बाकलम – नितेश पाल
26 जनवरी वो दिन जब ‘भारत का संविधान’ लागू हुआ था। इसे पढ़ रहा था, जिसकी शुरूआत की लाइनों में लिखा था भारत का संविधान उद्देशिका हम भारत के लोग, भारत को एक (संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्षक लोकतंत्रात्मक गणराज्य) बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को : सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और (राष्ट्र की एकता और अखंडता) सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर 1949 ई० (मिति मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतत् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
इन 77 शब्दों में संविधान के 470 अनुच्छेद, 12 अनुसूचियां जो 25 भागों में बटी हैं, वो पूरी तरह से सपष्ट है। लेकिन इसकी चौथी लाइन में लिखे संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्षक लोकतंत्रात्मक गणराज्य को हम क्या मान रहे हैं? देश में क्या आज सामाजिक तौर पर न्याय हो रहा है, ऐसा कोई महीना नहीं होगा, जब देश के किसी न किसी राज्य से दलितों पर अत्याचार की खबर नहीं आती। आर्थिक और राजनैतिक न्याय क्या हम दे पा रहे हैं, देश के सभी लोगों को क्या आर्थिक न्याय मिल पा रहा है, आज भी कई जगह ऐसी है जहां पर न्यूनतम मजदूरी भी लोगों को नहीं मिल पा रही है।
आज ही पढ़ रहा था मुकेश अंबानी एक सेकंड में जितना कमाते है उतना एक मजदूर की तीन साल की कमाई होती है। जब लोगों के पास नौकरियां नहीं है, उस समय में पेट्रोल-डीजल के दाम सैंकडें से कुछ ही दूरी पर है। किसान अपने आर्थिक हकों को बचाने के लिए सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन कर रहे हैं, उनकी मौत हो रही है, क्या ये आर्थिक न्याय है? राजनीतिक न्याय का मतलब हो गया है केवल चुनाव जीतना। चुनाव जीतने वालों को अन्य विचारधाराओं को लेकर हद से ज्यादा गंदगी फैलाने का अधिकार का मतलब ही राजनीतिक न्याय है? विचार की अभिव्यक्ति क्या सोशल मीडिया पर छूट बोलने, सच्चाई छुपाने का साधन और भड़काने, एक दूसरे को नीचा दिखाने की स्वतंत्रता है? देश में जनता को सरकारों पर और सरकारों को जनता पर विश्वास है?
यदि है तो फिर देश की राजधानी के बाहर अन्नदाता को क्यों रोका जाता है। धर्म के नाम पर क्या नहीं हो रहा, धर्म के नाम पर इस देश में वोटिंग जरूर होती है, धर्म के नाम पर झगड़े होना तो देश में आम बात हो गई है? धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर धर्म परिवर्तन को बढ़ावा दिया जा रहा है, धर्म की आड़ में भावनाओं को भड़काया जा रहा है। उपासना की स्वतंत्रता के नाम पर धर्मस्थलों को लेकर झगड़े किए जा रहे हैं। जमीनों पर कब्जे किए जा रहे हैं। सड़कों पर ही मूर्ति लगाकर यातायात को बिगाडने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। प्रतिष्ठा और अवसर की समता क्या देश में मिल रही है, यदि मिल रही है तो फिर नौजवान देश छोड़कर विदेशों में क्यों जा रहे हैं।
केवल खास लोगों की प्रतिष्ष्ठा ही सबकुछ होती है, आम आदमी की प्रतिष्ष्ठा को खास के लिए कुचल दिया जाता है। बगैर जनता की सहमती के ही मनमानी फैसले प्रतिष्ष्ठित लोग (नेता, अफसर) ले लेते हैं। तो क्या ये प्रतिष्ष्ठा की समता है। ये प्रतिष्ष्ठित लोग आम आदमी के टैक्स की कमाई पर पलते जरूर हैं, लेकिन उसके ही पैसों को अपनी जेब में डालने पर ज्यादा विश्वास करते हैं। उसे अपने हिसाब से खर्चा करते हैं, उसमें घोटाले करते हैं। आम आदमी की बात यदि खास की सच्चाई सामने लाती है तो वो उसकी प्रतिष्ष्ठा को ठेस पहुंचा देती है?
गणतंत्र दिवस यानी संविधान को लागू करने का दिन… लेकिन जिस संविधान को सभी के लिए बनाया गया था, उसे आज कोई मानता भी है। ऐसा लगता है कि भारत का संविधान एक किताब मात्र बनकर रह गया है। संविधान में जनता को सर्वोपरी मानकर देश को चलाने के लिए तीन पालिकाएं (विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका) तय की गई, लेकिन तीनों अपना काम सही तरह से कर रही हैं? कभी-कभी लगता है कि 1950 में लागू हुआ ये संविधान 71 सालों में ही अपना अस्तित्व खो रहा है। देशभर में इसके इतर ही सबकुछ हो रहा है। विधायिका, न्यायपालिका को बेबस कर रही है, सुप्रीम कोर्ट के जज सामने आकर अपना दर्द बयां कर रहे हैं। न्यायपालिका, विधायिका को समझ ही रही है और कार्यपाललिका दोनों को अपने हिसाब से चला रही है। कार्यपालिका के लोग कभी संविधान का पालन करवाते नजर आते भी हैं? सब खुद को राजा मान रहे हैं, ओर पीस रही है केवल जिसे सबसे बड़ा अधिकार है वो जनता।
हर साल संविधान को लागू करने की तारीख को हम राष्ट्रध्वज फहराकर मनाते तो हैं, लेकिन देश के कितने लोगों को संविधान की सामान्य जानकारी, इसमें कितने अनुच्छेद, कितने अधिकार और कितने कर्तव्य तय किए गए हैं, इसकी भी जानकारी है। संविधान का समापन किस तरह से होता है, इसके बारे में भी किसी को पता है। जब सामान्य आदमी को 71 सालों में इसकी जानकारी तक नहीं है तो क्या इस संविधान को हम बचा पाएंगे। क्या इसकी जानकारी देश के हर नागरिक को हो इसकी जरूरत नहीं है। भारत के संविधान को क्यों सरकारें जनता को पढ़ाती नहीं है। क्यों संविधान के बारे में बच्चों को स्कूलों में नहीं पढ़ाया जाता। शायद इससे वो अपने अधिकार समझने लगेंगे और चंद लोगों की कठपुतली नहीं बन पाएंगे। मेरे हिसाब से जरूरत है कि बच्चों को संविधान का भी एक कोर्स स्कूली शिक्षा के तौर पर शामिल करते हुए पढ़ाया जाना चाहिए, ताकि हमारा संविधान बच सके।