कांग्रेस अपनी जड़ों से कटकर रसातल की ओर क्यों जा रही है..? इसके लिए जिम्मेदार कौन हैं..? क्या यह इसमें फीनिक्स की तरह जीवनशक्ति बची है जो अपनी राख से फिर उठ खड़ा होता है..? कांग्रेस नहीं बची तो देश की राजनीति का परिदृश्य क्या होगा..? अपने स्तर पर विंध्य को संदर्भ मानकर इन सवालों की पड़ताल करें इससे पहले आज इंदिरा जी की जयंती के अवसर पर जानिए इस तस्वीर के बारे में…।
तस्वीर में इंदिरा जी एक ग्रामीण महिला व अबोध बच्ची के बीच बैठी हैं..। यह तस्वीर 4 अप्रैल 1979 की है, स्लथ है बेला(सतना) के समीपस्थ गाँव केमार का। ये जो ग्रामीण महिला हैं ये कोई साधारण नहीं, अपितु विंध्य के सबसे तेजस्वी-ओजस्वी कांग्रेस नेता रहे शत्रुघ्न सिंह तिवारी जी की धर्मपत्नी हैं, और ये बच्ची तिवारी जी की पुत्री राजकुमारी सिंह दुबे।
इंदिरा जी तब विपक्ष में थीं..। वे रीवा आईं थी एक जनसभा में। जनसभा के बाद वे विद्याचरण शुक्ल को लेकर तिवारी जी के गांव पहुंचीं और वहां उनके परिजनों के बीच तीन घंटे रहीं।
दरअसल शत्रुघ्न सिंह तिवारी(56वर्ष) का 18 जुलाई 1978 को आकस्मिक निधन हो गया था। इंदिरा जी उन दिनों आपातकाल को लेकर जनता पार्टी सरकार द्वारा बैठाए गए शाह कमीशन की पेशियों, जेलयात्राओं में फँसी थीं इसलिए उस शोक अवसर पर नहीं आ सकीं। जब उनका रीवा आने का कार्यक्रम बना तब उन्होंने तिवारीजी के परिवार से मिलने व शोक सान्त्वना का समय निकाला।
इंदिरा जी जैसी महान नेता के लिए उनका कार्यकर्ता कितना महत्वपूर्ण रहता था इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि उन्होंने राजनीतिक कार्यक्रम के लिए एक घंटे का समय दिया जबकि तिवारी परिवार के बीच उनके गांव में तीन घंटे बिताए…।
अब नई पीढ़ी को बताना पड़ेगा कि शत्रुघ्न सिंह तिवारी कौन थे..? श्री तिवारी कांग्रेस की राजनीति के अग्निपुंज थे..1962 में उन्होंने रीवा की विधानसभा सीट से देश के सबसे मेधावी व उनदिनों डा.लोहिया के वैचारिक उत्तराधिकारी मानेजाने वाले नेता जगदीश चंद्र जोशी को चुनाव में परास्त किया। इस घटना से वे पं. नेहरू की नजर में आए। श्री तिवारी सिर्फ दो चुनाव 62 व 67 जीते तथा..संविद सरकार के समय को छोड़कर वे पूरे समय डीपी मिश्र, भगवंत राव मंडलोई, श्यामाचरण शुक्ल, प्रकाश चंद्र सेठी के मंत्रिमण्डल में मंत्री रहे।
बहरहाल चित्र में इंदिरा जी की सादगी व चेहरे की भावप्रवणता बताती है कि वे अपनों के बीच में किस तरह का समव्यवहार रखती थीं। वे देश की नेता थीं पर गांव-गाव तक के कार्यकर्ताओं तक उनकी ऐसी ही सहज पहुँच थी।
1980 में मैंने उन्हें अपने मनगँवा विधानसभा क्षेत्र में सभाएं करते देखा। यहां से चंपा देवी लड़ती थीं। चंपाजी जिन्हें सभी सम्मान से मम्मा कहते थे इंदिरा जी की अत्यंत निकट थीं व नैनी जेल में उनके साथ रहीं। यहां तक कि जब इंदिरा जी की फिरोज जी से शादी हुई तब विवाह की सभी रस्मों में चंपा मम्मा साथ रहीं।
चंपा मम्मा बैकुण्ठपुर के हारौल नर्मदा प्रसाद सिंह की अनुजवधू थीं। हारौल साहब का कर्मक्षेत्र प्रयागराज(तब इलाहाबाद) था। कम लोग ही जानते हैं कि हारौल साहब इलाहाबाद नगरनिगम के दस वर्षों तक महापौर रहे। पंडित नेहरू से उनकी घनिष्ठता की पराकाष्ठा इतनी कि उनके राजनीतिक कामों के लिए धन जुटाने हेतु देश के पहले बीमा घोटाले का लांछन भी अपने सिर लिया। आजादी के बाद जब नेहरू ने जब उनकी अनदेखी की तब हारौल ने नेहरू को चुनौती देते हुए आचार्य कृपलानी के साथ मिलकर किसान मजदूर प्रजा पार्टी(केएमपीपी) बना ली। हारौल 1952 में विंध्यप्रदेश की विधानसभा के सदस्य रहे व देश में पहली बार सदन में आफिस आफ प्राफिट का मुद्दा उठाया।
