सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को कहा कि राज्यों को अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के भीतर क्रीमी लेयर की पहचान करनी चाहिए और उन्हें आरक्षण से बाहर करना चाहिए। शीर्ष अदालत ने एससी और एसटी के भीतर आगे उप-वर्गीकरण पर फैसला सुनाते हुए यह टिप्पणी की। मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 6:1 के बहुमत से कहा कि राज्यों द्वारा एससी और एसटी के उप-वर्गीकरण की अनुमति दी जा सकती है ताकि इन समूहों के अंदर अधिक पिछड़ी जातियों को कोटा प्रदान किया जा सके।
मुख्य न्यायाधीश के अलावा, पीठ में जस्टिस बीआर गवई, विक्रम नाथ, बेला त्रिवेदी, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र शर्मा भी शामिल थे।पीठ ने छह अलग-अलग फैसले सुनाये। जबकि छह न्यायाधीशों ने उप-वर्गीकरण को बरकरार रखा, न्यायमूर्ति त्रिवेदी ने असहमति जताई। छह न्यायाधीशों में से चार ने कहा कि क्रीमी लेयर का बहिष्कार लागू किया जाना चाहिए।
कोर्ट ने क्या कहा?
शीर्ष अदालत ने कहा कि हालांकि, आरक्षण के बावजूद निचले तबके के लोगों को अपना पेशा छोड़ने में कठिनाई होती है। जस्टिस भूषण आर गवई ने सामाजिक लोकतंत्र की जरूरत पर दिए गए बीआर आंबेडकर के भाषण का हवाला देते हुए कहा कि पिछड़े समुदायों को प्राथमिकता देना राज्य का कर्तव्य है, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति वर्ग के केवल कुछ लोग ही आरक्षण का लाभ उठा रहे हैं। लेकिन जमीनी हकीकत से इनकार नहीं किया जा सकता कि एससी/एसटी के भीतर ऐसी श्रेणियां हैं जिन्हें सदियों से उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है।
पूरा मामला….
दरअसल, 1975 में पंजाब सरकार ने आरक्षित सीटों को दो श्रेणियों में विभाजित करके अनुसूचित जाति के लिए आरक्षण नीति पेश की थी. एक बाल्मीकि और मजहबी सिखों के लिए और दूसरी बाकी अनुसूचित जाति वर्ग के लिए. 30 साल तक ये नियम लागू रहा. हालांकि ये मामला पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट पहुंचा और ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के 2004 के फैसले का हवाला दिया गया. पंजाब सरकार को झटका लगा और इस नीति को रद्द कर दिया गया. लेकिन कोर्ट के इस फैसले के बाद फिर से एससी एसटी को आरक्षण दिया जा सकता है।