अनिल त्रिवेदी
हिंसा और नफ़रत मानव समाज के स्थायी भाव नहीं है। जैसे प्राकृतिक आग सदैव प्रज्वलित नहीं रहती वैसे ही साम्प्रदायिक और जातीय हिंसक धटनाएं भी तात्कालिक रूप से ही धटती है। आज ही नहीं सदियों पहले मनुष्य के मन में हिंसा और नफ़रत के भाव का उदय हुआ। पर एक भी मनुष्य या समाज ऐसा नहीं हुआ जो जीवन भर हिंसा और नफ़रत के साथ जी पाया हो। मनुष्य समाज के इतिहास में देश और दुनिया भर में ऐसे संगठन और सिद्धांत गढ़े गए हैं जिसे साधन बना कर हिंसा और नफ़रत को मानव मन में बढ़ाने का रास्ता कुछ समूहों ने पकड़ा है और उसे ही पूरूषार्थ समझते हैं। पर देश और दुनिया की जिन्दगी में यह जीवन का प्राकृतिक रास्ता नहीं बन पाया। हमारे समाज में कई संगठनों, संस्थानों और समूहों को हिंसात्मक और नफरती विचार संगठन के तात्कालिक विस्तार के लिए अनुकूल या आकर्षक लगते हो।
हिंसा और नफ़रत की धटनाएं आज के हमारे देश काल और मन मस्तिष्क में रोज की सामान्य बात हो गई है। हिंसा को प्रतिष्ठापित करना और अपने संगठन, समूह और विचार का विस्तार करना कई लोगों को तात्कालिक तौर पर लाभकारी लगता है। पर मूलतः ऐसे विचार और संगठित व्यवहार दया के पात्र हैं क्योंकि ऐसी विचारधाराओं को मनुष्य और विचार की प्राकृतिक ऊर्जा की अनन्त शक्ति से अबतक साक्षात्कार ही नहीं हो पाया है। हिंसा के सहारे विचार व संगठन का विस्तार करने वाले समूहों को समझना चाहिए कि हिंसा और नफ़रत जीवन की बुनियाद नहीं है। फिर भी यह बात किसी संगठन और विचार को समझाना पड़े तो हमारे अन्तर्मन में ऐसे संगठन और जमातों के लिए दया और करुणा का भाव ही उपजेगा ,हिंसा और धृणा का नहीं क्योंकि यही सनातन प्राकृतिक विचार और व्यवहार है।
हिंसक धटनाएं और नफरती विचार दूसरे को थोड़ा बहुत क्षतिग्रस्त तो करते ही हैं पर स्वयं को भी स्वतंत्र और भयमुक्त जीवन से सबसे पहले और सर्वाधिक वंचित करते हैं। हिंसा और नफ़रत मनुष्य समाज का ताना-बाना नहीं है। आज या कभी भी देश दुनिया को हिंसा नफ़रत और विकृत व्यवस्था से नहीं चलाया जा सकता। मनुष्य समाज ने न जाने कितने युद्ध लड़े पर सब के सब बेनतीजा रहे। हिंसा और बन्दूक के बल पर न जाने कितनी सत्ता बनी पर वे सब भी हथियारों के साये के सहारे ही अल्पकाल तक चल पाई। तानाशाही तो उधार की हिंसा और हथियार की ताकत से ही अल्पकाल तक चल पाती है। क्योंकि हिंसा जीवन की विकृति है प्रकृति नहीं। हिंसा मनुष्यकृत धटना है। नफ़रत मनुष्य के दिमाग को मृत्यु की दिशा में धकेलती है। हिंसा और नफ़रत विचार हीन भीड़ की विकृत तात्कालिक उत्तेजना है। प्रकृति मूलतः शांत ,गहन – गंभीर और जीवनदायिनी है। मनुष्यकृत विध्वंसक विचार और व्यवहार, व्यक्ति और समाज के मन में तात्कालिक रूप से कई चुनौतियां खड़ी करता है जिससे समकालीन समाज मुंह नहीं मोड़ सकता या पलायन नहीं करता।
हमारे देश के प्राकृतिक जीवन से ओतप्रोत पूर्वोत्तर राज्यों में जो चुनौतियां उभरी है वे संकुचित विचार और हिंसक संगठित विकृतियों का उप उत्पाद है। हिंसा तात्कालिक रूप से मनुष्य को असहाय बनाती है। पर हिंसा मानव मन में शांति सद्भाव और जीवन को सभ्यता की दिशा में सतत सक्रिय बने रहने की भूख भी जगाती हैं। पूर्वोत्तर में जो हिंसा उभरी है वो मनुष्य समाज में जो भौतिक समस्याएं है, उनका न तो तात्कालिक हल है और नहीं सर्व कालिक हल है । हिमालय पर्वत श्रंखला में बसने वाले मनुष्य समाज के रोजमर्रा के जीवन के सवाल,संधर्ष, और समाधान उस तरह नहीं हल हो सकते जैसे मैदान या महानगर में रहने वालों के होते हैं। पहाड़ और मैदान दोनों ही सदियों से मनुष्य समाज का निवास रहे हैं। आज जब आम मनुष्य को अपनी जिंदगी को चलाने के लिए चूल्हा जलाना कठिन है वहां जब मनुष्य समाज के घरों को जलाकर, हिंसा और नफ़रत का नंगा नाच करना राज्य, समाज और विचार के सामने आई खुली चुनौती है। चुनौतियां चुप रहने या निष्क्रियता से नहीं हल होती है।
आज की दुनिया में कुछ संगठित विचार हिंसा और नफ़रत के साधनों से राज्य और समाज की अगुवाई हांसिल करना चाहते हैं। पर प्राकृतिक मनुष्य इस देश और दुनिया में अपने रोजमर्रा के जीवन के सवालों को हिलमिल कर ही हल करता आया है। रोटी जुटाता आया है। स्वयंभू आगेवान विचार और संगठित समूह तात्कालिक लोभ लालच और विध्वंसक शक्ति से दुनिया में आगे बढ़ना चाहते हो।पर पहाड़, जंगल, मैदान, नदी किनारे या रेगिस्तान में रहने वाले सारे मनुष्य आजीवन शांति, सद्भाव और आपसी समझबूझ से हिलमिल कर ही सनातन काल से जीते आये है। जीवन की प्राकृतिक चुनौतियों को जीवन का अनन्त संधर्ष मान उससे जूझते रहने और जीने से शांति और सद्भाव की भूख बढ़ती है।
अनिल त्रिवेदी अभिभाषक
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