इंदौर, 31 अगस्त 2021 : उम्र 80 साल.. 2004 में हार्ट में तकलीफ के बाद बॉयपास सर्जरी करवा चुके…एक बार फिर 99 प्रतिशत तक ब्लॉकेज… इस हाईरिस्क पेशेन्ट और उसकी एंजियोप्लॉस्टी को सीनियर कार्डियोलॉजिस्ट डॉ. अल्केश जैन ने एक नई पद्धति आईवीएल के माध्यम से सफलतापूर्वक संपन्न किया। अब मरीज स्वस्थ है। मेदान्ता के कार्डियक डिपार्टमेंट के डॉ. यतीन्द्र पोरवाल और डॉ कुणाल ने भी इस प्रोसीजर में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
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मेदांता हॉस्पिटल के कार्डियोलॉजिस्ट डॉ. अल्केश जैन ने बताया कि 80 साल के एक बुजुर्ग मरीज, जिनकी 2004 में बायपास सर्जरी हो चुकी थी, उन्हें गत एक महीने से चलने फिरने, बैठे-बैठे, खाने-पीने में सीने में दर्द हो रहा था। ये सारे एनजाइना के क्लासिक सिम्टम्स हैं। उनकी जब एंजियोग्राफी करवाई गई तो उसमें मैंने पाया कि उनका पुराना बाईपास ग्राफ तो अच्छा चल रहा है लेकिन एक नई नस में मेजर ब्लॉक आ गया है। यह काफी बड़ी नस थी लेकिन उसमें ब्लॉकेज 99 प्रतिशत था यानी नली पूरी तरह चौक हो गई थी। उस पूरी नस की दीवार में काफी कैल्शियम जमा हो गया था। ऐसे मरीज के ऑपरेशन के साथ दो बड़ी दिक्कतें थी। पहली तो उनकी उम्र और दूसरी उनकी पहले बॉयपास सर्जरी हो चुकी था। इस हाईरिस्क मरीज को एक नई तकनीक इंट्रावैस्कुलर लिथोईट्रिप्सी यानी आईवीएल की मदद से एंजियोप्लास्टी करना तय किया। पिछले हफ्ते यह प्रोसीजर सफलतापूर्वक की गई। अब मरीज स्वस्थ है और उसे आने वाली समस्याओं का भी निवारण हो गया है।
डॉ. जैन के अनुसार इंट्रावैस्कुलर लिथोईट्रिप्सी एंजियोप्लास्टी के दौरान इस्तेमाल करने वाली एक ऐसी तकनीक है, जिसमे हम अल्ट्रासॉनिक वेव्स के माध्यम से हार्ट की नसों में जमा कैल्शियम को ब्रेक करते है। जब भी एंजियोग्राफी की जाती है तब हमें हार्ट की नसों में जमा कैल्शियम के कारण बलून या स्टैंट डालने में काफी दिक्कत आती है। इसके पीछे कारण नसों का ठोस या कड़क हो जाना है। एंजियोप्लॉस्टी के दौरान स्टैंट को आसानी से डालने के लिए कैल्शियम को तोड़ना जरूरी होता है। अब इस कैल्शियम को तोड़ने के लिए इंट्रावैस्कुलर लिथोट्रिप्सी की प्रक्रिया अपनाई जाती है। रूटीन एंजियोप्लॉस्टी में हम हार्ट की नसों को बड़ा करने के लिए बलून इस्तेमाल करते है और उसी बलून के माध्यम से स्पेशल अल्ट्रासोनिक वेव्स उन नसों की दीवारों तक पहुंचाई जाती है, जो नसों की दीवारों में कैल्शियम को ब्रेक करती है। कैल्शियम के ब्रेक होते ही हार्ट की नसें लचीली और नर्म हो जाती है। इन लचीली नसों में स्टैंट डालना और एंजियोप्लॉस्टी के परिणाम काफी बेहरतर होते है।
डॉ. जैन ने बताया कि पहले जब यह प्रणाली नहीं थी तो इस तरह कैल्शियम जमा होने वाली नसों की स्थिति में बायपास सर्जरी ही एकमात्र उपचार होता था। इस विधि से कई मरीजों को बॉयपास सर्जरी की जरुरत ही नहीं पड़ती है और उन्हें एंजियोप्लॉस्टी से भी ठीक किया जा सकता है।
डॉ जैन ने यह भी बताया कि कैल्सिफाइड आर्ट्रिस में इंट्रावैस्कुलर लिथोट्रिप्सी प्रणाली प्रत्येक मरीज में कारगर हो यह जरूरी नहीं है। सिर्फ एक कार्डियोलोजिस्ट एंजियोग्राफी में देखकर यह बता सकता है कि किन मरीजों में इंट्रावैस्कुलर लिथोट्रिप्सी काम करेगी ओर किनमें नहीं। इसलिए इस प्रणाली का उपयोग डॉक्टर की सलाह और परामर्श से ही करना चाहिए। फिलहाल यह पध्दति काफी खर्चीली है एक बार आईवीएल करने में एंजियोप्लास्टी और स्टैंट के खर्च के अतिरिक्त तीन लाख रुपए तक का खर्च आ सकता है। इस विधि से कई मरीजों की एंजियोप्लॉस्टी आसान हो सकती है तो कुछ मरीजों को तो शायद बॉयपास करवाने की भी जरूरत नहीं हो, इस कारण वो इसे प्राथमिकता दे रहे हैं।
हार्ट में कैल्शियम जमा होने के बारे में डॉ. जैन का कहना है कि यह उन मरीजों के हार्ट की नसों में ज्यादा जमा होता है, जिन्हे शुगर की बीमारी हो या जिनकी उम्र ज्यादा हो या उन्हें किडनी, हाइपरटेंशन, ब्लड प्रेशर की बीमारी हो। जब हार्ट की नसों के अंदर कैल्शियम का जमा होना बढ़ता जाता है तो यह हमारी नसों को कई बार कड़क बना देता है और कैल्सिफाइड आर्टरीज में एंजियोप्लास्टी करना भी कठिन और खतरनाक होता है। ऐसी स्थिति में आईवीएफ प्रणाली कारगर हो सकती है।