1956 में इंदिरा जी की पहल पर ही चंपा मम्मा को सिरमौर विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस की टिकट दी गई। इस चुनाव में भी इंदिरा जी उनके लिए प्रचार करने आईं थी। इंदिरा जी ने पं.नेहरू और हारौल की दुश्मनी को ताक पर रखते हुए अपने रिश्ते की ऊष्मा को बनाए रखा। चंपाजी 85 में तीसरी बार विधायक बनीं।
चंदौली सम्मेलन (1972) में समाजवादियों का एक धड़ा जगदीश जोशी जी के नेतृत्व में कांग्रेस में शामिल हुआ। इस समारोह की अध्यक्षता जोशी जी ने की। उनके साथ श्रीनिवास तिवारी, अच्युतानंद मिश्र जैसे नेता भी कांग्रेस में गए। बाद में जोशी जी को वे राज्यसभा ले गईं। उन्हें विदेशी मामलों की संसदीय समिति का अध्यक्ष बनाया। जोशी जी इंदिरा जी के वैसे ही निकट थे जैसे कि राजीव गांधी के मणिशंकर अय्यर, सोनिया जी के अहमद पटेल। आपातकाल में समाजवादियों को जेल में ठूँसे जाने की वजह से भ्रमित-द्रवित होकर जोशी जी ने इंदिरा जी का साथ छोड़ दिया वरन् बकौल श्रीनिवास तिवारी 1980 में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री की शपथ जगदीश जोशी ही लेते।
श्रीनिवास तिवारी जैसे दृढ़ और अपनी शर्तों पर राजनीति करने वाले नेता ने जीवनभर इंदिरा जी को ही अपना नेता माना..। 85 में टिकट कटने के बाद भी कांग्रेस नहीं छोड़ी कहा- इंदिरा जी को कांग्रेसनिष्ठा का वचन दिया था मरते दम तक निभाउंगा, निभाया भी..। लेकिन जिसदिन तिवारीजी की मृत्यु हुई उस दिन मध्यप्रदेश के कांग्रेस भवन में एक बैठक चल रही थी। किसी नेता ने दीपक बाबरिया(प्रदेश संगठन प्रभारी) को सूचना दी कि श्रीनिवास जी नहीं रहे तब बाबरिया ने तपाक से पूछा- हू इज श्रीनिवास? बाबरिया राहुल गांधी की खोज थे..।
अर्जुन सिंह जी विंध्य के ऐसे यशस्वी नेता थे जो राष्ट्रपति प्रधानमंत्री छोड़ प्रायः सभी पदों में रहे। गांधी परिवार के बाद वे दूसरे क्रम के बड़े नेता थे। जब उनका निधन हुआ तब उम्मीद थी कि सोनिया जी या राहुल जी चुरहट अवश्य आएंगे पर नहीं आए..। प्रणब मुखर्जी व मोहसिना किदवई अपनी निजी निकटतावश यहां आए। देश में तब कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार थी। बताने की जरूरत नहीं कि ये वही अर्जुन सिंह हैं जिन्होंने सोनिया गांधी की राजनीतिक स्थापना के लिए स्वयं की राजनीति का होम कर दिया था..1997 में सरकार से त्यागपत्र देकर।
अब हाल की बात- दो साल पहले विधानसभा चुनाव में गाँधी साम्राज्य के राजकुँवर राहुल गांधी विंध्य के दौरे पर आए..चित्रकूट से चाकघाट तक रोड़ शो किया। उन्हें चित्रकूट में रामचंद्र वाजपेयी याद नहीं आए.. सतना में उन बैरिस्टर गुलशेर अहमद को भी वे भूल गए जिन्हें उनके नाना नेहरू ने 26 साल की उम्र में राज्यसभा भेजा था। रामपुर बाघेलान से निकले लेकिन कप्तान अवधेश प्रताप सिंह के बारे में नहीं जान पाए जिन्हें पं. नेहरू अपनी बराबरी में बैठाते गप्पे मारते थे। रीवा में शंभूनाथ शुक्ल, शत्रुघ्न सिंह तिवारी, अर्जुन सिंह, श्रीनिवास तिवारी, कृष्णपाल सिंह, मुनिप्रसाद शुक्ल कैसे याद आते..उन्हें..क्योंकि उनके बगलगीर कमलनाथ ने अपने चंपुओं के नामों की सूची थमा रखी थे..वह भी ऐसे चंपुओं की जो अपने वार्ड से पार्षदी तक न जीतें..।
इंदिरा जी की जयंती के बहाने कांग्रेस की नियति और गति का स्मरण हो आया..और पुरानी बातें चलचित्र की तरह उतर आईं..। मेरे ख्याल से और ज्यादा कुछ बताने की जरूरत नहीं रही..कि कल की वह महान कांग्रेस पार्टी आज दुर्गति को प्राप्त होकर रसातल की ओर क्यों प्रस्थित है…।