इंदर पर अंकुश और साध्वी प्रज्ञा पर मेहरबानी क्यों

Suruchi
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दिनेश निगम ‘त्यागी’

हिजाब के मुद्दे पर प्रदेश के स्कूल शिक्षा मंत्री इंदर परमार शांत हुए तो भोपाल की भाजपा सांसद प्रज्ञा ठाकुर मोर्चे पर आ डटीं। यह बात अलग है कि जिस तरह इंदर पर नकेल कसी गई थी, वैसा कुछ साध्वी प्रज्ञा के साथ नहीं हुआ। सवाल है कि इंदर पर अंकुश तो प्रज्ञा पर मेहरबानी क्यों? दरअसल, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान नहीं चाहते कि मप्र में धर्म एवं जाति के नाम पर तनाव जैसे हालात बने। इसीलिए जैसे ही इंदर ने स्कूलों में हिजाब पर प्रतिबंध की बात कही, सरकार तत्काल हरकत में आ गई।  पहले गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने कहा कि ऐसा कोई प्रस्ताव सरकार के सामने विचाराधीन नहीं है फिर केबिनेट की बैठक में मुख्यमंत्री ने मंत्रियों की क्लास ली। इसके बाद इंदर परमार को बैकफुट पर आना पड़ा।

हिंदू-मुस्लिम और मंदिर-मस्जिद का मसला हो और साध्वी प्रज्ञा ठाकुर शांत रहें, ये कैसे संभव है? लिहाजा, उन्होंने हिजाब पर प्रतिबंध की ही बात नहीं की, यह भी कह दिया कि मुस्लिम महिलाएं अपने घर और मदरसों में ही हिजाब पहने। स्कूल-कालेजों में हिजाब पहने दिखीं तो बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।  उन्होंने मुस्लिम समाज पर शादी-विवाह को लेकर भी सवाल उठा दिए। यह भी कह दिया कि मुस्लिम महिलाओं की इज्जत उनके अपने घरों में ही सुरक्षित नहीं। साध्वी की तुलना में तो इंदर ने कुछ भी नहीं कहा था, फिर भी उनकी क्लास ले ली गई लेकिन साध्वी को किसी ने कुछ नहीं कहा, आखिर क्यों?

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दिग्विजय-अरुण की कमलनाथ से दूरी के मायने

अब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह, अजय सिंह और अरुण यादव की नाराजगी के बाद प्रमाणित हो गया है कि कमलनाथ सभी को साथ लेकर पार्टी नही चला सकते। उनकी कार्यशैली से नाराज होकर ज्योतिरादित्य सिंधिया के अलावा लगभग दो दर्जन विधायक कांग्रेस छोड़कर जा चुके हैं। सत्ता गंवाने के बाद कमलनाथ की कार्यशैली में बदलाव की उम्मीद की गई थी, लेकिन नतीजा ‘ढाक के वही तीन पात’ जैसा रहा। लिहाजा, अब दिग्विजय, अजय एवं अरुण का उनके साथ छत्तीस का आंकड़ा है।

अजय सिंह नाराज हैं क्योंकि उन्हें विंध्य अंचल में कांग्रेस की हार के लिए जवाबदार ठहरा दिया गया। खंडवा से अरुण का टिकट काट कर तस्तरी में रखकर सीट भाजपा को सौंप दी गई। अरुण के अन्य कई मसलों पर पहले ही कमलनाथ से मतभेद थे। अब मुख्यमंत्री निवास के सामने दिग्विजय के धरने के दौरान के एक वायरल वीडियो से साफ हो गया कि कमलनाथ और दिग्विजय के बीच संबंध खराब हो चुके हैं। दिग्विजय भी अब असंतुष्ट हैं। इन नेताओं ने कांग्रेस की प्रमुख बैठकों में जाना बंद कर दिया है। सवाल यह है कि कमलनाथ जैसा वरिष्ठ और मैनेजमेंट में एक्सपर्ट नेता कांग्रेस को एकजुट क्यों नहीं कर पा रहा है? क्या उन्हें नहीं मालूम कि अगले साल विधानसभा के चुनाव में पार्टी को इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है?

