असल पत्रकारिता को सहेज कर रखने की जिम्मेदारी किसकी?

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निरुक्त भार्गव

मीडियाकर्मियों की बेतहाशा बढ़ती संख्या और उनके बीच ‘नॉन-प्रोफेशनल्स’ (अपात्रों) का बाहुल्य, चुटकी बजाते ही पद/माया/प्रतिष्ठा पा लेने के मनसूबे और इसके चलते पनपती कटुता और वर्चस्व की लड़ाई, सत्ता के साथ बेमेल गठबंधन करने की प्रवृत्ति और प्रशासन/शासन के स्तर पर ‘फूट डालो और राज करो’ की प्रैक्टिस: नतीजे सबके सामने हैं…रोजमर्रा के पैमाने पर तो “असल” पत्रकारों की दुर्गति हो ही रही है, लेकिन विशिष्ट अवसरों पर भी उनके अस्तित्व को गंभीर चुनौतियां दी जा रही हैं! ऐसे में इस मुद्दे का समाधान निकालना अनिवार्य हो गया है कि असल पत्रकार और वास्तविक पत्रकारिता को कैसे बचाकर रखा जाए?

पत्रकारिता जिस कदर गर्त में पहुंचाई जा रही और जिस तर्ज पर मुख्यधारा के पत्रकारों की विश्वसनीयता पर संकट के गहरे बादल छाए हुए हैं, उसने मीडिया के समूचे पेशे को आज एक चौराहे पर ला खड़ा किया है! जो आईना समाज की वास्तविक सूरत प्रदर्शित करता है, खुद उसका चेहरा विद्रूप हो चुका है! लोगों को भिन्न-भिन्न जानकारी से अवगत कराकर एक जागरूक नागरिक और प्रबल जनमत तैयार करने के कार्य हाशिये पर पटक दिए गए हैं! ऐसे हालात क्यों बने, इस पर दिल्ली, मेट्रोपोलिटन शहरों, राज्यों की राजधानियों, बड़े-मंझोले-लघु शहरों सहित कस्बों तक बहस-मुबाहिस चल रहे हैं! ऐसा होना भी चाहिए, पर निष्कर्ष और उसके समाधान की प्रतीक्षा सभी को है!

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जिस सन्दर्भ को लेकर मैं ये चर्चा अपने जानिब से आज कर रहा हूं उसमें पूरी बहस का निचोड़ समाया हुआ है! पत्रकारिता कब की जाती है: जब आप मीडिया के किसी भी संस्थान से सम्बद्ध हों और निरंतर सक्रिय रहकर स्वयं का और अपने परिवार का पालन-पोषण करते हों! क्या शौकिया पत्रकारिता को वास्तविक पत्रकारिता का दर्जा हासिल है: नहीं! अन्य धंधों और व्यवसाय से आए लोगों को मुख्यधारा का पत्रकार माना जा सकता है: बिल्कुल नहीं! क्या किसी ने कुछ समय पत्रकारिता की हो, तो उसको ताउम्र पत्रकार माना जा सकता है: हर्गिज नहीं! तो फिर पत्रकारिता क्या है और पत्रकार कौन है: अपने-अपने संस्थानों द्वारा दी गई लाइन के अनुरूप जिंदगी के कम-से-कम 25-30 साल जनता के सरोकारों को मुखरित करने में खपा देना !

प्रेस कानूनों, उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों की नजीरों, श्रम न्यायालयों के आदेशों और विवादों के निपटारे के लिए बनाए गए अलग-अलग फोरम की जिरहों को देख लें तो मालूम पड़ जाएगा कि मूल पत्रकारिता किसे कहते हैं और किसे वास्तविक पत्रकार माना जाता है! इन मापदंडों पर केंद्र से लगाकर राज्यों की सरकारें मीडिया संस्थानों और पत्रकारों के हित संरक्षण सम्बन्धी योजनाएं बनाती हैं: मसलन विज्ञापन देना, आवास/कार्यालय के लिए भूखंड देना, चिकित्सा बीमा, अधिमान्यता देना!

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कहने की जरूरत नहीं है कि इन मापदंडों पर खरा उतरने वालों को ही दरअसल सब व्यवस्थाओं को प्राप्त करने का अधिकार है! और ये सब इसलिए आवश्यक होकर निरंतरता की मांग करते हैं ताकि असल पत्रकारिता और वास्तविक पत्रकारों का संरक्षण किया जा सके! पाठकों और दर्शकों के साथ-ही गैर-सरकारी विज्ञापनदाताओं का स्नेह, अपनत्व, सहयोग और पथ-प्रदर्शन भी बहुत मायने रखता है, सरोकारों की पत्रकारिता को संजोने में!

मगर, हो क्या रहा है? क्या वाकई पत्रकारिता को स्पंदित करने के प्रयास किए जा रहे हैं? और क्या मांजने के पत्रकारों की वो ही पूछ-परख है, जो कभी किसी दौर में रहा करती थी? अब तो भेड़, बकरे, बिल्ली और सियार को छू कर दिया जाता है, सरताजों को मिटाने! चूज़े, खरगोश और तोते उन दिग्गजों के मानमर्दन के अभियान में लगा दिए जाते हैं जिनका आलिंगन तो दूर, जिनकी छांव पाने तक के लिए ये सब कीड़े और मकोड़े तरसते थे! जो शागिर्द, उस्तादों की नित्य चरण वंदना करने से नहीं चूकते थे, वो अब खूब चाबुक घुमा रहे हैं! और जो सयानी लोमड़ियां थीं, वो तो बापू के तीन बंदरों में तब्दील हो चुकी हैं!

मेरा आग्रह है कि मेरे इस वृतांत को उज्जैन प्रेस की पॉलिटिक्स बनाम शासन/प्रशासन के दायरे में रखकर भी सोचा और समझा जाए: (1) गले में नीले/काले/पीले/हरे/लाल पट्टेधारी तत्व क्या पत्रकारिता का पोषण कर रहे हैं? (2) 800 से 1000 की संख्या में उग आए मीडिया के इन कर्णधारों की शर्मसार कर देने वाली बहुचर्चित हरकतों से क्या पत्रकारिता का भला होने वाला है? (3) मतों से चुने जाने, स्वयं को सर्वेसर्वा घोषित कर देने, समन्वय से नेतृत्व करने और सामूहिक नेतृत्व को बढ़ावा देने के नाम पर कतिपय चेहरे जिस तरह लगातार खेल कर रहे हैं और बागड़ को नेस्तनाबूद कर रहे हैं, क्या वो किसी से छिपा है?

चलते-चलते इस बात को भी जरूर रखूंगा: (1) किसी भी विशिष्ट कवरेज के दौरान ऊंच-नीच का भेदभाव किया जाएगा (जैसा कि राष्ट्रपतिजी की विजिट में हुआ था), तो इसे किसी सूरत में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा, (2) संगठनों के नाम पर लड़ाने-भिड़ाने के दांव–पेंच बिल्कुल नहीं चलेंगे, (3) मसलों को सुलटाने के लिए जिला प्रशासन और जनसंपर्क विभाग ही अधिकृत रहेगा, (4) अंतिम निर्णय खुले और संयुक्त रूप से किया जाएगा, मुंडे दिखाकर बरगालने और राजनीति करने वालों के हिसाब से नहीं, (5) हर असल मीडिया संस्थान और वास्तविक पत्रकार को तवज्जो मिलेगी, लेकिन समय आने पर चक्रानुक्रम (रोटेशन) का सख्ती से पालन करवाया जाएगा.