यह एक “ठेठ” मालवी शब्द है जिसका अर्थ होता है “अनगढ़ गोबर” जो प्राकृतिक रूप से गाय द्वारा किया जाता है उसमें बिना किसी परिवर्तन के गणेश स्वरूप को कलात्मक दृष्टी से देखना और उसे यथावत उठाकर धूप में सुखाना एक जटिल एवं बहुत संवेदनशील प्रक्रिया है जिसे कलाकार विष्णु दिक्षित ने अपनी एकलव्यता के साथ पुरा किया। कला किसी का मोहताज नहीं होता है और उस पर तुर्रा ये कि उसको परखने के लिए उसका पारखी विष्णु दीक्षित जैसे कलाधर्मी मौजूद हो। गोबर में गणेश की आकृति को ढूंढ लेना कोई अद्भुत कलाकार ही कर सकता है जिसे अपने जिजीविषा से सार्थक कर दिया।
आर्ट एवं कामर्स के पूर्व अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष यूनिवर्सिटी रहे हैं विष्णु दीक्षित जी ने जिनके अथक अनवरत प्रयास से गोबर से नैसर्गिक रूप से तैयार गणेशप्रतिमा लोगों के आकर्षण का केन्द्र बना दिया है।उनके इन प्रयासों में इन्दौर थियेटर के अध्यक्ष सुशील गोयल जी का बराबरका योगदान रहा है उनके सहयोग से ये कार्य सम्पन्न हो सका है। ये अद्भुत कार्य कला के क्षेत्र में नए आयाम को जन्म देता है। हिन्दू धर्म में हम किसी शुभ कार्य की शुरुआतगजानन की आराधना से करते हैं चूंकि उन्हे हम विघ्नहर्ता मानते है। दुनिया में पहले अंग प्रत्यारोपण के पहले प्रतीक गणेश जी ही रहे हैं। यह सहज कल्पना की जासकती है कि उस समय विज्ञान कितना उन्नत था जब एक हाथी के बच्चे का सर का हिस्सा गणेश जी के धड से सफल तरीके से प्रत्यारोपित कर दी गई।
जब हम गणेश जीको अपने कार्य की शुरुआत के लिए आराधना करते है तो इसका मतलब ये होता है कि आपका कार्य हर तरीके से सफल होगा। यही दृढता और संकल्प शक्ति के द्वारा विष्णु दीक्षित द्वारा गोबर से गणेश की आकृति का निर्माण इसी बात को परिलक्षित करता है कि कला को हम किसी भी परिस्थिति में बगैर बहुत संसाधनों के बगैर भी मूर्त रूप दे सकते है। कजलीगढ़ के एक गौशाला में अपनी सेवा के दौरान विष्णु जी ने अपने जिस कलाधर्मिता का परिचय दिया वह वास्तव में हर कला प्रेमियों के लिए प्रेरणा का कारक रहेगा। उनके द्वारा इस तरह की अद्भुत कलाकृतियों का संयोजन आने वाले समय में एक मील का पत्थर साबित होगा और साथ ही साथ कला क्षेत्र में एक नया आयाम स्थापित करने में योगदान देगा।