*किसी खालिस इंदौरी ने लिखा है
अम्बेसडर और फियाट ही इंदौर के धनाढ्य परिवार का शौक था ! ट्रॅफिक लाइट तो सिर्फ़ तोप खाना – जैल रोड चौराहे पर लगा था पूरे शहर मे ! तीन पहियों वाला टेंपो भी सड़क पर ट्रॅफिक के लिए अजूबा था ! कार स्कूटर की नंबर प्लेट मे सिर्फ़ तीन अँग्रेज़ी के अक्षर और चार संख्याए थी ~ सब कुछ पेट्रोल से चलता था , तब डीजल होता था क्या ?? शायद खेतों मे पंप चलते होंगे |
२२ मई १९५५ को आकाशवाणी इंदौर का शुभारंभ हुआ था | रात सवा नौ बजे का कार्यक्रम ” हवा महल” बहुत रोचक हुआ करता था और कभी कभार खुशी इस बात की होती थी की कोई झलकी आकाशवाणी इंदौर क्रेन्द्र की भेट है – यह अंत में सुनने पर इंदौरी होने का अहसास द्विगुणित हो जाता था ! ६४८ किलोहेर्ट्ज़ क्या होता था ये बचपन मे नही पता था परंतु इंदौर के मालवा हाऊस से नित प्रतिदिन सुन सुन कर ये नंबर याद हो गया था .. कोई मीटर का नंबर होता था उस ज़माने मे ! स्वतंत्र कुमार ओझा, वीरेंद्र मिश्र, वीना नागपाल, प्रोफ़ेसर सरोज कुमार और महेंद्र जोशी की क़ाबलियत, आवाज़ की कशिश और प्रोडक्शन की बारीकियों को जानने वाले बहुत कम लोग बचे है !
वही खेल के मैदान से सुशील दोषी और चंद्रा नायडू क्रिकेट का आँखों देखा हाल रेडियो पर इस तरह सुनाते थे जैसे हॉकी के एक्सपर्ट जसजीत सिंग आपको गोल के भीतर ले जाकर ही दम लेते थे .. रेडियो वाकई में हमारा इंटरनेट हाइ स्पीड डाटा कनेक्षन होता था ! कैसे भूले ऑल इंडिया रेडियो / विविध भारती के सिग्नेचर ट्यून को जो सभी को सुबह ५ बजकर ५७ मिनिट पर जगा देती थी !! हर शाम सात बजकर पाँच मिनट : फ़ौज़ी भाईयों का गीतों का कार्यक्रम – जय माला और शनिवार की विशेष जय माला जिसमे किसी फिल्मी हस्ती का शामिल होना तय था – यह कार्यक्रम भी कहीं ना कहीं दिल को झकझोर देता था | मन भावन और अपना घर हमारे डेली सोप होते थे और बुधवार की बिनाका गीत माला सुने बगेर खाना हजम नही होता था | वही गाने गुनगुनाते हुए गर्मियों मे घरों की छत पर मालवा की ठंडी हवा मीठी नींद मे हमे अपने आगोश मे ले लेती थी ! ना पंखे ना कूलर और ना ही मच्छरदानी …वाह, क्या दिन और रातें थी शब – ए – मालवा की !
