प्रदेश में कुत्तों की नसबंदी से किसकी ‘चांदी’…?

Rishabh
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अजय बोकिल:

यूं तो यह बहस कुत्ता बनाम आदमी भी हो सकती है, क्योंकि जब मनुष्यों का नसबंदी कार्यक्रम चल रहा है तो भी मध्यप्रदेश की आबादी बढ़ ही रही है। ऐसे में कुत्तों पर ही उंगली क्यों उठाई जाए? बात सही है। लेकिन यहां मामला यह है कि राज्य में आवारा कुत्तो की नसबंदी पर बीते पांच साल में 17 करोड़ रू. खर्च हो गए लेकिन कुत्तों की तादाद घटने के बजाए कई गुना बढ़ गई। प्रदेश में कुत्ता काटने और उससे होने वाली जानलेवा रैबीज बीमारी से मरने वालों की संख्या भी बढ़ रही है।

जब से पशु क्रूरतारोधी कानून आया है, तबसे सबसे ज्यादा सुकून आवारा श्वान समुदाय में ही है। दरअसल आवारा कुत्तों पर चर्चा फिर से फोकस इसलिए बना क्योंकि विधानसभा के बजट सत्र में पूछे गए एक सवाल के जवाब में राज्य सरकार ने बताया कि मप्र में पिछले पांच सालों में पांच मुख्य शहरों में ढाई लाख कुत्तों की नसंबदी की गई, जिस पर 17 करोड़ रू. से ज्यादा खर्च हुए। यानी प्रति कुत्ता औसतन 680 रू. खर्च। इस महत कार्य को मप्र सहित देश की तीन एनजीअो ने अंजाम दिया। यह बात अलग है कि इस व्यापक मुहिम के बाद भी कुत्तों में नसबंदी का डर बढ़ने की बजाए आम लोगों को आवारा कुत्तों का डर बढ़ता जा रहा है।

हो सकता है कि कुछ लोग कहें कि आवारा कुत्तों की नसंबदी की पाई-पाई का हिसाब मांगना ठीक नहीं। कुछ मामले होते ही ऐसे हैं कि जिन्हें तर्क की कसौटी पर कसना जबरन पंगा मोल लेने जैसा है। हमारे देश में आवारा कुत्तो की समस्या कुछ ऐसी ही है। एक अनुमान के अनुसार आज पूरे देश में आवारा कुत्तों की तादाद करीब साढ़े 3 करोड़ है और इसमे इजाफा होता जा रहा है। इसका मुख्या कारण बढ़ती मानव बस्तियां हैं।

कुत्तों का रवैया वही है कि ‘तुम जहां जहां, हम वहां वहां।‘ आवारा कुत्तों को खाने के लिए आसानी से वहीं मिलता है, जहां इंसानी बसाहटें हैं। भले ही अन्न की झूठन हो या दरवाजे पर बुलाकर दिया गया खाना हो। यह भी न मिले तो इधर-उधर मुंह मारकर आवारा कुत्ते अपना पेट भरते हैं। कई जगह पशु दया वाले भी कुत्तों को खाना देते हैं। याद रहे कि पिछले साल संपूर्ण लाॅक डाउन में गरीबों के साथ साथ आवारा कुत्तो की भी शामत आ गई थी।

कहीं कुछ खाने को नहीं मिल रहा था। बावजूद इसके उनकी प्रजनन क्षमता में खास घटत हुई हो, इसकी जानकारी नहीं है और इन शहरो में चले व्यापक नसंबदी कार्यक्रम से कुत्तों की आबादी वृद्धि दर का ग्राफ नीचे आया हो, इसका कोई स्पष्ट रिकाॅर्ड नहीं है। इतना तय है कि कुत्तों के कारण मनुष्यों का जो भी अच्छा-बुरा होता हो, कुत्तों के कुनबों में पर कोई विपरीत असर होता हुआ नहीं दिखता।

मप्र विधानसभा में सरकार ने यह जवाब भाजपा विधायक यशपालसिंह सिसोदिया के सवाल पर नगरीय विकास मंत्री भूपेन्द्रसिंह ने दिया। उन्होंने बताया कि कुत्तों की नसंबदी पर सबसे ज्यादा खर्च इंदौर और भोपाल में हुआ, जहां क्रमश: 1.6 लाख व 1.4 लाख कुत्तों की नसबंदियां हुईं, जिन पर इंदौर में 7.46 करोड़ तथा भोपाल में 6.76 करोड़ रू. खर्च हो गए। ये नसबंदियां किस विधि से की गईं, इसकी विस्तार से जानकारी नहीं है। लेकिन जवाब से इतना तो समझा जा ही सकता है कि प्रदेश में सर्वाधिक कुत्ते इन्हीं दो शहरों में हैं। तीसरे नंबर पर जबलपुर है।

