पेट्रोल और गैस के बढ़ते दामों नें कोरोना की त्रासदी के बाद हम सभी के लिए एक नयी चुनौती खड़ी कर दी है। ऐसा शायद ही कोई होगा जो इस बात से चिंतित नहीं होगा कि यह कीमतें कब कम होंगी। ऐसी परिस्थिति में हमें यह भी सोचना होगा कि “चटखारे लेती विपक्ष में बैठी कांग्रेस” ठीक है या वाकई “मोदी सरकार” के सामने यह एक समस्या है जिसे आने वाले समय में दुरुस्त कर लिया जाएगा। चलिए इसको हम सरल भाषा में में कुछ तथ्यों के प्रकाश में समझते हैं । २०१४ से जब मोदी सरकार आयी तब से मंहगाई हमेशा ही नियंत्रित रही । २०१४ से मार्च २०२० तक यानि की कोरोना की त्रासदी आने तक केवल ८ बार/महीने खुदरा मंहगाई दर ६ प्रतिशत से ऊपर रही। कोरोना को देखते हुए देश को बचाने के लिए मार्च २०२० के बाद देशव्यापी लॉक डाउन लगाना पड़ा।
कुछ राजनैतिक तथ्यों को स्थापित करने के लिए, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि देश का सबसे खराब अनुभव मंहगाई को लेकर कांग्रेस के शासन के समय रहा। कांग्रेस और यूपीए के शासन के तहत 2010 से 2014 तक 28 महीनों में से 22 महीनों में खुदरा मुद्रास्फीति 9% से अधिक थी जो कि सामान्य ६ के मानक से भी अधिक रही है। जिसमें से जनवरी 2012 से अप्रैल 2014 के दौरान यह महंगाई ८ बार “दोहरे अंक” को भी पार कर गयी थी। यह काफी हद तक कांग्रेस-सरकार के “गैर-जिम्मेदार राजकोषीय नीतियों”, “क्रोनी-पूंजीवाद और नीति-पैरालिसिस” की वजह से था ।
वर्तमान WPI में उछाल विभिन्न राज्यों द्वारा लगाये गए “कोरोना-लॉकडाउन” का ही एक अपरिहार्य परिणाम है, जो कि बाज़ार/सरकारों और आपूर्ति की चेन में इस लॉक डाउन की वजह से आये “कोरोना-व्यवधान” के कारण “देशव्यापी तालाबंदी” के दौरान आया था, जो कि अभी एक जून तक जारी था। यह भी उल्लेखनीय है कि मंहगाई का यह “उछाल” एक तात्कालिक परिणाम के रूप में है जो कि धीरे धीरे अपने सामान्य स्तर को प्राप्त करेगा, जो कि “घटते मंहगाई सूचकांकों” में भी अब परिलक्षित हो रहा है।
जो मंहगाई दर १२ अंक के ऊपर चली गयी थी मई में वो अब जुलाई में ११ के आस पास आ गयी है। यह एक उपलब्धि ही है जिसे हम कोरोना की विपदा के परिणाम के रूप में देख सकते हैं। जबकि इसके ठीक उलट कांग्रेस के शासन के समय, जब कोई आपदा या कोरोना नहीं था, तब 2012-13 में दालों की कीमतों में 20% (जब कोई महामारी या आर्थिक झटका नहीं था) इजाफा हुआ जब कि इस तरह के उछाल का कारण केवल सरकार की आर्थिक कुप्रबंधन के कारण ही हो सकता था।
चलिए यदि “प्याज” की बात करें तो मंहगाई की स्थिति की तुलना भी हो जाती है, जो कि आम आदमी के लिए मुख्य चीज है। 2012-13 में प्याज की कीमतों में औसत मुद्रास्फीति 26.1% थी, इसके साथ फरवरी 2013 में 116 प्रतिशत की तीव्र वृद्धि को इसने छू लिया था। इसके विपरीत मोदी सरकार के दौरान प्याज की औसत “मुद्रास्फीति” 2020-21 में प्याज की कीमतों में नकारात्मक (-7.57%) थी जो बहुत कुछ बता जाती है।
वैश्विक तेल की कीमतों के साथ जुड़ाव के कारण “ईंधन-मुद्रास्फीति” यानि कि मंहगाई एक जटिल मुद्दा है तथापि, इससे देश के विकास लिए “उपकर-संग्रह” को लेकर मोदी सरकार अपनी मूल्य निर्धारण नीतियों में हमेशा सरल और पारदर्शी रही है। यह भी उल्लेखनीय है कि मौजूदा दरों में किसी भी प्रकार की कोई वृद्धि तेल की बढ़ती कीमतों का कारण नहीं है। यह भी उल्लेखनीय है कि तेल की कीमतों में वृद्धि से केवल भारत ही गुजर रहा है ऐसा भी नहीं है। कच्चे तेल की “भारतीय-खरीद” की कीमतों में अप्रैल 2020 में $19.9/bbl से लेकर जून 2021 में यह लगभग $78.85/bbl की भारी वृद्धि हुई है। (स्रोत : पेट्रोलियम योजना एवं विश्लेषण प्रकोष्ठ)
अतिआवश्यक चीज़ों की कीमतों के सन्दर्भ में डॉलर, पौण्ड, यूरो, या स्टर्लिंग की कीमतों में ५० से ७५% का इजाफ़ा हुआ है। इन सभी तथ्यों के प्रकाश में घटती मंहगाई दर और अभी हाल ही में जीडीपी में २० अंक के उछाल से आये आत्मविश्वास से यह कहा जा सकता है कि तेल की कीमतों में आया यह आपात-काल जल्दी ही सरकार के नियंत्रण में आ जाएगा। बाज़ार खुल चुके हैं, जिंदगी में खपत, उत्पादन और आपूर्ति शनैः शनैः अपने नार्मल को प्राप्त कर रही है जो जल्दी ही भारत सरकार को वह सक्षमता देगी जिससे वह राहत आम आदमी को तेल की कीमतों के नियंत्रण में भी प्राप्त होगी। विपक्षी दलों और खासतौर पर कांग्रेस द्वारा एक “अस्थायी महामारी-प्रेरित मंहगाई” के बारे में चिंता व्यक्त करना एक पाखंड ही है जो तथ्यों से रहित है या यह कहा जाए कि ये “मगरमच्छ हैं आंसू बहा रहे हैं” तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। कह सकते हैं और विश्वास रखिये “मोदी है तो मुमकिन है”।
(लेखक – हितेश वाजपेई)