रविवार की सुबह, महीने मे एक बार प्रकाश टॉकीज पर सुबह सुबह भीड़ देखी जा सकती थी – सिनेमा क्लब के सदस्य, एक कलात्मक अँग्रेज़ी फिल्म देखने आया करते थे – आज के सानंद के आयोजन की तर्ज पर |
इंदौर वासियों का क्रिकेट का जुनून अँग्रेज़ों के ज़माने से था .. मुश्ताक़ अली, सी के नायडू, चंदू सर्वटे, एम एम जगदाले सभी नाम इतिहास की किताबों मे बाद मे आए, पहले इंदौर के बच्चों ने इनसे दो – दो हाथ किए | रणजी ट्रोफी के मॅच, भारत और पाकिस्तान के बीच मॅच भी खुले स्टेडियम मे हो चुके थे | फिर आया बड़े स्टेडियम का निर्माण कार्य | हनुमंत सिंग, राज सिंग डूंगरपुर, फ़ारूख़ इंजिनियर, बापू नाडकरनी, टाइगर पटौदी, क्लाइव लॉयड जैसे दिग्गजों को पास से देखना नसीब हुआ था | एस्सो के पेट्रोल पंप पर बार – बार पेट्रोल भरने के लिए पिताजी को मनाना और भारत इंग्लेंड मॅच के अल्बम को इकट्ठा करने की कवायत कोई मामूली बात नही थी | हरे रंग की वो पुस्तिका बहुत सालों तक सहेज कर रखी थी – गले मे स्कार्फ लगाए फिल शार्प की तस्वीर हीरो से कम नही थी ! फिर कुश्ती, कब्बड़ी , खो खो इत्यादि के लिए अलग से छोटा स्टेडियम बना – पर ज़्यादा कुश्तीयाँ नही देख पाया ये स्टेडियम , आस पास की कार स्कूटर रिपेर दुकाने ज़्यादा चल पड़ी, आपस मे कुश्ती करते हुए – शिवाजी स्टॅच्यू के नज़दीक |
पातालपानी जाना हो तो सुबह सात दस का महू या मऊ अद्धहा पकड़ना पड़ेगा या साइकल से महू तक पहुँच कर फिर टीम – टाम उठा कर रेलवे लाइन के साथ – साथ चलना पड़ेगा, हां अगर खंडवा जानेवाली अजमेर – खंडवा रेल मिल गयी तो बहुत ही बढ़िया .. टाटिया भील को सलामी देने के लिए पातालपानी स्टेशन से पहले एक मिनिट सभी ट्रेन यहाँ रुकती थी | टाटिया भील अंग्रेज़ो के समय का रॉबिन हुड था मालवा के इस छोर पर | पातालपानी का मज़ा कुछ और ही था बरसात के मौसम मे .. काले वाले गुलाब जामुन और कलाकंद खाना और साथ ले कर दोस्तों के साथ वापस इंदौर आना टेढ़ी खीर थी – बच गये तभी घर गये | अच्छी बारिश के बाद यशवंत सागर डॅम के साइफन गेट के दर्शन सालाना एक बार ज़रूरी थे ! नर्मदा तो बहुत बाद मे इंदौर आयी , ई न पा नि ( आई डी ए के पितामह ) सिर्फ़ यशवंत सागर, सिरपुर और बिलावली से शहर की प्यास बुझा देते थे !!
२६ जनवरी की परेड जो कभी पुलिस मैदान मल्हारआश्रम मे होती थी अब बड़े स्टेडियम मे होना शुरू हुई | बड़े स्टेडियम मे रुस्तमे हिंद दारा सिंग की कुश्ती किंग कॉंग नकाबपोश के साथ लाइव्ह देखने का सौभाग्य बहुत कम इंदौर वासियों को मिला था |
१९७१ मे वेस्ट इंडीस के विरुद्ध विजय के पश्चात क्रिकेट का सबसे बड़ा बल्ला इंदौर मे ही लगाया गया – पहले नौलखा और अब स्टेडियम के बाहर ! दुनिया भर मे ये तस्वीर इंदौर का नाम रोशन कर गयी | होलकर कॉलेज तक साइकल पर चले गये मतलब बहुत वर्ज़िश हो गयी … टू व्हीलेर मे वेस्पा, लॅंब्रेटा, विक्की मोपेड , फेंटाब्युलस, यसदि इत्यादि शहर मे गिनती के थे | ६० और ७० के दशक मे बस साइकल ही थी युवाओं की सवारी | इंदौर की ज़हरीली शराब पीने से मौत की वारदाते एक फिल्म बनकर “शायद” के रूप मे विजेंद्र घाटगे, जयप्रकाश चौकसे के प्रयत्नो से बड़े अस्पताल मे फ़िल्माई गयी |
फास्ट फूड घर मे ही बनता था | रास्ते मे फेरी वाले, खोम्चे वाले बहुत कम थे | होम डिलीवरी – ना भोजन की थी, ना राशन की | कृष्णपूरा पुल के पास रामबाग कॉर्नेर की बेकरी मे अपना आटा – मैदा और घी देकर बिस्कुट बनवाने का आनंद कुछ और ही था | रीगल के वोल्गा के छोले भटुरे, छावनी के मथुरावाले के पेढ़े, सराफ़ा की मावा बाटी, रामपुरवाला बिल्डिंग के सामने एवरफ्रेश के पॅटीस और केक बिल्डिंग के अंदर पंडित की कुल्फी , छोले टिकिया , जेल रोड के प्रशांत की साबूदाना खिचड़ी – पोहे, पना, यशवंत के पास उज्जैन बस स्टॅंड की झूम बराबर झूम शराबी की कव्वाली : कचोरी – समोसे, चाय को अलग ही मज़ा देती थी | गर्मियों मे घमंडी की लस्सी नही पी तो क्या किया ? हमारे फास्ट फुड जॉइंट यही थे | शादियों मे धर्मशालाओं में पत्तल – दोनों मे पूरी बारात जीम के सिमट जाती थी !
