वाह री बदनसीब कविता तुझे इतनी बड़ी लाइब्रेरी में एक कोना नसीब नहीं हुआ

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अर्जुन राठौर। बेचारी हिंदी कविता का दुर्भाग्य तो देखिए इंदौर की सबसे बड़ी लाइब्रेरी में उसे 2 फुट का एक कोना भी नसीब नहीं हुआ उसे बड़ा बेआबरू होकर अहिया केंद्रीय लाइब्रेरी से इंदौर प्रेस क्लब परिसर में आना पड़ा यह पूरा किस्सा हिंदी कविता की दुर्दशा और हिंदी कविता के प्रति अफसरशाही का जो रवैया है उसे तो उद्घाटित करता ही है लेकिन इसके साथ ही यह भी बताता है कि आज भी हिंदी कविता के लिए सार्थक सोचने और काम करने वालों की कमी नहीं है लेकिन उन्हें मिलता क्या है ?सत्यनारायण व्यास जी ऐसे ही रचनाकर्मी व्यक्ति हैं जिन्होंने इस दर्द को महसूस किया है ।

इस पूरे मामले की शुरुआत तब हुई जब इंदौर में सूत्रधार के नाम से प्रसिद्ध कला साहित्य की संस्था चलाने वाले व्यासजी के दिमाग में यह कल्पना आई की शहर में एक ऐसा स्थान होना चाहिए जहां पर समकालीन हिंदी कविता का एक पोस्टर लगाया जाए जिसमें चर्चित कवियों की रचनाएं प्रदर्शित हो और लोग उनका आनंद ले सके ।

कविता के प्रति आम जनता के घटते रुझान को देखते हुए यह प्रयास वास्तव में बेहद सराहनीय था और सबसे बड़ी बात यह थी कि इस पूरे प्रयास के लिए सत्यनारायण व्यास द्वारा किसी से कुछ भी नहीं मांगा गया यानी कोई धनराशि नहीं मांगी वे इस कार्य को अंजाम देना चाहते थे इसी उद्देश्य को लेकर उन्होंने रीगल चौराहा स्थित अहिल्या केंद्रीय पुस्तकालय के अधिकारियों से कहा कि वे लाइब्रेरी परिसर में एक बोर्ड लगाना चाहते हैं जिसे कविता कोना नाम दिया जाएगा और इस बोर्ड पर हर 15 दिन में किसी एक नए चर्चित कवि की कविता प्रदर्शित होगी उनके इस प्रस्ताव को लाइब्रेरी के अधिकारियों ने मंजूरी दे दी बोर्ड लगाने की तैयारी शुरू हो गई ।

यह भी कहा गया कि पहली कविता कोना के पोस्टर का विमोचन साहित्यकार तथा कवि सरोज कुमार द्वारा किया जाएगा इसी बीच यह आपत्ती आ गई कि सरकारी परिसर में इस तरह के कार्यक्रम या इस तरह का बोर्ड लगाने की अनुमति नहीं दी जा सकती कविता कोना का बोर्ड और कविता भी तैयार थी लेकिन इस आपत्ति के बाद कविता कोना का विमोचन लाइब्रेरी परिसर में नहीं हो सका ।

जब यह मामला उछला तो इंदौर प्रेस क्लब द्वारा यह पहल की गई कि उस बोर्ड को प्रेस क्लब परिसर में लगा दिया जाए व्यासजी ने अपनी रचनात्मक योजना को इंदौर प्रेस क्लब में अंजाम दिया जहां पिछले कई दिनों से प्रति 15 दिन में नई कविता का पोस्टर लगाया जाता है अब सवाल इस बात का उठता है कि क्या हमारी सांस्कृतिक विरासत इतनी अधिक दरिद्र हो गई है कि हम लाइब्रेरी के परिसर में कविता का एक बोर्ड तक नहीं लगा सकते?

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अहिल्या लाइब्रेरी में लेखन को प्रोत्साहन देने के लिए और पुस्तकों के पठन के लिए अनेक योजनाएं संचालित की जा रही है छोटे बच्चों को बुलाकर नाम मात्र के शुल्क पर उन्हें लाइब्रेरी की सदस्यता दी जा रही है ताकि वे किताबें पढ़ना सीखें इसके अलावा और भी कई योजनाएं वहां पर चल रही है लाइब्रेरी परिसर में घुसते ही बड़े-बड़े पोस्टर लगे हुए दिखाई देते हैं जिनमें किताबों के महत्व को बताया जा रहा है ऐसी स्थिति में कविता के एक बोर्ड से या एक पोस्टर से भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी ?कविता के पोस्टर और उसके बोर्ड को बड़ी बेशर्मी से लाइब्रेरी परिसर से परिसर से बेदखल करने वालों को सोचना चाहिए की कविता के लिए क्या हमारे पास 2 फुट जगह भी नहीं है बची है