दिनेश निगम ‘त्यागी’
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान (Shivraj Singh Chouhan) कई बार कुछ ऐसा करते हैं जिसकी तारीफ दलगत राजनीति से ऊपर उठकर की जाना चाहिए। दीपावली पर्व पर सीएम हाउस में अनाथ बच्चों के साथ खुशियां साझा करना, ऐसा ही एक काम है। जिन बच्चों के माता-पिता कोरोना के गाल में समा गए, पहली दीपावली पर वे किस तरह अपने माता-पिता को मिस कर रहे होंगे, इसकी कल्पना मात्र से सिहरन दौड़ जाती है। प्रदेश सरकार का मुखिया यदि ऐसी घड़ी में इन बच्चों के साथ खड़ा नजर आए, उनके साथ खाना खाए, खिलाए। लाड़-दुलार करे।
बच्चों के सिर पर हाथ रखे और बोले कि आपके माता-पिता की कमी तो पूरी नहीं कर सकता लेकिन मैं आपके साथ सुख-दुख बांटने के लिए हमेशा खड़ा रहूंगा, तो इसे राजनीतिक चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए। मुख्यमंत्री निवास का यह कायक्रम जिसने भी देखा, उसका दिल भर आया होगा। यह काम सिर्फ तारीफ के काबिल ही नहीं बल्कि इससे सीख लेकर हर किसी को ऐसा कुछ करना चाहिए। दरअसल, शिवराज सक्रियता के मामले में अन्य से आगे हैं ही, ऐसे संवेदनशील मसलों पर भी वे अव्वल हैं। संभवत: इसीलिए कई बार जब वे हारते दिखते हैं, अचानक बाजी उनके कदम चूम लेती है। यह चमत्कार ऐसे सद्कर्मों का नतीजा हो सकता है।
कमलनाथ के विकल्प को लेकर अटकलें
पहले 22 विधायकों के कांग्रेस छोड़ने के कारण पार्टी की सत्ता गई, अब पृथ्वीपुर-जोबट जैसे गढ़ों में हार से कांग्रेस की जमीन खिसकी। कमलनाथ के नेतृत्व के चलते दो दर्जन से ज्यादा विधायक कांग्रेस छोड़ चुके हैं। उप चुनाव में हार के बाद पार्टी आलाकमान कमलनाथ के बारे में कोई फैसला करता है या नहीं, यह कोई नहीं जानता लेकिन प्रदेश में उनके विकल्प को लेकर अटकलें शुरू हो गई हैं। एक तर्क यह भी है कि जब कमलनाथ जैसा वरिष्ठ नेता विधायकों को रोक नहीं पा रहा, नेताओं को एकजुट नहीं रख पा रहा तो ऐसा दूसरा चेहरा कौन है जो इस पर काबू पाने का माद्दा रखता है।
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इस बीच कमलनाथ के विकल्प के तौर पर अरुण यादव, अजय सिंह, जीतू पटवारी सहित आधा दर्जन नेताओं के नाम लिए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि कांग्रेस छोड़कर जिसे जाना है जाए लेकिन प्रदेश में ज्यादा समय देने और सक्रिय रहने वाले किसी नेता के हाथ में पार्टी की कमान दी जाना चाहिए। एक वर्ग का मानना है कि यदि कार्यकर्ताओं, नेताओं को ज्यादा समय देने और प्रदेश में सक्रिय रहने वाले किसी नेता के हाथ कांग्रेस का नेतृत्व आ जाए तो संभव है कि कांग्रेस में भगदड़ रुके, कार्यकर्ताओं में ऊर्जा का संचार भी हो।
उमा भारती की प्रदेश में वापसी कितनी संभव
लंबे समय बाद पूर्व मुख्यमंत्री साध्वी उमा भारती एक बार फिर चर्चा में हैं। पिछला लोकसभा चुनाव न लड़ी उमा अब लगातार कह रही हैं कि वे अगला चुनाव जरूर लड़ेंगी। उनके बयानों और प्रदेश में सक्रियता से साफ है कि वे मप्र की राजनीति में अपनी वापसी चाहती हैं। हालांकि भाजपा अब तक उनका उपयोग सिर्फ चुनाव प्रचार के दौरान ही करती आ रही है, वह भी उन क्षेत्रों में जहां लोधी मतदाताओं की तादाद ज्यादा है। नई पार्टी बनाने के बाद उमा भाजपा में इसी शर्त पर वापस आ सकी थीं कि वे मप्र की राजनीति से बाहर रहेंगी। यह पाबंदी कब तक के लिए थी, कोई नहीं जानता। उमा की स्थिति का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि वे अपने बयानों के प्रति अडिग नहीं रहतीं।
