हाल के महीनों में बक्सवाहा संरक्षित वन में रॉक पेंटिंग के आसपास कुछ मुद्दे उठे हैं। इस मामले में सबसे पहले तो यह जानना प्रासंगिक है कि इन शैल चित्रों की पहचान पहली बार छत्रसाल महाराजा विश्वविद्यालय, छतरपुर के एक प्रोफेसर (डॉ छारी) ने 2007 में की थी। उनकी रचनाएँ 2016 में बुंदेलखंड जर्नल में प्रकाशित हुई थीं। हालाँकि, ऐसा लगता है कि तब से इस पर कोई और काम नहीं हुआ है।
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इस संबंध में एक सबसे महत्वपूर्ण तथ्य जो जानना जरूरी है वो ये कि परियोजना का खनन क्षेत्र इन शैल चित्रों से काफी दूर स्थित है। प्रस्तावित खनन स्थान और निकटतम शैल चित्र स्थल के बीच की दूरी लगभग 10 किलोमीटर से ज्यादा है। गौरतलब है कि हाल के दिनों में इन शैल चित्रों पर प्रस्तावित विकासोन्मुखी बंदर हीरा परियोजना को लेकर कुछ चिंताएँ व्यक्त की गई थीं। साथ ही इस बात को समझने की आवश्यकता है कि आधुनिक उत्खनन और खनन तकनीक में अभूतपूर्व और संवहनीय बदलाव आया है। आधुनिक प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल से धरती के अंदर या उपर ऐसे किसी धरोहरों को नुकसान पहुंचाए बिना विकास के काम किये जा सकते हैं।
देश में ऐसे कई उदाहरण हैं जहां ऐसी परियोजनाएं आधुनिक तकनीक के माध्यम से बड़ी आसानी से पूरी हुईं हैं। उदाहरण के लिए, दिल्ली और मुंबई में मेट्रो रेलवे का निर्माण घनी आबादी वाले क्षेत्रों में जमीन के नीचे किया गया है। वहीं यूनेस्को की विश्व धरोहर में शामिल और भी बहुत सारी बिल्डिंग्स है जहां माइनिंग उनके पास हो रही हैं और कोई नुकसान नहीं हुआ है। ये उत्खनन में तकनीकी प्रगति के मजबूत उदाहरण हैं।
दूसरी तरफ ऐसी जानकारी प्राप्त हुईं हैं की बक्सवाहा संरक्षित वन में रॉक पेंटिंग स्मारकों, प्राचीन स्मारकों या पुरातात्विक स्थलों की सूची में नहीं है। इन स्थलों को संरक्षित स्मारकों या राष्ट्रीय महत्व के संरक्षित क्षेत्रों के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया है। यदि इन चित्रों को संरक्षित करने की आवश्यकता है तो प्राचीन स्मारक और पुरातत्व स्थल और अवशेष अधिनियम 1959 (AMASR, 1959) की प्रक्रिया अनुसार इन्हें अधिसूचित किया जाना होगा।
बक्सवाहा रॉक पेंटिंग ना तो भोपाल क्षेत्र के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा घोषित “केंद्रीय रूप से संरक्षित स्मारक” की सूची, और न ही मध्य प्रदेश राज्य द्वारा घोषित “संरक्षित स्मारकों” की सूची का हिस्सा है। साथ ही, अभी तक चित्रों के पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्व की पुष्टि नहीं की जा सकी और यह भी कि क्या वे संरक्षित स्मारकों की सूची में शामिल होने के योग्य होंगे या नहीं।
समझने वाली बात यह है कि राष्ट्रीय महत्व के किसी भी प्राचीन स्मारक या पुरातात्विक स्थल को “संरक्षित क्षेत्र” के रूप में वर्गीकृत किया गया है। ऐसे संरक्षित क्षेत्र से सभी दिशाओं में 100 मीटर का क्षेत्र “निषिद्ध क्षेत्र” होता है, जबकि निषिद्ध क्षेत्र की सीमा से 200 मीटर दूर एक “विनियमित क्षेत्र” होता है। किसी भी गतिविधि (निर्माण, खनन, आदि) को ASI की अनुमति के बाद निषिद्ध (संरक्षित क्षेत्र से 100 मीटर तक) और विनियमित क्षेत्रों (संरक्षित क्षेत्र से 300 मीटर तक) में किया जा सकता है।
इस प्रकार प्रचलित नियमों के अनुसार, 300 मीटर से अधिक की किसी भी गतिविधि के लिए किसी भी विकासात्मक गतिविधि के लिए किसी अनुमति की आवश्यकता नहीं होती है। जानकारों का मानना है कि बंदर परियोजना के किसी भी गतिविधि का शैल चित्रों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
यह तो तय है की पेंटिंग खदान के नजदीक नहीं हैं और इन पर खनन का कोई प्रभाव नहीं होगा। यदि कभी इन्हे किसी खास धरोहर की सूची में शामिल किया भी जाता है तो बन्दर परियोजना इनको संजोगने का दायित्व ले सकती है।