पोस्टमन के आने का समय तय था और होली दीवाली पर सिर्फ़ वो ही बक्षिश लेने आता था | मोबाइल, टी वी, इंटरनेट किसी ने सोचा भी नही था | मनीऑर्डर, तार, ट्रंक कॉल – तीन मिनिट की कॉल और काले डायल वाले टेलिफोन ही ~ दुख – सुख की खबरों के प्रणेता थे | एस एम एस और व्हाट्सअप के बिना भी काम पूरे होते थे ! टेलिफोन डायरी रखने का प्रचलन ज़रूर था – कॉल नोट करने के लिए !!
ख़ान नदी की गंदगी मे इसे नदी कहना इसके नाम को दूषित करने के बराबर था | बाद मे होलकर राज्य की छतरियों के उद्धार के साथ ख़ान नदी / नाले को कुछ बेहतर स्वरूप प्रदान हुआ …. मेरा शहर नये कलेवर मे सिमट रहा है, नया हवाई अड्डा, नये मॉल, नये अस्पताल, नई सड़के, नई कॉलोनियाँ, नया स्टेडियम, नये शिक्षा संस्थान, नये आलीशान होटल और बिल्कुल नया बी आर टी एस ….
बहुत कुछ बदल गया है मेरे शहर मे … बस यादें पुरानी रह गयी है … मेरा शहर उम्र के ढलते – नया हो गया है |
परंतु हमारी मानसिकता मे बदलाव नज़र नही आता | इसे भी बदलना होगा … भीया
होल्कर कॉलेज से राऊ तक साइकिल से जाना और राऊ की प्रसिद्ध कचोरी खाना।
स्टेडियम में मोहम्मद रफी को और टैगोर भवन में हेमन्त कुमार को सुनना।
पिपल्या पाला की पिकनिक।
विनोबा भावे की प्रातः वन्दना।
सराफा में ७ पैसे की कचोरी और समोसा।
प्रकाश टाकीज़ की१० पैसे की चाकलेट चाय।
अनन्त चतुर्दशी पर रात भर डोले देखना।
सियागंज रेलवे क्रासिंग पर आधे घंटे तक खड़े रहना।
पहला सात मंजिला भवन (MYH) बनते देखना।
शाम को बिस्को पार्क में घुमना।
स्टारलीट में Ben-Hur, Samson and Deliala ,Come September The Mummy देखना मिल्की वे टाकीज़ में पुरानी फिल्में देखना। राजवाड़े के पास पोहा जलेबी की पार्टी।
अन्नपुर्णा मन्दिर देवी दर्शन और वहाँ से फूटी कोठी देखना।
भारत वेस्ट इंडीज़ का तीन दिवसीय मैच गैरी सोबर्स, हाल ,रोहन कन्हाई को देखने के लिए लैन्टर्न होटल के गेट पर खड़े रहना।
हाईकोर्ट के सामने कार में खोली गई पान की दुकान।
नंदलालपुरा में गर्मियों में टोकरे के हिसाब से आम खरीदना।
इसे पढ़कर कोई एक बार भी पुरानी यादों में खो जाय और अपने अनुभव साझा करे तो अच्छा लगेगा ।