आनंद शर्मा, इंदौर। प्रायवेट क्षेत्र का तो पता नहीं जहाँ काम घर से ही करने का चलन यहाँ ज़ोरों से चल पड़ा है पर सरकारी नौकरी में घर रहने का मतलब छुट्टी ही होता है, चाहे आप जितना भी काम कर लो। ऐसा नहीं है की सरकारी नौकरी में छुट्टी नहीं मिलती है, मिलती ज़रूर है पर ज़रूरी नहीं कि वो तब ही मिले जब आपको उसकी ज़रूरत है। छुट्टी ना मिलने से परेशान एक अधिकारी अपने कलेक्टर के पास पहुँचे और उन्हें छुट्टी की दरखास्त देते हुए कहा की सर मैं छुट्टी जा रहा हूँ।
कलेक्टर ने उनसे कहा की अभी तो तुमने आवेदन ही दिया है, मंज़ूरी कहाँ हुई है, तो परेशान तबियत के उस बंदे ने जबाब दिया कि सर छुट्टी का आवेदन देना मेरा काम है, मंज़ूर करना या ना करना आपका काम है और उसे मानना या ना मानना मेरा तो मैं तो चला और नमस्कार कर वे पलटकर चल दिये। मेरे एक मित्र हैं जो उज्जैन में मेला अधिकारी के पद पर पदस्थ थे। सिंहस्थ का दौर समाप्त हो चुका था पर उनकी पदस्थापना नहीं बदली थी।
एक दिन मुझसे मिलने आये तो कहने लगे “सर मेला कार्यालय में अब कुछ खास काम बचा नहीं है, सोचता हूँ दस-पंद्रह दिन की छुट्टी ले लूँ “ मैंने परिहास में कहा कि जब काम ही नहीं है तो छुट्टी हुई लेने की क्या जरूरत ? कोरोना काल में जब दफ़्तरों को बंद कर दिया गया था , तो मैदानी अफ़सरों के पास सिवाय ज़रूरी निगरानी के कोई और काम तो बचा न था। हम सभी अफ़सर मिल कर ज़िलों के दौरे किया करते थे। एक दिन जब उज्जैन शहर के क्वारेंटाइन इलाक़ों का दौरा चल रहा था तो कप्तान बोले सर बहुत दिन हो गए, अजीब रूटीन है, कोरोना ख़त्म हो तो छुट्टी ले कर आराम करेंगे। मैंने सोचा इतने दिनों से दफ़्तर बंद हैं, तो अभी क्या कर रहे हैं।
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छुट्टी देने के मामले में सब के अपने अपने अनुभव है, कुछ ऐसे अफसर होते हैं जिन्हें छुट्टी शब्द सुन कर ही बुखार आ जाता है , हालाँकि कुछ ऐसे भी होते हैं जो बड़े उदार भाव से छुट्टी देते हैं । कंजूसी से छुट्टी देने वालों को क्या याद करें, हाँ उदारता के मामले में मुझे याद आते हैं श्री आर.सी. सिन्हा। मैं सागर से उज्जैन स्थानांतरित हो कर नया नया आया था और परिवार सागर में ही था। गुरूवार के दिन कलेक्टर पूछते सागर नहीं जा रहे हो। मैं कहता “जी शुक्रवार की रात निकल जाऊँगा और सोमवार को आ जाऊँगा “, सिन्हा साहब कहते अरे चाहो तो आज निकल जाओ , और मंगल को आओ तब भी चलेगा।
अवकाश देने में मामले में एन.के. त्रिपाठी साहब का भी जवाब नहीं था। त्रिपाठी साहब प्रदेश के परिवहन आयुक्त थे, मैं देखता समीक्षा बैठक के दौरान भी कई आर.टी.ओ. छुट्टी मांगते तो वे बिना हिचक दे देते, बस पूछते आपके साथ कोई आया है? वो सज्जन कहते जी हाँ आर.टी.आई. आया है तो कहते बस उससे कहो मीटिंग में बैठे और तुम्हारी बारी आये तो जानकारी बता दे, कई बार तो मैं कहता भी कि सर ये जान बूझ कर भाग रहा है इसकी परफार्मेंस ठीक नहीं है तो हँस के कहते उसके मीटिंग में रहने से कौन सी परफार्मेंस सुधर जाएगी। कई बार तो मुझे भी विधान सभा चलने के दौरान ज़रूरी होने पर छुट्टी दे दी। वापस लौट जब मैंने डीलिंग असिस्टेंट से पूछा कि कोई परेशानी तो नहीं आयी? तो उसने कहा नहीं सर बस एक विधान सभा का स्थगन प्रस्ताव आ गया था पर साहब ने सीधे मुझे बुलाया फाइलें खुद देखीं और उत्तर बनवा दिया।