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‘आज के बाद कल भी आएगा’ का कितना असर

कमलनाथ जैसे वरिष्ठ नेता द्वारा प्रदेश के अफसरों एवं पुलिस को बार-बार एक ही वाक्य बोलकर चेतावनी देने की खासी चर्चा है। वे कहते हैं याद रखिए ‘आज के बाद कल भी आएगा’, ‘आज भाजपा की सरकार है, कल हमारी बनेगी’। तब एक – एक का हिसाब किया जाएगा? सवाल यह है कि क्या इस तरह की चेतावनी या धमकी का कोई असर अफसरों या पुलिस पर पड़ता है, शायद नहीं। संभवत: यह सच कमलनाथ भी जानते हैं। वे इतने नए या नासमझ नहीं है। तब दूसरा सवाल उठता है कि वे बार-बार क्यों इस तरह की चेतावनी देकर हंसी का पात्र बनते हैं? सागर में उन्होंने पुलिस को ऐसा ही बोलकर चेतावनी दी।

इस पर प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने उन पर पलटवार किया और पूछा कि जब 15 माह के लिए मुख्यमंत्री बने तब क्या कर लिया था। हो सकता है कमलनाथ यह चेतावनी कांग्रेस नेताओं व कार्यकर्ताओं में जोश भरने के उद्देश्य से देते हों। संभवत: कांग्रेस के कार्यकर्ता भी जानते हैं कि यह महज कागजी चेतावनी है। वास्तविक धरातल पर बाद में कुछ नहीं होता। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी ऐसी धमकियां अफसरों को देते नजर आ चुके हैं। सवाल यह है कि मुख्यमंत्री या कमलनाथ जैसे वरिष्ठ नेता को मंच से ऐसा बोलना शोभा देता है?

मेंडोरा, मेंडोरी बन रहे वीआईपी के आश्रयगाह

मध्यप्रदेश के नेताओं, मंत्रियों एवं आला अफसरों ने भोपाल के नजदीक अपना आश्रयगाह तलाश लिया है। यह है प्राकृतिक सौंदर्य की छटा बिखेरता मेंडोरा एवं मेंडोरी। यह स्थान कोलार एवं केरवा डेमों से लगा हुआ है। यहां लोग पर्यटन करने के उद्देश्य से जाते हैं। यहां वन विभाग का रेस्ट हाउस भी है। लेकिन मंत्री, नेता और आला अफसर यहां सिर्फ पर्यटन के उद्देश्य से नहीं जाते, इसके उलट वे यहां बड़े स्तर पर जमीने खरीद रहे हैं। शायह ही ऐसा कोई बड़ा नेता, मंत्री या अफसर हो जिसने यहां जमीन न खरीदी हो। हालात यह है कि यहां जमीन पर कब्जा करने की होड़ जैसी लगी हुई है।

कोई अपनी अनाप-शनाप कमाई यहां खपा रहा है तो कोई जुगाड़ से औने-पौने दामों पर जमीन ले रहा हैं। कई मंत्रियों और अफसरों ने यहां दूसरे के नामों से जमीन खरीदी है। सही आंकड़ा तो नहीं मालूम लेकिन लगभग तीन दर्जन नेता और अफसर यहां अपनी जमीन बना चुके हैं। इसे रसूख का ही असर माना जाएगा कि कुछ ने वन विभाग की जमीन पर ही कब्जा जमा रखा है और कुछ वीआईपी ऐसे हैं जिन्होंने जमीन खरीदी कम है लेकिन कब्जा ज्यादा क्षेत्र पर कर रखा है। सरकारी अफसर सब जानते हुए भी इन पर हाथ डालने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं।

ऐसे छापों पर सवाल उठते हैं तो गलत क्या?

आयकर के कुछ छापे खासे चर्चित होते हैं, कुछ का पता नहीं चलता जबकि कुछ कागजों में दम तोड़ देते हैं। जैसे, पश्चिम बंगाल, मप्र तथा उप्र आदि राज्यों में चुनाव से पहले पड़े छापे, इनकी गूंज कई दिनों तक सुनाई पड़ी। हर रोज नया अपडेट सामने आया। जैसे, आज इतने नगद मिले, अगले दिन लॉकर खुले तो ये मिला, फिर अगले दिन नया अपडेट। इनके आधार पर टारगेट बना कर नेताओं एवं राजनीतिक दलों का घेराव हुआ और चुनाव होते ही ऐसे छापे कागजों में ही दफन।

दूसरी तरह के छापों में भी ऐसा ही होता है। इसी तरह बरामदगी होती है, चर्चा होती है। अंतर यह कि इनमें टारगेट बनाकर किसी को घेरा नहीं जाता बल्कि जिसने अवैध संपत्ति कमाई है, उसके खिलाफ कार्रवाई होती दिखती है। तीसरी तरह के छापे भोपाल के सेज ग्रुप तथा दिलीप बिल्डिकॉन जैसी कंपनियों पर पड़ते हैं। संभव है ये छापे भी सही सूचना के आधार पर पड़ते हों लेकिन रसूख के कारण इनकी चर्चा नहीं होती। पिछले दिनों इनके ठिकानों पर छापे पड़े। ये कितने बड़े ग्रुप हैं किसी से छिपा नहीं है लेकिन लगता है, इन छापों ने कागजों में ही दम तोड़ दिया। ऐसे में केंद्र सरकार और आयकर विभाग की मंशा पर सवाल उठते हैं तो गलत क्या है?