अजय बोकिल
कोई फिल्मी या मंचीय किरदार जब जिंदगी की हकीकत से एकाकार हो जाए तो समझिए कि उस कलाकार ने समय पर अपने हस्ताक्षर कर दिए हैं। वरना बतौर कामेडियन बाॅलीवुड की चार सौ फिल्मों में दसियों किरदार निभाने के बाद भी हास्य कलाकर जगदीप को वो पहचान न मिली, जो अकेले ‘शोले’ के ‘सूरमा भोपाली’ ने उन्हें बख्शीे। शायद इसलिए भी कि इस ‘सूरमा भोपाली’ ने जब जगदीप की शक्ल धारण कर ली तो उस शहर भोपाल ने उसमें अपना चेहरा देखा, जिसमें असली ‘सूरमा भोपाली’ भी हुआ करते थे। खास बात यह है कि जगदीप न तो असली बर्रूकाट भोपाली थे, न ही उनकी जबान भोपाली थी।
वो उस दतिया शहर के थे, जहां ग्वालियर-चंबल की बुंदेली बोली जाती है। वहां का कल्चर और पानी भी भोपाल के तालाब के पानी भोपाली तहजीब से जुदा है। लेकिन ‘सूरमा भोपाली’ का अद्भुत कैरेक्टर लेखक सलीम-जावेद ने रचा और जगदीप ने उसे पूरी शिद्दत से निभाया। लगा कि यही हैं असली पटिएबाज भोपाली। ऐसा बेयरिंग लेना आसान नहीं होता। क्योंकि दिलीप कुमार ‘गंगा जमना’ में भोजपुरी हीरो का किरदार कुशलता से निभाते हुए भी रहते अंतत: दिलीप कुमार ही हैं। लेकिन जगदीप, सूरमा भोपाली के चरित्र में घुस जाने के बाद जगदीप नहीं रह जाते। दर्शकों को केवल बतोलेबाज ‘सूरमा’ ही याद रहता है। यही किसी कलाकार की कामयाबी है। इस अर्थ में यादगार एक्शन फिल्म शोले का हर पात्र अपने आप में एक किंवदंती है।
‘सूरमा भोपाली’ का चरित्र भी जावेद अख्तर ने भोपाल की एक चर्चित शख्सियत नाहर सिंह बघेल से प्रेरित होकर रचा था। नाहर सिंह भोपाल नगर निगम में नाकेदार हुआ करते थे। उनके एक भाई हाॅकी खिलाड़ी भी थे। भोपाल के ही सेफिया काॅलेज में पढ़े नाहरसिंह अपनी खास ‘बतोलेबाजी’ (लंबी हांकने) के लिए मशहूर थे। कहते हैं कि उन्हें ‘सूरमा’ का खिताब भोपाल के पूर्व नवाब ने दिया था। लेकिन जब यही असली और अपने लाजवाब हुनर से बेखबर सूरमा जब सिनेमा के पर्दे पर नमूदार हुए तो नाहरसिंह खासे खफा हुए। उन्हें और उनके परिवार को लगा कि ‘सूरमा भोपाली’ के रूप में उनका ही मजाक उड़ाया गया है। बाद में उन्होंने इसी बात को लेकर सलीम-जावेद पर कोर्ट में केस भी कर दिया था। हालांकि असली सूरमा भोपाली भी कब के दुनिया से रूखसत हो चुके हैं और उस शख्सियत को अमर कर देने वाले जगदीप ने भी अब दुनिया को अलविदा कह दिया है।
जगदीप (असली नाम सैयद इश्तियाक जाफरी तथा 3 पत्नियों और 6 बच्चों के पिता ) की निजी और फिल्मी जिंदगी की तह में जाने के बजाए इस बात पर गौर करें कि ‘शोले’ में सूरमा भोपाली के उस छोटे से रोल के फ्रेम में भी जगदीप ने मध्याप्रदेश की राजधानी भोपाल के पुराने हिस्से की अनोखी संस्कृति को उस मुकाम पर पहुंचा दिया, जिससे खुद भोपाली भी जानकर अनजान थे। यहां सवाल उठता है कि ‘भोपाली संस्कृति’ और ‘भोपाली जबान’ आखिर है क्या? यह मप्र के ही दूसरे अंचलों से किस मायने में अलग है? इसका मिजाज मुख्तलिफ क्यों है?
