अमेरिका लगभग सारी बेसिक चीजें अन्य देशों से करता है आयात, सिर्फ एक चीज का करता है निर्यात, वो है “डॉलर”

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करेंसी, बैंकिंग और रोथ्स्चाइल्ड एम्पायर: सतीश कलेर की कलम से

रोथ्स्चाइल्ड एम्पायर को जानने से पहले करेंसी के आगमन और उसके पीछे छुपे काले सच को जानना बहुत जरूरी है। पुराने समय मे सारी दुनिया में गुड्स और सर्विसेज का एक्सचेंज बार्टर सिस्टम पर आधारित था। जैसे नाई के पास बाल कटवाने के बदले गेंहूं, लोहार से औज़ार बनवाने के बदले बाजरा या कुम्हार के बर्तनों के बदले मक्का। स्थानीय ट्रेड के रूप से इस सिस्टम में कोई खामी नहीं थी। इसीलिए इंडिया जैसे देश में यह सिस्टम अभी 15-20 साल पहले तक भी काफी प्रचलित था क्योंकि यहां लोग समूहों में रहकर अपनी जरूरतों के गुड्स और सर्विसेज खुद या स्थानीय स्तर पर ही पैदा करते आये है।

लेकिन बार्टर सिस्टम उन इलाकों में लोगों को काफी असुविधाजनक लगने लगा जहां गुड्स और सर्विसेज के एक्सचेंज में भौतिक दूरियां काफी मायने रखती थी। इस समस्या के निराकरण के लिए दुनियां के कई मुल्कों में सोने या चांदी जैसी मूल्यवान धातुओं के सिक्कों का भी चलन हुआ। यूरोपीय देशों में लोगों के बढ़ते माइग्रेशन के कारण कारण ट्रेड का स्वरूप भी तीव्र गति से बढ़ने लगा इस वजह से सोने या चांदी की बहुत सारी मुद्रा को साथ रखना व्यापारियों के लिए एक तो असुविधाजनक था ही दूसरा यह खतरे से खाली भी नहीं था।

इसी परिस्थिति को ध्यान में रखकर जर्मनी में स्थानीय साहूकार ने एक स्कीम चलाई। वह व्यापारियों के पास रहने वाले सरप्लस सोने और चांदी के सिक्कों को अपने पास रख लेता तथा एक पर्ची पर उनको दे देता जिसका मतलब होता था कि “आपका इतना सोना/चांदी मेरे पास है आप जब भी वापिस मांगो मैं अपनी लिखी पर्ची पहचानकर आपके सिक्के आपको वापिस कर दूंगा और बदले में मेरा कुछ कमीशन ले लूंगा।” इस तरीके से व्यापारी को भी अपने सोने/चांदी के सुरक्षित होने निश्चितता हो जाती और साहूकार को भी कमीशन के जरिये कमाई हो जाती।

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देखते देखते व्यापारियों के साथ-साथ आम लोग भी अपना सोना/चांदी साहूकार के पास जमा करने लगे क्योंकि साहूकार के पास उनकी मूल्यवान धातु सुरक्षित थी। जब भी किसी को कोई सामान खरीदना होता था तो वह साहूकार के पास पर्ची लेकर जाता और अपने सिक्के ले आता, फिर सामान खरीद लेता। जिस भी विक्रेता से वह सामान खरीदता था अब वह विक्रेता जाकर साहूकार के पास सिक्के जमा करा आता और पर्ची जारी करवा लाता।

समय गुजरता गया। फिर अचानक साहूकार को महसूस हुआ कि उसके पास सोना/चांदी तो बहुत जमा हो गया, लोगों को उसने बहुत सारी पर्चियां जारी कर दी लेकिन कोई अपना सोना/चांदी वापिस लेने नहीं आता। जब उसने पता करवाया तो कुछ ऐसा हुआ जो बिल्कुल अप्रत्याशित था। उसने देखा कि लोग अब कुछ खरीदने के लिए आपस मे ही पर्चियों को एक्सचेंज करने लग गए है। कुछ खरीदने के लिए लोग अब साहूकार से अपने सिक्के वापिस लेने ही नहीं आते बल्कि वह पर्ची सीधी व्यापारी को दे देते और व्यापारी भी किसी अन्य व्यापारी को दे देता और इस तरह वे पर्चियां आपस मे ही सर्कुलेट होने लगी।

साहूकार को कमीशन का भारी नुकसान होने लगा क्योंकि अब उसके पास रखे सोने/चांदी के सिक्के कोई वापिस लेने ही नहीं आता था। लेकिन इसी नुकसान में साहूकार को अथाह फायदा भी नज़र आ गया। अब उसने जान लिया कि उसके पास रखा सोना/चांदी लोग वापिस लेने आएंगे ही नहीं। पहले उसको पर्ची छापने के लिए सोना/चांदी बैकअप के रूप में चाहिए होता था लेकिन लोगों द्वारा पर्चियों को आपस मे ही अदला बदली शुरू कर देने के बाद तो वह मनमर्जी से पर्चियां छापकर लोगों को उधार दे सकता था और ब्याज भी कमा सकता था।

अब वह कागज का नोट छापता और उस पर लिख देता “मैं धारक को इतना सोना/चांदी अदा करने का वचन देता हूँ”। चूंकि वह जान चुका था कि वास्तविकता में धारक कभी भी सोना/चांदी लेने आएगा ही नहीं इसलिए बैकअप की कोई जरूरत ही नहीं है। यहीं से शुरू हुआ था करेंसी का खेल और रोथ्स्चाइल्ड फैमिली के बैंकिंग साम्राज्य का सफर।