कालिदास को कहां ढूंढूं?

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(निरुक्त भार्गव)
‘नो नेगेटिव न्यूज़’ के झंडाबरदार सहित समस्त मीडिया माध्यमों में एक-ही गूंज है, अखिल भारतीय कालिदास समारोह के उद्घाटन के मुखौटे कौन होंगे? लगातार सात दिनों के मंचीय (सांस्कृतिक) आयोजन में जिन्हें अपनी-अपनी प्रस्तुति करने का अवसर मुहैय्या कराया गया है, उसके पीछे किन-किन संगठनों/नेताओं/अभिनेताओं/अफसरों/कलाकारों/दलालों इत्यादि की भूमिका रही है? ये सब बातें खूब छन-छन कर बाहर आ रही हैं! ये तय है कि भीड़ को आकर्षित करने के लिए जो ‘राष्ट्रीय हस्तशिल्प मेला’ कालिदास संस्कृत अकादमी के पार्श्व भाग में लगता था, वो इस बार सबकी आंखों से ओझल ही रहेगा! क्षिप्रा नदी के पश्चिमी तट पर कार्तिक मास में भरने वाला गर्दभों (ढेंचू-ढेंचू) का मेला और उसके प्रकाश में लगने वाला कार्तिक मेला भी शायद-ही आयोजित हो!

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बहरहाल, कालिदास समारोह का आरम्भ तो हो चुका है! ‘नो नेगेटिव’ के चश्मे से देखें तो उज्जैनवासियों को पीले चावल (दावत) देने के उद्देश्य से 14 नवम्बर को निकली कलश यात्रा में भागीदारी करनेवालों का सन्देश प्रभावी रहा! समारोह के पूर्वरंग की बेला में संयोजित “नान्दी” कार्यक्रम तो छाप छोड़ गया, प्रेक्षकों के मनो-मस्तिष्क पर! उज्जयिनी के प्रोडक्ट मनोज सर्राफ ने ध्रुपद शैली में परंपरागत गायन के जो सुर छेड़े, तो एहसास हुआ कि हमारी विधाएं कितनी गहराई और विस्तार लिए हुए हैं! अपने-ही बीच के कबीरपंथी महानायक “भारती बंधू” (रायपुर) ने जब शब्दशः सूफी गायन प्रस्तुत किया, तो मालूम ही नहीं पड़ा, सन-डे वीकली-ऑफ की रात्रि 10 कैसे बज गई!

दोहराता चलूं: महाकवि कालिदास के नाम, उनके जन्मस्थान, उनकी जात, उनके धर्म, उनके राज्य, उनके पुरखों के बारे में पूरे भारतवर्ष में एकमतता नहीं है! फिर भी, कालिदास के नाम पर उज्जैन में साल-दर-साल से महोत्सव होता है, हर देवप्रबोधिनी एकादशी पर. शायद ऐसा जम्मू और कश्मीर में अथवा बिहार तक में नहीं होता, जहां कहा जाता है कि कालिदास तो उन-की ही धरती की पैदाइश हैं!

विश्व में शेक्सपीयर, गेटे और उनके जैसे दर्जे के कई कवियों, साहित्यकारों और शोधार्थियों का खूब डंका बजता है, मगर कालिदास को जो दर्जा प्राप्त है, वो अप्रतिम और बेजोड़ है! महज इसलिए नहीं कि वो उज्जयिनी में भैरवगढ़ में विराजित गढ़कालिका माता के अनन्य भक्त थे या फिर तत्कालीन राजा की पुत्री विद्योत्तमा उनकी ब्याहता थीं! हकीकत में कालिदास बहुत फक्कड़ किस्म के इंसान थे! शायद इसीलिए उनमें कुछ विशेष दृष्टि थी! विदिशा से उज्जैन आकर उन्हेल होते हुए उन्होंने जिस आकाशीय मार्ग का अपने काव्यों में वर्णन किया है, उसपर रिसर्च जारी है. नाट्य शास्त्रों के माध्यम से प्रकृति के छोटे-छोटे अवयवों का जो चित्रण उन्होंने किया, वो भी बेमिसाल है!

मैं उन दिनों को सातों पीढ़ियों तक अक्षुण्ण रखना चाहता हूं, जब मैंने कोई एक संस्कृत नाटक क्षीरसागर स्टेडियम में देखा था, 1970 के दशक में! मैंने ही नहीं, हमारे अड़ोसी-पड़ोसी भी उसके साक्षी थे! हर शख्स के प्रवेश का 2-2 रुपया चार्ज किया गया था, उस समय!

इस बात का उल्लेख करने में मुझे तो कोई गुरेज़ नहीं है कि एक ‘राज्याश्रित इवेंट’ होने के बाद कालिदास समारोह की आभा कमतर हुई है! समारोह का बजट 1-2 करोड़ रुपए तक जा पहुंचा है! कालिदास संस्कृत अकादमी को जेबी संस्था बनाने और कालिदास समारोह को चारों तरफ-से कैप्चर करने में भाई लोगों ने जैसे महारत हासिल कर ली है!