जनगणना के साथ अब पहली बार मुस्लिम समुदाय में भी जातिगत आधार पर गिनती की जाएगी, ठीक वैसे ही जैसे हिंदू समाज में होती है। अब तक मुस्लिमों को जनगणना में केवल एक धार्मिक समूह के रूप में दर्ज किया जाता था।
जातिवार गणना के माध्यम से मुस्लिम समाज की विभिन्न जातियों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति के ठोस आंकड़े सामने आएंगे। इसे एकीकृत मुस्लिम वोटबैंक की धार को कमजोर करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम के रूप में देखा जा रहा है।

असम की राह पर केंद्र? भाजपा की नई सामाजिक रणनीति
जातिवार जनगणना के आंकड़े सामने आने के बाद पसमांदा और अन्य मुस्लिम जातियां अपनी जनसंख्या के अनुपात में राजनीतिक व सामाजिक प्रतिनिधित्व की मांग कर सकती हैं। भाजपा लंबे समय से मुस्लिम समुदाय के भीतर जातियों की गणना की वकालत करती रही है। पिछले वर्ष असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने राज्य में मुस्लिम समाज की जातिगत गणना करवाई थी, जिसके आधार पर स्थानीय मुस्लिम समुदायों को अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा भी प्रदान किया गया।
कैबिनेट फैसले से बदलते राजनीतिक समीकरण
गुरुवार को हुई कैबिनेट बैठक में पहली बार जनगणना के साथ-साथ जातिवार गणना कराने का निर्णय लिया गया, जो एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। इससे मुस्लिम समाज के भीतर मौजूद विभिन्न जातियों की वास्तविक संख्या पहली बार सामने आएगी। यह निर्णय भविष्य में व्यापक राजनीतिक प्रभाव डाल सकता है। अब तक जातिगत जनगणना की मांग मुख्य रूप से ओबीसी वर्ग के हितों को ध्यान में रखकर की जाती रही है।
वक्फ बोर्ड में पसमांदा मुसलमानों की एंट्री
अब उन्हें अनुसूचित जनजाति (एसटी) श्रेणी के अंतर्गत मिलने वाली सभी सुविधाओं का लाभ प्राप्त होगा। इसके अतिरिक्त, मोदी सरकार ने वक्फ संशोधन कानून में भी पसमांदा मुसलमानों को विशेष महत्व दिया है। पिछले महीने संसद से पारित इस कानून में यह प्रावधान शामिल किया गया है कि प्रत्येक वक्फ बोर्ड में दो सदस्य पसमांदा समुदाय से होंगे। फिलहाल देशभर के 32 वक्फ बोर्डों में एक भी सदस्य पसमांदा मुसलमान नहीं है।
प्रतिनिधित्व की दिशा में पसमांदा समुदाय को नई पहचान
ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि मुस्लिम समुदाय में लगभग 85 प्रतिशत आबादी पसमांदा मुसलमानों की है, जो सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं। इसके बावजूद उन्हें सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में समुचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है। ठोस आंकड़ों के अभाव में उनकी आवाज़ अक्सर नजरअंदाज कर दी जाती है। यहां तक कि देशभर के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाले ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में भी एक भी पसमांदा मुसलमान शामिल नहीं है।