भोपाली संस्कृति ( हालांकि अब मेट्रो कल्चर आने के बाद अब यह धीरे-धीरे सिमटती जा रही है) दरअसल एक आत्मसंतोषी और आत्ममुग्ध समाज की जीवन शैली है, जिसकी दुनिया भोपाल के चौक और जामा मस्जिद से शुरू होकर भोपाल के बड़े तालाब पर खत्म हो जाती है। पान का शौकीन बर्रूकाट भोपाली दुनिया-जहान की बातें करने के बाद भी भोपाल को ही जन्नत मानकर यहीं जीना और मरना चाहता है। यहां हिंदू और मुस्लिम कल्चर भी काफी कुछ गड्डमड्ड-सा है। उसमें अपनी अलग पहचान कायम रखते हुए भी शेयरिंग का सुंदर आग्रह है।
इससे भी अहम है भोपाली जबान। यह वो लहजा है, जो भोपाल शहर और आसपास के गांवों में बोला जाता है। गहराई से देखें तो भोपाली जबान मालवी, बुंदेली, उर्दू और हिंदी का अजीब सा काॅकटेल है। मसलन इसमें मालवी की तरह ‘ऐ’ और ‘औ’ की मात्रा नहीं होती। यानी ‘मैं’ को ‘में’, ‘रहा’ को ‘रिया’, ‘पास’ को ‘कने’ कहने का चलन है। लेकिन उसके विपरीत ‘श’ और ‘ष’ का उच्चारण साफ किया जाता है। इसमे बुंदेली की तरह ‘क्ष’ को ‘क्छ’ तथा कई बार शब्दों को अनावश्यक रूप से अनुनासिक ढंग से उच्चारित करने का रिवाज भी है, मसलन हाथ को हांथ या भूख को भूंख।
लेकिन मुस्लिम रियासत होने की वजह से भोपाली जबान में नुक्ते वाले अक्षर जैसे .क, .ख, .ग और .ज के उच्चारण साफ किए जाते हैं, जो मालवी और बुंदेली में नहीं होते। लेकिन भोपाली उर्दू भी वैसी नफीस नहीं होती, जैसी कि लखनऊ या अलीगढ़ की होती है। इसका कारण कुछ शब्दों को अनावश्यक खींच कर अथवा गले से बोला जाता है। उदाहरण के लिए ‘आ गया’ अथवा ‘चला गया’ बोलने का भोपाली अंदाज सिर्फ सुनकर ही समझा जा सकता है। दूसरी खास बात है प्राय: हर बातचीत की शुरूआत ‘को, खां’ से करना। यह ऐसा तकियाकलाम है, जो प्रत्यय भी है और उपसर्ग भी बीच-बीच में ‘मियां’ का प्रयोग भी होता है। यह खांटी भोपाली होने की पहचान भी है। तीसरी बात है आम बोलचाल में भी गालियों का प्रचुर इस्तेमाल।वो भी खास भोपाली शैली की बहुवचनीय और एक अर्थ में अ-प्राकृतिक भी। मूल गालियों का अजब संक्षिप्तीकरण भी भोपाली जबानी की खुसूसियत है ( जो यहां नहीं लिखी जा सकतीं)। अलबत्ता ये गालीयुक्त संवाद दोस्ताना गुफ्तगू में भी इतनी सहजता से चलता है कि गाली खाने वाला भी इसे बुरा नहीं मानता। बस जवाब में कोई नई या धांसू गाली आ सकती है। इसका कारण शायद भोपाल में लंबे समय तक रही पर्दा प्रथा भी है। इसीलिए पुराने भोपाल के कल्चर का अहम हिस्सा रही पटिएबाजी भी पुरूषों के कारण ही आबाद रहती थी। जाहिर है कि महिलाअों की मौजूदगी में ऐसी बेबाक गालियां देना और उन्हें यूं ‘एंज्वाय’ करना मुमकिन न था। भोपाली जबान के अपने खास मुहावरे और प्रतीक रहे हैं। मसलन ‘उस्तरे चल गए’ यानी हिंसक झगड़ा हो गया। या ‘आप खूंटे पे बेठना’ यानी खुद मुसीबत मोल लेना वगैरह। भोपाली मिजाज मूलत: मस्त मौला होने का है। भोपाली जबान भी हिंदू-मुस्लिम-जैन सब एक जैसी ही बोलते हैं। अब इसमें एक साम्प्रदायिक दरार पड़ गई है, लेकिन अलमस्ती का अभी बाकी है।
