जो सिर्फ नाम के राहत नहीं

Akanksha
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अमित मंडलोई

कोई 10 साल पुरानी बात है, इंदौर में एक बड़ा कवि सम्मेलन कम मुशायरा होने वाला था। देश के बड़े शायर और कवि मंच पर आने वाले थे तो आयोजकों को लगा क्यों न इसके पहले एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करा ली जाए। मैं उसी प्रेस कॉन्फ्रेंस में शामिल था। कुमार विश्वास के आने के पहले कवियों ने एक बड़ी शिकायत दर्ज कराई कि यह बहुत खराब है कि लोग दूसरों की रचनाएं पढ़कर चले जाते हैं। उन पर खूब तालियां बंटोरते हैं और अगले दिन उसी के नाम पर वे पंक्तियां छप जाती है। अखबारों को ऐसे कवियों पर अंकुश लगाना चाहिए। मैंने उनसे सवाल किया कि जनाब जब वे कवि दूसरों की पंक्तियां पढ़ते हैं तब आप और आपकी बिरादरी के तमाम लोग भी तो मंच पर मौजूद होते हैं। आप लोग क्यों उस वक्त ही इस बात का विरोध नहीं कर देते। हम तक यह बात ही क्यों आनी चाहिए।

जाहिर है, बड़े कवियों और शायरों के पास इसका कोई जवाब नहीं था। उससे बड़ी बात यह थी कि वे इस सवाल से भी बचना चाहते थे, जैसे वे दूसरों की शायरी पढ़ते कवियों से पंगा लेने से बचते रहे हैं। नजरें झुकाकर। हालांकि मेरा यह सवाल अनुत्तरित नहीं रहा। मुझे इसका जवाब एक दूसरे मंच पर मिला। इंदौर की ही एक बड़ी महिफल में जिसमें कुमार विश्वास ने खूब दाद बंटोरी थी। चूंकि कौमी आयोजन था, इसलिए वे अपने अंदाज में कहते चले जा रहे थे कि देश के सर्वश्रेष्ठ 10 भजन चुने गए हैं, जिनमें से 10 के 10 मुस्लिम ने लिखे हैं, मुस्लिम ने गाए हैं और इंतेहा ये कि वे मुस्लिम पर ही फिल्माएं गए हैं।

पूरा सदन भर-भर कर तालियों की बारिश कर रहा था। कुमार खूब कामयाब हुए। उनके काफी देर बाद राहत भाई और बोले, ये शायरी की महफिल हैं, यहां शायरी की बात होना चाहिए। कुमार मेरे पास भी इतना चूरण है कि लोग रातभर तालियां बजाते रहेंगे, लेकिन मैं शेर सुनाने आया हूं, बस वही सुनाऊंगा। राहत भाई सदन को ही नहीं मुझे भी लाजवाब कर दिया था। किसी मैं हिम्मत है जो मंच से ही जवाब दे सकता है।

इसके बाद सिंहस्थ के दौरान फिर एक वाकया हुआ। वे अवधेशानंदजी से मिलने आए थे। उस दिन उन्होंने ट्वीट किया। ‘तुमको देखा तो धुल गई आंखें, हो गया शाही स्नान मेरा।’ मैंने ये लाइन सिंहस्थ जैकेट के लीड हेडिंग के बतौर लगाई। दो लाइनें ही थीं, लेकिन सिंहस्थ में अवधेशानंद जी से मुलाकात को इससे अच्छे तरीके से कौन बयां कर सकता था। फिर मंच पर उन्हें सुनता तो लगता जैसे वे शेर नहीं सुना रहे। अपने आप को अपनी बात को इस ताकत के साथ बयां कर रहे हैं कि जो कुछ उन्होंने वह कहते हुए महसूस किया, वह उसी तरह उनके श्रोताओं तक पहुंचे। वे शुरू करते … जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे… जो…. आज….. साहि…बे…. मस…नद हैं…. क…..ल.. न… हीं… हाेंगे। यह एक ही लाइन तीन-चार बार दोहराते, हर बार नए अंदाज, नई ताकत के साथ। शायद तब तक जब तक की सामने बैठे एक-एक श्रोता की रोंए न खड़े हो जाएं।

जब पहली लाइन पूरी तरह उतार देते तब फिर धीरे से उठाते… किराएदार हैं… किराएदार हैं… अरे किराएदार हैं…. जाति मकान थोड़े हैं। इसमें उनकी हंसी भी गूंजती, चेहरे का नूर भी दमकता, आंखों की शरारत भी जागती और होठों के अंदाज भी मचलते। इस कदर की आखिरी पंक्ति में बैठा श्रोता भी पूरे शेर में उसी तरह डूब जाता जैसे कढ़ाई से निकालकर किसी गुलाब जामुन को चासनी में डुबोया जाता है। और जब वे यह कहते कि सभी का खून शामिल है यहां कि मिट्‌टी में किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है। तो उस वक्त जो गर्व, हिंदुस्तान पर जो फख्र और मालिकीयत उनके चेहरे पर चमकती वह किसी और चेहरे पर देख पाना दुर्लभ है।

वैसे इंदौरी होने के साथ उनसे जुड़ाव की एक और बड़ी वजह उनके भाई आदिल कुरैशी भी थे, जिनके साथ मैंने कई बरस काम किया। कुछ समय तो हम एक ही इलेक्शन डेस्क पर भी साथ रहे। आदिल भाई के साथ राहत भाई के घर भी जाना हुआ और कभी खबर आदि के लिए बैठकर बात करने के मौके भी आए। हर मुलाकात के बाद राहत भाई से अपनापन बढ़ता ही महसूस हुआ। आखिरी बार उनसे मुलाकात भोपाल के रास्ते पर डोडी में हुई। वे परिवार के साथ थे और हम कुछ लोग मीटिंग के लिए भोपाल के लिए निकले थे। उन्हें देखना, कुछ पल उनके साथ रहना भी बहुत राहत देता था।

इसके बाद अभी कुछ दिन पहले टीवी रिमोट पर अंगुलियां घूमाते हुए पाया कि कपिल के शो पर कुमार और राहत भाई साथ में मौजूद हैं। यहां भी लगभग वैसा ही दृश्य था। कुमार अपनी बात कह रहे थे, जनता तालियां बजा रही थी। फिर राहत भाई आए, उन्होंने कुछ शेर सुनाए और जाहिर तौर तालियों की गड़गड़ाहट कुछ ज्यादा ही थी। राहत भाई उस मंच पर भी नहीं चूके, बोले देखो कुमार ये तालियां साबित करती हैं कि बात कितनी ही अच्छी कर लो, लेकिन महफिल दमदार शायरी से ही बनती है। कुमार निरुत्तर हो गए। मौके और मुंह पर सही को सही और गलत को गलत कहने की इसी ताकत के नाम को हम राहत इंदौरी कह सकते हैं। राहत भाई चले गए, लेकिन उनकी ये सीख, शब्दों की यह दौलत हमेशा हमारे भीतर जिंदा रहेगी, उन्हें जिंदा रखेगी। इसलिए अलविदा नहीं कहूंगा… कभी नहीं कहूंगा।