अपने स्वाभाव के अनुसार कई बार आक्रामक मूड में आती हैं लेकिन यूटर्न भी ले लेती हैं। शराबबंदी और प्रथक बुंदेलखंड राज्य निर्माण सहित कई मसलों पर वे ऐसा कर चुकी हैं। भाजपा में नेतृत्व पहले के मुकाबले बदला हुआ है लेकिन मप्र में अब भी वे नेता ही ताकतवर हैं, जो पहले थे। जिनके कारण उमा को प्रदेश से बाहर किया गया था। ऐसे हालात में वे प्रदेश की राजनीति में वापसी कर पाती हैं या नहीं, यह सवाल बरकरार है।
अंतत: ब्राह्मणों को मनाने में सफल रहे भार्गव
रैगांव, जोबट एवं खंडवा के नतीजों से किसी को हैरत नहीं हुई लेकिन पृथ्वीपुर विधानसभा सीट के परिणाम ने सभी को चौंका दिया है। कोई राजनीतिक विश्लेषक पृथ्वीपुर में कांग्रेस के हारने की भविष्यवाणी नहीं कर रहा था। इसलिए पृथ्वीपुर में पराजय से कांग्रेस सदमें है और भाजपा जीत से गदगद। इस मामले में प्रदेश के कद्दावर मंत्री गोपाल भार्गव सुर्खियों में हैं। भाजपा द्वारा उप्र के सपा नेता शिशुपाल यादव को टिकट देने से क्षेत्र का ब्राह्मण मतदाता नाराज था। यहां यादवों की ब्राह्मणों के साथ पटरी भी नहीं बैठती। पार्टी के अंदर भी असंतोष की खबरें थीं। दूसरी तरफ कांग्रेस की ओर से पूर्व मंत्री स्वर्गीय बृजेंद्र सिंह राठौर के बेटे नितेंद्र मैदान में थे।
पिता की मृत्यु के कारण नितेंद्र के प्रति मतदाताओं में सहानुभूति थी। बावजूद इसके पांसा पलट गया। इसकी एक वजह हैं प्रदेश के पीडब्ल्यूडी मंत्री गोपाल भार्गव। वे जिले के प्रभारी मंत्री भी हैं। उन्हें ब्राह्मणों को साधने की जवाबदारी सौंपी गई थी और उन्होंने यह करतब कर दिखाया। लिहाजा, पृथ्वीपुर की जीत में उनकी मुख्य भूमिका रही ही, वे अंचल के एकमात्र ब्राह्मण नेता के तौर पर भी उभरे। स्थिति यह थी कि भोपाल में उनकी पत्नी अस्पताल में भर्ती थीं लेकिन भार्गव उन्हें देखने तक नहीं आए।
‘इमरती’ की तरह नहीं जचा ‘प्रतिमा’ का अपमान
विधानसभा का आम चुनाव अच्छे मतों से जीतने वाली पूर्व मंत्री इमरती देवी को डबरा के मतदाताओं ने उप चुनाव में धूल चटा दी थी। यही हाल प्रतिमा बागरी का भाजपा की परंपरागत सीट रैगांव में हुआ। डबरा में इमरती ने कमलनाथ द्वारा किए गए अपने अपमान को मुद्दा बनाया था। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, ज्योतिरादित्य सिंधिया सहित भाजपा के हर नेता ने इसे भुनाने की कोशिश की थी लेकिन मतदाताओं ने अपमान के इस मुद्दे पर मुहर नहीं लगाई। जिस तरह डबरा इमरती की परंपरागत सीट थी, उसी प्रकार रैगांव भाजपा की।
डबरा में इमरती का अपमान मुद्दा बना था और रैगांव में प्रतिमा बागरी भी मुद्दा बन गई। एक अखबार में प्रकाशित खबर और कांग्रेस नेताओं के कुछ बयानों को प्रतिमा के अपमान से जोड़ दिया गया। लिहाजा, जिस तरह इमरती डबरा में फूट-फूट कर रोई थी, वही प्रतिमा ने रैगांव में किया। प्रतिमा के समर्थन में भोपाल तक में प्रदर्शन हुआ। लेकिन मतदाताओं का दिल नहीं पसीजा और इमरती की तरह प्रतिमा भी चुनाव हार गर्इं। मतलब मतदाता अब भी जबरन की नौटंकी पसंद नहीं करता। संदेश साफ कि मतदाताओं को उल्लू नहीं बनाया जा सकता। इसलिए मुद्दे का चयन सोच समझ कर होना चाहिए।