मार्क्स तय नहीं करते है स्टूडेंट का भविष्य, बच्चों को भी अपनी मार्कशीट दिखाइये!

Shivani Rathore
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अधिकांश परिवारों में बच्चों के पास होने की खुशी से ज्यादा इस बात का तनाव है कि जैसा सोचा था ट्वेल/ टेंथ में उसका वैसा परसेंटेज नहीं बना या उसके मार्क्स तो दोस्त से भी कम आए हैं।अपने बच्चों को मानसिक त्रास देने की अपेक्षा जरूरी यह है कि आप का व्यवहार दोस्ताना और उनकी बात समझने वाला हो। यदि अपने बच्चे के कम परसेंटेज का इतना ही गुस्सा है तो जरा अपने स्कूली रेकार्ड को भी तलाश लीजिये।दसवीं-बारहवीं की मार्कशीट तो आप सब ने संभाल कर रखी ही हैं।

अपनी मार्कशीट भी तो उन्हें दिखाइये, आप के मेरिट वाले अंकों से उन्हें प्रेरणा मिल सकती है या ऐसा भी हो सकता है कि आप अपने बच्चों से ही नजर नहीं मिला पाएंगे। जब आप का बच्चा आप से सवाल करेगा पापा आप के मार्क्स तो मुझ से भी कम थे, तब क्या जवाब देंगे? राजस्थान के एजुकेशन हब कोटा से आए दिन आने वाली खबरों के बाद भी आप का दिल नहीं कांपता है तो मान कर चलिये आप अपने बच्चों पर दबाव डाल कर वो सारी ख्वाहिशें पूरी करना चाहते हैं जो खुद आप नहीं कर पाए।यह ठीक है कि तब इतनी काम्पिटिशन नहीं थी, बच्चों को यह बात दबाव-प्रभाव से नहीं प्रेम से समझाई जा सकती है, प्रेशर कुकर भी एक सीमा तक ही दबाव सहता है सीटी के संकेत नहीं समझ पाएं तो वह विस्फोट का कारण भी बन सकता है।
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बच्चों को भी अपनी
मार्कशीट दिखाइये !
🔹कीर्ति राणा इंदौर

हमारे फेमिली वॉट्स एप ग्रुप में सोमवार की दोपहर से सीबीएसई की ट्वेल/टेंथ परीक्षा में पास हुए बच्चों को बधाई के मैसेज चल पड़े। बच्चों के पास होने की खुशी से ज्यादा पेरेंट्स की चिंता यह भी थी कि जितना सोचा था उतना परसेंटेज नहीं बना, बच्चे थोड़ी मेहनत और कर लेते तो अच्छा परसेंटेज बन जाता।

इस नाखुशी वाले ऐसे मैसेज के जवाब में दूसरे रिश्तेदार ने भी अपने बच्चे के कम परसेंटेज का दुखड़ा रोना शुरु कर दिया। हमारे एक तीसरे रिश्तेदार को अपने बच्चे के परसेंटेज की खुशी से अधिक नाराजी इस बात की थी कि उसके फ्रेंड का परसेंटेज इतना अच्छा कैसे बन गया…जब कि मेहनत तो इसने भी खूब की थी।दोनों अकसर साथ में स्टडी करते थे।

वॉट्सएप पर चल रहे ये सारे मैसेज देखते-पढ़ते हुए मुझे अपने बचपन के पढ़ाई वाले वो दिन याद आ गए जब पांचवी, आठवीं से लेकर दसवीं, बारहवीं तक लगभग हर परीक्षा में अपन थर्ड डिविजन से पास होते रहे थे और मेरी कम पढ़ी-लिखी मां और नानी इस रिजल्ट पर भी खुश होकर आनंद मिष्ठान से पेड़े लाकर सालवी बाखल (मंडी) वाले हमारे पड़ोसियों में बांटती रही थीं कि मुन्ना पास हो गया है।तब दसवीं हो या बारहवीं बोर्ड के रिजल्ट वाले दिन अखबारों के चार पन्नों के स्पेशल एडिशन प्रिंट हुआ करते थे और अपन सबसे नीचे से अपना रोल नंबर देखना शुरु करते थे।

थर्ड डिविजन का यह रिकार्ड कॉलेज एजुकेशन के दौरान भी जारी रहा। गुजराती आर्ट-एंड कॉमर्स कॉलेज में बीए में एडमिशन लिया तो परिवार के दबाव में अंग्रेजी सब्जेक्ट लेना पड़ा।नतीजा मुझे तो पहले से पता था, सलाह देने वालों को रिजल्ट आने के बाद पता चला कि अंग्रेजी के पेपर में अपन फेल हो गए हैं।शायद अंग्रेजी के खिलाफ यही गुस्सा था कि जनता चौक (राजवाड़ा) पर जब अंग्रेजी हटाओ आंदोलन को लेकर आमसभा चल रही थी तब केके मिश्रा-भंवर शर्मा की जोड़ी के साथ अपन भी जुलूस-नारेबाजी में शामिल हो गए थे और एमजी रोड थाने पर हुए हंगामे-लाठीचार्ज का शिकार हो गए थे। हायर सेकंडरी तक थर्ड डिविजन का जो रिकार्ड था वह कॉलेज एजुकेशन तक भी यथावत रहा।