भोपाली लहजे की एक खूबी अतिशयोक्ति से लबरेज होना है। इसमें भोपाल का ताल बाॅम्बे के समंदर से बड़ा हो सकता है। अापसी गपबाजी में भोपाली एक से बढ़कर एक डींगे हांकने में कोताही नहीं करते। फिर वह सुलेमानी चाय का ठीया हो , तालाब किनारे सुकून से मछली मारना हो या फिर चौक की पटिएबाजी हो। जब संचार के साधन सीमित थे, भोपाली बतोलेबाजी ही सूचनाअों के आदान-प्रदान और मनोरंजन का बड़ा साधन हुआ करती थी।
जगदीप ने सूरमा भोपाली के रोल में इसी खांटी भोपालीपन को पूरी ताकत से निभाया था। पान रचा मुंह, डींगे हांकती लंबी जबान, गोल-मटोल आंखें और चेहरे पर अविश्वसनीय आत्मविश्वास का भाव, जिसे देखकर सामने वाला भी चौंक जाए। इसके बाद भी उसे अपने कहे पर कोई मलाल नहीं। यानी ऐसा शख्स जो भीतर से डरा हुआ है, लेकिन दिखावा जंग बहादुर का करने में गुरेज नहीं करता।
भोपाली जबान और संस्कृति पर बहुत ज्यादा लिखा नहीं गया है ( अगर हो तो अप-डेट करें)। जाने-माने भोपाली श्याम मुंशी ने जरूर चंद भोपाली शख्सियतों पर एक अच्छी किताब लिखी है। लेकिन भोपाली जबान में ज्यादा कुछ शायद ही रचा गया है। खुद भोपाली भी साहित्य रचना उर्दू या हिंदी में करते रहे हैं, ठेठ भोपाली में लिखने वाले बिरले ही होंगे और अब तो शहर के विस्तार के साथ ‘भोपाली जबान’ का जलवा भी कम होता जा रहा है।
मैंने ‘नईदुनिया’ में रहते हुए गैर भोपाली ( मातृभाषा की दृष्टि से अहिंदी भी ) होने के बावजूद भोपाली लहजे में एक साप्ताहिक स्तम्भ ‘ ‘झोले बतोले’ ( ऊंची नीची हांकना) लिखना शुरू किया था। यह मैं ‘बतोलेबाज’ के नाम से लिखता था, जो काफी लोकप्रिय हुआ था। कई लोग मुझे बर्रूकाट भोपाली समझने लगे थे (‘बर्रूकाट’ से तात्पर्य उस बर्रू (बोरू) घास से है, जो किसी जमाने में भोपाल में बड़े पैमाने पर पाई जाती थी और जिसकी कटाई कर पुराने भोपाल की बसाहट का विस्तार हुआ था। इसी घास से तब बर्रू बना करते थे, जिसे स्याही में डुबोकर लिखने का काम किया जाता था)। उसी ‘बतोलेबाज’ पर जाने-माने रंगकर्मी स्व. अलखनंदन ने संजीदा टिप्पणी की थी कि जब भी ‘भोपाली जबान’ का इतिहास लिखा जाएगा, आपके ‘बतोलेबाज’ को याद किया जाएगा। पता नहीं भोपाली जबान का इतिहास कोई लिखेगा या नहीं, लेकिन ये शहर ‘सूरमा भोपाली’ उर्फ जगदीप को खिराजे-अकीदत जरूर पेश करता रहेगा कि ‘सूरमा’ की सूरत में अपने आप में सिमटी भोपाली तहजीब और भोपाली जबान को उन्होंने पूरी दुनिया में शोहरत दिला दी।