प्रसंग – बृजेश राजपूत की नई किताब
राजेश बादल
परदे पर हम लोग ज़िंदगी भर क़िस्से कहते रहे। जो घटता रहा ,वह लिखते भी रहे।लेकिन परदे के पीछे की दास्तान का बयान आसान नहीं होता।हाँ – आप कह सकते हैं कि पच्चीस – तीस बरस सरोकारों वाली पत्रकारिता के बाद यह हुनर नियति आपकी झोली में डाल देती है। इस झोली में ढेर सारे अनुभवों के मोती भरे होते हैं। बृजेश राजपूत की नई किताब वो सत्रह दिन का पारायण एक तरह से ऐसा ही अहसास है।
ज़ाहिर है इस पुस्तक में मध्यप्रदेश में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार के गिरने और फिर एक बार शिवराज सिंह के नेतृत्व में बीजेपी सरकार बनने की अंदरूनी कहानी है। कवर पर ही बृजेश ने लिखा है – जाना कमलनाथ सरकार का और आना शिवराज सरकार का। वैसे तो बेंगलुरु ,जयपुर ,गुड़गाँव ,दिल्ली और भोपाल के सियासी गलियारों से छन छन कर आ रहीं कथाओं ने चैनलों के परदे पर तापमान बढ़ा रखा था। ऐसा लगता था, मानों सत्ता परिवर्तन की पटकथा इन्हीं चैनल वालों से पूछ कर लिखी जा रही हो।मगर प्रकाशित दस्तावेज़ में आप आधी हक़ीक़त ,आधा फ़साना बयान नहीं कर सकते। बृजेश ने समूचे घटनाक्रम का आँखों देखा हाल अपनी कलम के ज़रिए सुना दिया है।
हालाँकि पूरी पुस्तक पढ़ने के बाद लगता है कि कुछ समाचार कथाएँ बृजेश राजपूत ने जान बूझ कर अपनी काँख में दबा ली हैं।शायद उन्होंने पाठकों पर छोड़ दिया है कि वे अपने विवेक से उन कथाओं का अनुमान लगा लें।इस तरह का एक टुकड़ा आपके लिए यहाँ प्रस्तुत है -” एक पूर्व मंत्री ने बताया कि कभी कभी तो रिसॉर्ट के कर्मचारी ही हमसे पूछ लेते थे कि आप यह क्यों कर रहे हो ? आज आप सरकार में मंत्री हो। कल अपनी यह सरकार गिराकर भी मंत्री ही बनोगे। मुख्यमंत्री तो बन नहीं जाओगे ? यह मशक़्क़त फिर मंत्री बनने के लिए क्यों कर रहे हो ? तो हम लोग भी एक बार यह सोचने पर मजबूर हो जाते थे कि ऐसा क्यों कर रहे हैं। मगर बाद में ख़ुद को समझाते थे कि लड़ाई पद की नहीं ,अपने नेता के आत्म सम्मान की है। इसलिए लड़ रहे हैं। अंजाम चाहे कुछ भी हो “।
अब इस पैराग्राफ़ के साथ साथ भी एक कहानी समानांतर चल रही है। बृजेश तो इसे छिपा गए ,पर पढ़ने वाले ने अंदाज़ लगा लिया।समीक्षक के नाते मुझे यह कहने में हिचक नहीं कि कहानी में आत्म सम्मान के बहाने और भी कुछ छिपा था।देर – सबेर इतिहास इस स्याह पन्ने को भी उजागर कर देगा। पर निवेदन है कि बृजेश को इस मामले में तनिक दुस्साहस करना था और प्याज के छिलके की तरह छिपी कुछ अन्य उप कथाएँ भी सामने लानी चाहिए थीं।वे मेरे पुराने सहयोगी रहे हैं। इसलिए इस अवांछित सलाह का हक़ रखता हूँ। फिर भी उन्होंने सत्रह दिनों की गाथा एक सौ चालीस पन्नों में समेट कर हमारे सामने सूबे का एक नायाब दस्तावेज़ पेश किया है। इसके लिए वे यक़ीनन साधुवाद के पात्र हैं। किताब की शैली अदभुत है।पढ़ते समय कहीं कहीं मेरे एक और पुराने साथी ,मित्र और छोटे भाई डॉक्टर मुकेश कुमार की पुस्तक फेक एनकाउंटर की याद आती रही। वह भी एक अनूठी पत्रकारिता का शानदार नमूना थी। एक शायर की इन दो पंक्तियों में मध्यप्रदेश की राजनीतिक शतरंज पर कल और आज का संकेत है –
कुछ कर नहीं सकते तो उतर क्यों नहीं जाते, कुरसी ही तो है कोई आपका जनाज़ा तो नहीं है-
भारतीय हिंदी पत्रकारिता के महानतम संपादक राजेंद्र माथुर कहते थे कि हिंदी पत्रकारिता के साथ एक समस्या है। यह गहराई से किसी विषय का विश्लेषण पत्रकारों को नहीं करने देती।मैं इससे सौ फ़ीसदी सहमत हूँ।आज के टीवी युग में पत्रकार भट्टी के ईंधन बन गए हैं। चौबीस घंटे वे जलते रहते हैं।अपने को फूँक देते हैं। भट्टी का पेट नहीं भरता। लेकिन टीवी पत्रकार इस भट्टी में अपना सब कुछ स्वाहा कर देते हैं। वे ऐसी ऐसी कहानियों के सुबूत होते हैं ,पर उन्हें दस्तावेज़ में नहीं बदल पाते। बृजेश इस मायने में अपवाद हैं। बीते सात बरस में चार किताबें उनकी कलम से निकली हैं। दो भाई पंकज सुबीर के शिवना प्रकाशन के सौजन्य से हैं। शिवना प्रकाशन से पहली किताब थी – चुनाव ,राजनीति और रिपोर्टिंग।
दो मंजुल प्रकाशन से छपी हैं -चुनाव है बदलाव का और ऑफ़ द स्क्रीन। दोनों प्रकाशन राष्ट्रीय प्रकाशन उद्योग के क्षितिज पर अपनी रश्मियाँ बिखेर रहे हैं। एक सूबे में अंतःपुर की अंतर्कथाओं पर पुस्तक छापना भी हौसला भरा फ़ैसला है। वो सत्रह दिन – मध्यप्रदेश में दल बदल की दुकान का शटर गिरते ही पाठकों के सामने आ चुकी थी। इसके बाद भयावह कोरोना – काल ने जैसे सब कुछ सुन्न कर दिया। इसके बावजूद बृजेश की यह पुस्तक चाही और सराही गई है।हाँ – यह ज़रूर है कि शीघ्र प्रकाशन के प्रयास में कुछ प्रूफ़ और डिज़ाइन पर ध्यान नहीं दिया जा सका। इसके बाद भी किताब आपके पुस्तकालय की शोभा बढ़ाने का अधिकार रखती है।उनकी चारों किताबों का संकलन उत्तर भारत के एक बड़े प्रदेश की नब्ज़ पर हाथ रखता है।छोटे
भाइयों जैसे बृजेश राजपूत और पंकज सुबीर को अनेकानेक शुभकामनाएँ।