लेखक:-विश्वबंधु कमलगुप्ता
जीवन के निर्वाह हेतु धन का होना अति आवश्यक है। जिसके लिये हर व्यक्ति रात दिन परिश्रम कर धन उपार्जन करता है और करना भी चाहिए। कुछ अपवादो को छोड़कर जिन्हें विरासत में धन मिला हो, सबको आय अर्जन करने के लिये काम धन्धा या नोकरी आदि कुछ न कुछ करना ही पड़ता है। इस भौतिकवादी युग में धन की आवश्यकता ज्यादा ही पड़ने लगी है। खाने पीने के खर्च से ज्यादा दिगर खर्चे लग रहे है। रोटी, कपड़ा मकान,बिजली पानी, गाड़ी और ईधन, मोबाईल और इंटरनेट, धरेलु संसाधन, महंगी शिक्षा-चिकित्सा, शादी मौत मरण जैसे व्यय अति आवश्यक व्यय की श्रैणी में आते है। इनके अतिरिक्त अत्याधिक धन की आवश्यकता जिन क्षेत्रों में में पड़ रही है वे है, बड़ा आलिशान मकान, ब्राडेड कपड़े,जेवर,महंगी गाड़िया, महंगी शादियां,बड़े होटलो और रिसोर्टो में खाना रहना,विदेश यात्रा व व्यसन खोरी आदि आदि। जितना चाहो इनमे खर्च किया जा सकता है इनकी कोई सीमा नही है।
ज्यादा धन सात्विक तरीको से तो कमाना मुश्किल है। अधिक धन कमाने के लालच में लोग बाग चोरी,बेईमानी,भष्टाचार और गलत व गैरकानूनी धन्धो का सहारा लेकर धनवान बनना चाहते है जोअपना और भावी पिढ़ी का जीवन बर्बाद ही करते है।. अपेक्षा, आकांक्षाएं अनंत हो सकती है सबको पूरा भी नही किया जा सकता है।
कासिफ इन्दौरी ने खूब कहा है
*तसनगी मिट न सकी उम्र के मयखाने में।
लो अब ढ़ोल दी जिन्दगी मौत के पैमाने में।
अच्छा व अपनी पसंद का स्वादु भोजन घर में बनाकर खाना ही उत्तम है।
सोने चांदी के जेवर या तो लाकर में चले गये या फैशन से बाहर होगये है। उनकी जगह आर्टिफिशियल ज्वेलरी ने ले ली है।
बड़े व आलीशान मकान सम्पन्नता के परिचायक तो हो सकते है मगर व्यवहारिक जीवन में कष्टदायक ही होते है। इनके खर्चो को पूरा करने के लिये और कमाना पड़ता है। साफ सफाई चोकीदार व नोकरों के खर्च भी भारी पड़ने लगते है । अपने परिवार की जरुरत से ज्यादा बड़ा मकान सुख और शांति नही देता है बल्कि बोझ बन जाता है।
आजकल रोज नित नई बड़ी बड़ी गाड़ियां बाजार में आ रही है। दो पहिया और चार पहियां गाड़िया महंगी से महंगी आती है। “चलती का नाम नाम गाड़ी,रुकती का नाम खटारा” । हर परिवार को उनके परिवारजनों की संख्या के अनुरुप गाड़ी की आवश्यकता है। प्रतिष्ठा का प्रश्न छोड़ दे तो सामान्य दो या चार पहियां गाड़ी से काम चल सकता है। छोटी बड़ी चार पहियां ए. सी. कार वाहन सुख प्रदान कर सकती है।
महंगी शादिया करना कोई जरुरी नहीं है। कम लोगों में कम खर्च से की गई शादियांअनुकरणीय मानी जाती है। दिखावा करने के लियें की गई शादी विवाह संस्कारों को विकृत ही करती है।
तन ढकने के लिये मौसमी कपड़ो की आवश्यकता तो अनिवार्य है। लेकिन महगें कपड़े स्टेटस सिम्बाल व फैशनपरस्तता से अधिक नही है। व्यक्तित्व अच्छा हो तो कपड़ो से कोई फर्क नही पड़ता है।
देश विदेश की यात्रा भी खर्च का एक बड़ा कारण है जो धार्मिक ऐतिहासिक व प्राकृतिक कारणो से की जाती है। इस अनंतकोटि ब्रह्मांड की सदस्य हमारी धरती ही इतनी विशाल है कि हम अपने इस जीवन काल में पूरी धरती घूम र्ही नहीं सकते है । फिर भी मौका मिले और सामर्थ्य हो तो घूमना फिरना अच्छा ही होता है। देश विदेश की यात्रा करने के लिये जनूनी तौर पर रुपया कमाकर यात्राओ पर खर्च करने के बजाय घर बैठे यू. ट्यूब व गूगल पर जिस तरह से दुनिया देखी जा सकती है वैसी तो वहा जाकर भी नही देखी जा सकती है।
जहा तक व्यसनों का सवाल है,व्यसन कोई भी हो वह बर्बादी का ही सबब है उनसे बचने मे ही भलाई है।
खूब कमाये खूब खर्च करे, कुछ बचाये लेकिन बिना अपना रेकार्ड खाता खराब करे। जो भी अतिशैष रहे उस पर स्वजनों का तो अधिकार है ही यदि वह लोक कल्याण के काम आ जाये तो वह श्रैष्ठ है।
गाफिल रहना अच्छा नही जवानी में।
कमाना,खर्च करना और बचाना
जरुरी है जवानी में।
व्यक्ति अपने दायरे में रहकर अपनी जिविका चलात है। मित्व्ययता से जीवन निर्वाह करता है लेकिन वर्तमान समाज का नज़रिया भी कुछ अच्छा अनुभव नही कराता है। आज हर आदमी धन की तराजू पर तोला जा रहा है। जितना धनवान उतना प्रतिष्ठित माना जा रहा है। भले ही उसने उलटे सीधे धन्धो से धन कमाया हो। वे यह मानते है समरथ को कोई दोष नही लगता है। मगर ऎसा नही है जिस भी तरीके से धन कमाय जाता वह समाज से छुपता नहीं है। मुंह पर कोई कुछ बोलता नहीं लेकिन जानते सब है। इसी लिये बेईमान लोग सड़क पर डार्क शीशों को चड़ा कर कार में निकलते है और उनकी दशा जेवरों से लदी उस खूबसूरत वैश्या जैसी होती है जो पर्दे मे ही बाहर निकलती है ।
समाज की भी जवाबदारी है वो अपना नजरिया बदले। इमानदारो का सम्मान व चोर बेईमानो का तिरस्कार करे। कोई भी इमानदार सद्चरित्र व्यक्ति कहीं भी दिखाई दे तो उसक सम्मान व आदर सार्वजानिक रुप से करे। वह अपने सत् पर कायम है वह सब्र से जी रहा है वरना बेईमान होना कोनसा मुश्किल काम है। इसीलिये हा है।
“हाय वो मेरी मुफलिसी जिसको देखकर दुनिया लरस जाये।
कमबख्त, मेरे सब्र के टुकड़ो पर पलती है”।
सभी की नज़र और नजरिया बदलना जरुरी है। तब कहीं जकर एक उत्कर्ष समाज का निर्माण हो सकेगा।