मैं एक आधुनिक मानव के रूप में और परमपिता की लायक संतान के रूप में, इधर-उधर, दायें-बायें भटकने की बजाय मूलभूत आधार वाले तल (फंडामेंटल बेस लेवल) पर ही रहना पसन्द करता हूँ और इसी शून्य धरातल पर दृढ़प्रतिज्ञ रूप से प्रस्थित होकर उस परम् शक्ति पर अपनी अगाध श्रद्धा और अनन्त विश्वास प्रकट करता हूँ ।
यह मेरा अटल विश्वास है और मैं इस विचार से पूरी तरह से आश्वस्त भी हूँ कि ईश्वर, जन्म से ही हमारे अंदर है, हमारे जीवन के प्रत्येक पल में हमारे साथ है और वही हमारे एकमात्र नियंत्रक भी है ।
आज से हजारों लाखों वर्षों पहले जब ना कोई बोली थी ना ही कोई लिपि अस्तित्व में आई थी और ना कोई पुस्तक या ग्रन्थ था और नाही कोई संग्रहित ज्ञान मार्गदर्शन हेतु उपलब्ध था तब हमारे पाषाणयुगीन पूर्वजों को जैसे भी मुक्ति मिली होगी या आत्मानुभव हुआ होगा, दरअसल वही तो मुक्ति का एकमात्र सच्चा मार्ग है, बाकी सब मानव रचित कर्म कांड तो निरर्थक ही प्रतीत होते हैं ।
उस कालखंड में ना तो कोई पूर्व परिचित मार्ग था ना ही कोई उस मार्ग पर चलकर वापस लौटा कोई मार्गदर्शक था (वो तो आज भी नहीं है क्योंकि जो उस मार्ग पर चला जरा वो वापस नहीं लौट कर नहीं आता है), तो इन सब के बिना भी यदि उन्हें मुक्ति मिली होगी, जो कि निश्चित ही मिली होगी, क्योंकि कहीं ना कहीं से तो शुरुआत हई होगी ना ..! तो हमें भी स्वाभाविक रूप से हमारी भावना के फलस्वरूप मुक्तिबोध या आत्मबोध क्यो नही हो सकता ?
सन्त रैदास, सन्त कबीर, नचिकेता, ध्रुव, प्रह्लाद आदि इस बात के जीवंत उदाहरण हैं कि किसी भी सांसारिक गुरु/महात्मा, कोई भी तपस्या या नाना प्रकार की जटिल प्रक्रिया से भी ऊपर है ईश्वर के प्रति स्वतः स्वाभाविक रूप से उपजी पूर्ण विश्वास और समर्पण की भावना । परमपिता के प्रति यही विश्वास और समर्पण की भावना ही मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है ।
बिना किसी भय या लालच के परमपिता के चरणों में सम्पूर्ण समर्पण ही मुक्तिबोध है ।
- राजकुमार जैन