जानकारों के मुताबिक आजकल कुत्तों की नसबंदी के ‍िलए सर्जरीइतर पद्धतियां भी चलन में है। इसके तहत कुत्तो को ऐसी दवा पिलाई जाती है ‍िक वो नपुसंक हो जाते हैं। लेकिन यह सब कहां, किन कुत्तों पर और कब होता है, इसको लेकर रहस्य कायम रहता है। वैसे भी आवारा कुत्तों को पकड़ना और उन्हें शहर के बाहर कहीं दूर छोड़ना मोबाइल फीचर फोन की माफिक पुरानी टेक्निक हो चुकी है। किसी भी शहर में अधिकारपूर्वक जन्म लेने, सड़कों और ‍गलियों में आराम से विचरने, इलाकों की रखवाली का अघोषित जिम्मा लेने और किसी भी राहगीर पर टोल में जानलेवा हमला करने के बावजूद आवारा कुत्तों पर लगाम लगाना टेढ़ी खीर है।

एक तो ये आवारा कुत्ते पालतू कुत्तों से कई गुना ज्यादा होशियार और चौकन्ने होते हैं। नगर निगम की कुत्तागाड़ी नजर आते ही वो ऐसे गायब हो जाते हैं कि निगमकर्मियों के हाथ एकाध बदकिस्मत ही लग पाता है। आवारा कुत्तों को पकड़ने वाले निगमकर्मी भी अमूमन नौसिखिया ही होते हैं। कुत्तों को यह बखूबी पता होता है। देवास में तो आवारा कुत्तों को लोहे के चिमटो से पकड़ने पर अदालत ने नोटिस दे दिया था। कुत्तागाड़ी रवाना होते ही वो अपने मोर्चे पूर्ववत सम्हाल लेते हैं। उन पर धारा 144 भी लागू नहीं होती।

बेशक किसी भी प्राणी को मारना या हिंसा करना सही नहीं है। लेकिन देश में 2001 में जब से पशु क्रूरतारोधी कानून बना है, कुत्तो को मारना भी गंभीर अपराध बन गया है। ऐसे में आवारा कुत्तों को मारने की कोई हिम्मत नहीं करता। उन्हें यथाशक्य झेलना ही आम नागरिक के बस में है। ऐसे में आवारा कुत्तों की संख्या बेलगाम बढ़ रही है। दूसरी तरफ देश में रैबीज जैसी बीमारियों से हर साल औसतन 20 हजार लोग बेमौत मर रहे हैं। उनकी पीड़ा सुनने वाला कोई नहीं है। आवारा कुत्ते तो अब बच्चों पर हमला कर रहे हैं, लावारिस लाशों को खा रहे हैं। लेकिन उन्हें रोकना लगभग नामुमकिन है।

यहां सवाल यह भी है कि कुत्तों की नसबंदी आखिर कितने प्रामाणिक तरीके से हो रही है? अगर हो भी रही है तो प्रदेश में कुत्तो की जन्मदर और उनकी नसंबदी दर में कोई निश्चित अनुपात नहीं है। लिहाजा कुत्ता समुदाय अपना प्राकृतिक कर्तव्य बिला नागा निभाता रहा है। उधर सरकार और समाज भी कुत्तों को ‘कुत्तों की तरह’ ही ले रहा है। यही हाल रहा तो एक दिन कुत्तों की आबादी इंसानी आबादी से होड़ लेती दिखेगी। वैसे भी नसबंदी का मामला ऐसा है ‍कि उसकी बारीकी से जांच व्यावहारिक नहीं है।

नसंबदी के बाद सदाशयता का भाव रहता है कि कुत्तेजी अब नए पिल्लों की फौज नहीं बढ़ाएंगे। मानवीय दृष्टि से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है कुत्तों की नसंबदी पर खर्च हुआ बजट। 17 करोड़ खर्च भी हो गए और कुत्तों की अकड़ जहां की तहां बनी हुई है। गनीमत है कि कुत्ते उनकी नसंबदी पर खर्च रकम के आॅडिट की मांग नहीं करते वरना कितनी नसों की उत्पादक क्षमता स्थायी रूप से बंद हो गई, हुई भी या नहीं, पता चल जाता।

बहरहाल खुशफहमी इसी बात की है कि मध्यप्रदेश में कुत्तों की नसंबदी का कार्यक्रम बदस्तूर जारी है। कुत्तों का कुनबा विस्तार कार्यक्रम भी चल रहा है। ऐसे में कई लोग तो देश छोड़कर विदेश जा बसे हैं। क्योंकि वहां कुत्तों और खासकर आवारा कुत्तों को लेकर कड़े कानून हैं। बगैर मारे आवारा कुत्तो को कैसे कंट्रोल किया जाए, यह कोरोना कंट्रोल से भी ज्यादा कठिन सवाल है। आखिर कुछ कुत्तों की नसबंदी भर से समूचे कुत्ता समुदाय की हौसलाबंदी नहीं हो सकती। लेकिन इसी बहाने कुछ लोगों की ‘चांदी’ हो गई हो तो यह भी कम नहीं है।