नितिनमोहन शर्मा। कैसी खनकदार आवाज़ थी न? जैसे कही कोई छन्न से चूड़ी खनकी। या फिर कोई आधी रात को पैजनिया बजी। या कोई घुँघरू खनका। जैसे वीणा का तार झंकृत हुआ हो। कैसा अदभुत स्वर। कैसा अनुपम स्वर। जो कभी उम्रदराज न हुआ। न क़भी प्रौढ़ हुआ। न बुजुर्ग हुआ। हर दम षोडशी जैसा बना रहा। सोलह बरस की बाली उमर जैसा स्वर। और आलाप…उसके तो कहने ही क्या। जब भी आलाप छिड़ता। हिमालय सी ऊंचाई पाता। अलहदा सी स्वर मुरकिया। वाह। कंठ में तो जैसे साक्षात माँ वीणा वादिनी का वास हो। देवी सरस्वती का आशीर्वाद। उस कोमल कंठ में जैसे सेकड़ो कोकिलाओ का वास हो। स्वर छेड़ते ही जैसे कोयल कुहुकी। कोकिल कंठ। स्वर कोकिला। ये ही तो उपनाम थे। सुरों की देवी। सुरों की साम्राज्ञी की उपमा।
हम सबकी प्रिय लता दी। बीत गया एक बरस। उनके बिन। भारतीय संगीत की आत्मा के अवसान का एक बरस। फ़िल्म ही नही, शास्त्रीय संगीत की प्राण थी लता दी। उन बिन अब सब सुना है। पर उम्मीद है, उनके लौटकर आने की। वे भारत की प्राण थी और भारतीय चिंतन पुनर्जन्म में विश्वास रखता हैं। इसलिए लता दी हम आपको श्रद्धांजलि की जगह स्वरांजलि दे रहे हैं। उम्मीद है पूरी कि आप अपने संगीत को यू सुना नही रहने दोगी। फिर से लौटोगी। एक बार फिर से नूर आ जायेगा।
दो पल के जीवन से, एक पूरी उम्र चुराने वाली थी वे। उनकी आवाज ही, उनकी पहचान थी। दिल ए नादां को न आरजुओं का अता-पता था और न जुत्सजुओं का। फिर भी वे सेहरा में यू ही भटकती रही। अपने सुर के संग। अपने स्वर के साथ। स्वर कोकिला बनकर। जैसे कोयल की कुहुक कुंजती हैं, वैसे वे भी जब आलाप लेती थी तो कोकिल कंठ से वो स्वर फुट पढ़ते थे कि लगता था यही कही अगल बगल में कोयल कूहुकी। स्वर भी ऐसा, जैसे कोई अल्हड़ सी नदी।इठलाती, बलखाती। अपने पी से मिलकर लौट रही नदी। पुण्य सलिला सी। जैसे नदी का निर्मल-शीतल नीर…वैसे ही उनका स्वर ओर संगीत। उम्र का कोई भी पड़ाव हो, स्वर कोकिला का स्वर “षोडशी” बना रहा। जैसे 16 बरस की कोई बाली उमर की बाला गा रही हो।
एक जीती जागती किवदंती। जैसे साक्षात वीणा वादिनी देवी सरस्वती का स्वरूप। हंसवाहिनी जैसे शुभ्र् धवल वसन ही उनका श्रंगार था। भाल पर दमकती बड़ी गोल बिंदी और बाल सुलभ मुस्कान। सर्वस्व जीवन संगीत को समर्पित। कोयल जैसा स्वर और वीणा के झंकृत होते तार जैसी तरन्नुम ।
जब ये तरन्नुम टूटी। जब ये आलाप थमा। जब षोडस स्वर रुका। जब कुहूकती कोयल की कुहुक विराम पा गई। तब…ये ज़मीन भी चुप थी। आसमान भी चुप। सब तरफ एक नीरवता सी छा गई। जैसे कोई अनहद नाद अकस्मात थम गया। जैसे सुरों की बारात रुक गई। जैसे वीणा के तार टूट गए। ताल पखावज और मृदङ्ग खामोश हो गये। हारमोनियम का सा रे ग म प ध नि स….शांत हो गया। 75 बरस की स्वर साधना मुकाम पा गई। कोकिल कंठ को आराम मिल गया।
लता-पताकाओं पर बैठी कोयल ने भी पलभर के लिए मोन साध लिया। प्रकृति भी उदास हो गईं। ब्रह्मांड में गूंजता ओंकार का नाद भी नतमस्तक हो गया। सुरों की साम्राज्ञी…स्वर कोकिला…कोकिल कंठा… लता दीदी ख़ामोश हो गई। जिस स्वर ओर सुर के बिना भारतीय संगीत की कल्पना करना भी दुष्कर था, वे हम सबकी लताजी..हम सबको स्तब्ध कर चल दी। वीणा वादिनी के सामीप्य को पा गईं। उनके सानिध्य में जा बैठी। जाते जाते बोल भी गई कि सावन में बादल से कहना..परदेश में है अब तेरी बहना।
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6 फरवरी 2022 का ही तो दिन था, जब “भारत का स्वर” विराम पा गया। साल बीत गया। प्रथम पुण्य स्मरण दिवस आ गया। अहसास ही नही हुआ कि सुरों की देवी हम सबके बीच नही हैं। भारत का मन ये मानता ही नही कि लता दी हमारे बीच नही। इसलिए उनके श्रीचरणों में श्रद्धांजलि की जगह स्वरांजलि। वे सुरों की साधिका थी और स्वर की मालिका। उन्हें स्वरांजली। इस प्रार्थना के साथ कि वे इस भरत भू पर फिर जन्म ले। फिर से उनके राग गूंजे। वो मासूमियत भरे स्वर फिर आलाप पकड़े जिनके बगेर भारत के फ़िल्म संगीत ही नही, शास्त्रीय संगीत की कल्पना भी नही की जा सकती।
प्रकृति बसंतोत्सव मना रही है। मदनोत्सव का माहौल हैं। कोकिल स्वर फिजाओं में गूंज रहे हैं लेकिन वो कोकिला अब नही है जो आम के पेड़ पर बैठकर कुहुक रही कोयल के स्वर के साथ समवेत गान कर सके। धरा की शेष बची कोयलो का कोरस बिछुड़ गया।
मधुर स्वर…अपने इष्ट के चरणों मे जाकर मधुरम हो गया। विलीन हो गया। फिजाओं में रह गया वो आलाप जो कहता था कि नाम गुम जाएगा, चेहरा भी बदल जायेगा लेकिन मेरी आवाज ही मेरी पहचान हैं। एक ऐसी पहचान जो भारतीय संगीत का प्राण थी। आत्मा थी। उस आत्मा की जीने की और तमन्ना थी। लेकिन हम सब ये न भूले की उस आत्मा को जीने की तमन्ना के साथ साथ मरने का इरादा भी तो था…!!
लौटकर आना लता दी
आपके बिन सुना पड़ा है भारत का संगीत।