नहीं क्योंकि वहां इस्तीफा देकर चुनाव लड़ने वालों की संख्या काफी कम थी।
कांग्रेस के जमाने में हरियाणा के भजनलाल-देवीलाल-रामलाल के दलबदलू प्रकरणों से सबक लेकर राजीव गांधी की सरकार ने दलबदल विरोधी कानून बनाया था। ताजा मामला उस कानून का कानूनी दायरे के भीतर ही एक काट है।
यह नजीर राजनीति को भविष्य में और भ्रष्ट करेगी। लोकतंत्र में साम-दाम-दंड-भेद जो छुपा रहता था अब प्रकटतः अपना प्रभाव दिखाएगा। त्रिशंकु सदनों में मध्यप्रदेश की नजीर दोहराई जाएगी और इसे राजनीति के सामान्य चलन के रूप में दर्जा मिल जाएगा।
अब रही बात कमलनाथ, शिवराज और ज्योतिरादित्य का भविष्य क्या होगा? कांग्रेस छोड़कर आए यहां मंत्री बने नेताओं का हाल क्या रहेगा..? तो यदि जो मंत्री हैं या जिन्होंने विधायकी छोड़ी है यदि जीत जाते हैं तो ये भाजपा की मुख्यधारा में जज्ब हो जाएंगे और यदि हारे तो हारे को हरिनाम जैसी स्थिति से भला कौन रो सकता है।
इन सभी पच्चीसों के लिए जो दलबदल कर आए हैं यह चुनाव करो या मरो की स्थिति जैसा है। इस उपचुनाव में कमलनाथ पूरी तरह प्रदेश के नेता के तौर पर जम गए हैं। सत्ता में लौटते हैं तो देश में एक करिश्माई नेता के तौरपर दर्ज होंगे, हारे तो भी प्रदेश में कांग्रेस के एकक्षत्र नेता बने रहेंगे। वे पुराने क्षत्रपों को ध्वस्त कर अपने अनुयायी क्षत्रपों को गढ़ेंगे।
यदि अठारह सीटों की जीत तक पहुंचे तो शिवराज जी पुनः उसी ताकत से जमेंगे। पंद्रह से नीचे उतरे तो उनके नेतृत्व पर किंतु-परंतु लगेगा.। ज्योतिरादित्य हर स्थिति में भाजपा की मुख्यधारा में जज्ब हो जाएंगे। भाजपा पर राजमाता सिंधिया के उपकारों का बोझ है..वे संघ के लिए भी स्वीकार्य रहेंगे।
और अंत में..। आप जानना चाहेंगे कि मेरा अनुमान क्या है..? सो मेरी गणित कहती है कि भाजपा अठारह प्लस- माइनस दो सीटों के आसपास रहेगी। उसे कड़ी टक्कर चंबल में ही मिल रही है। विंध्य, बुंदेलखंड और मालवा में भाजपा इक्कीस ही रहने वाली है।
चुनाव परिणाम के बाद दिसंबर में मंत्रिपरिषद का गठन होगा..और उसमें कौन-कौन लिए जा सकते हैं..यह आगे बुद्धिविलास का विषय है..। खुदा न खास्ता यदि मेरा अनुमान गलत साबित हुआ तो फिर मेरे विचारों की तरकश पर तर्कों के तीरों की कमी नहीं, कि जो मैंने भविष्यवाणी की वह क्यों गलत साबित हुई।