उस जमाने में परसेंटेज का आज जैसा महत्व नहीं था, और न ही इतनी काम्पिटिशन ही थी। अधिकांश परिवारों के अभिभावक आज की तरह बच्चों पर परसेंटेज का भी इतना प्रेशर नहीं बनाते थे।इतनी महंगाई नहीं थी, घर में एक व्यक्ति की कमाई से परिवार की गुजर-बसर आसानी से हो जाती थी।संयुक्त परिवार वाली व्यवस्था में तो प्रेम की गंगा बहती रहती थी। पिछले पांच-छह दशकों में सारा परिदृश्य बदल गया है।अब तो संयुक्त परिवार आश्चर्य से देखे जाने लगे हैं। बढ़ती महंगाई में एकाधिक सदस्यों का सर्विस करने के बाद भी फेमिली का बजट गड़बड़ाता रहता है।स्कूल से लेकर कॉलेज एडमिशन तक एजुकेशन स्टेटस सिंबल हो गया है।

हर परिवार का मोटा खर्चा तो बच्चों के एडमिशन-एजुकेशन पर होने लगा है।पड़ोसी का बच्चा बाहर पढ़ने गया है तो मेरा बच्चा क्यों नहीं जाए, इस मानसिकता से पेरेंटस का तो परसेंटेज को लेकर दबाव रहता ही है, आकर्षित करते नए-नए सब्जेक्ट, कोचिंग सेंटरों का चुंबकीय आकर्षण,सरकार की नाकामी से जड़ जमा चुका एजुकेशन माफिया, दोस्तों से होड़ाहोड़ी का आलम यह हो गया है कि हर अभिभावक चाहता है परसेंटेज की दौड़ में उसका बच्चा ही आगे रहे। शायद यही सारे कारण है कि ऑनलाइन रिजल्ट घोषित हुआ तो लगभग सभी फेमिली ग्रुप पर बच्चों के पास होने की खुशी से अधिक परसेंटेज की चर्चा होती रही।

यह वक्त बच्चों को मानसिक त्रास देने का नहीं उनके साथ दोस्ताना व्यवहार का है।एग्जाम वाले दिनों में लगभग हर परिवार में मम्मी बच्चों से पहले जाग कर उन्हें स्टडी के लिए उठाती रहीं और उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए जगराता भी करती रही हैं, मुश्किल सवालों के आसान हल का तरीका पापा भी बताते रहे हैं।जिस तरह कोई डॉक्टर मरीज को अंतिम क्षण तक बचाने के लिए प्रयासरत रहता है वैसे ही अधिकांश बच्चे भी स्टडी से लेकर पेपर हल करने तक बेहतर परफार्मेंस के लिए प्रयासरत रहते हैं। कोई भी स्टूडेंट कम परसेंटेज के लिए तो संघर्ष नहीं करता।

रिजल्ट घोषित होने के बाद टॉप पर तो कोई एक ही रहेगा लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि दूसरे, तीसरे, दसवें या और नीचे परसेंटेज वाले स्टूडेंट ने मेहनत की ही नहीं। टॉप रहे स्टूडेंट के पेरेंट्स को ही सेलिब्रेट करने का हक नहीं है।हर पेरेंट्स प्रताड़ना वाली मानसिकता से ऊपर उठ कर अपने बच्चे की उपलब्धि को इस अंदाज में सेलिब्रेट करे कि उसके मार्क्स उन तमाम स्टूडेंट्स से तो बेहतर रहे हैं जिनका रोल नंबर उसके बाद आता है।
कोई पेरेंट्स नहीं चाहेगा कि उसका बच्चा उनके हाथों से निकल जाए।

कोटा से हर कुछ दिनों में स्टूडेंट द्वारा प्रेशर के कारण की जाने वाली आत्महत्या की घटनाओं से उन तमाम पेरेंट्स को सबक लेना ही चाहिए जो हायर एजुकेशन के लिए अपने बच्चों पर अब और दबाव बनाएंगे ही।अपने बच्चों पर परसेंटेज का दबाव बनाने की अपेक्षा बेहतर तो यह होगा कि उनके साथ दोस्ताना व्यवहार रखें।उन्हें गाइड करने का प्रेशर बनाने की अपेक्षा पहले उनकी सुनें कि वो अब क्या करना चाहते हैं, किस सब्जेक्ट में उनकी रुचि है और कौनसा सब्जेक्ट उन्हें फूटी आंखों नहीं सुहाता है।

जिस फील्ड में बच्चे जाना चाहते हैं या जिस सब्जेक्ट को वे करियर के लिहाज से बेहतर मानते हैं जरूरी नहीं कि हर पेरेंट्स उसे बेहतर समझते हों ऐसे में बच्चों को सही रास्ता करियर काउंसिलिंग से भी मिल सकता है, हो सकता है आप की बात उसे शिक्षाविद-मार्गदर्शक बेहतर तरीके से समझा दें।शहर के शैक्षणिक संगठनों को भी जिला प्रशासन प्रेरित करे कि वे निशुल्क मार्गदर्शन दें और इस शहर से मिली उपलब्धियों का कर्ज उतारने की उदारता दिखाएं।स्कूलों में एक दिन पढ़ाने के लिए वक्त निकालने वाले आयएएस, आयपीएस सहित अन्य अधिकारी भी स्टूडेंट्स को करियर गाइडेंस के लिए सही रास्ता बता सकते हैं।