स्वाधीन भारत में प्रेस की स्वाधीनता का सवाल कौन उठाये?

RitikRajput
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पत्रकारिता अपने जन्म से ही लोकजागृति और लोकचेतना की वाहक रही है।स्थापित राजनैतिक, धार्मिक , सामाजिक,आर्थिक,आपराधिक माफिया,
प्रशासनिक और सतारूढ़ ताकतों से भयभीत हुए बिना निर्भीक लेखन, चिंतन, अभिव्यक्ति और वैचारिक मार्गदर्शन से लोगों को सतत चैतन्य करना ही पत्रकारिता का मूल धर्म और मर्म हैं। जब भारत में लोकतंत्र नहीं था और देश ,विदेशी हुकूमत की गुलामी में जकड़ा हुआ था ।तब हम पूरी प्रामाणिकता से कह सकते हैं की भारत में पत्रकारिता ने लोकचेतना के लिये अपने आप को खपा दिया और लोगों के मन को जगा दिया।आज के आधुनिक और विकसित तकनीक की भागम भाग वाली पत्रकारिता के इस काल खण्ड में जब हम आजादी के पचहतरवे साल के काल खंड को भी पार कर चुके हैं ।हमारे देश में यह वैचारिक संकट आ खड़ा हुआ हैं कि प्रेस की स्वाधीनता का सवाल कौन खड़ा करें?

सरकार और बाजार से भयभीत हुए बिना और सरकारी असरकारी विज्ञापन के लोभ मोह से परे रहकर लोकाभिमुख तथा सरकार और बाजार की मनमानी से खुली असहमति दर्ज कराते हुए, नीर क्षीर विवेक को जागृत करने वाली कलम की प्राण प्रतिष्ठा कौन करेगा ?यह आजादी का अमृत महोत्सव मना चुकी भारतीय जनता के मन में निरन्तर उभरता बुनियादी सवाल है। वैश्वीकरण उदारीकरण और भूमंडलीकरण के काल खंड में राज्य, समाज और बाजार तीनों के सोच में आमूलचूल परिवर्तन दिखाई देता है।

आज सारी दुनिया में अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतांत्रिक व्यवस्था के अपने अपने भांति भांति के भाष्य हैं। पत्रकारों और अखबारों का एक नया आयाम भी भारत मे पूरी ताकत से उभर रहा है।कई अखबारों का तो दो टूक जवाब है कि अखबार हमारा व्यावसायिक उत्पाद है और पत्रकारिता हमारी आजीविका है। समाज को भी अखबारों का व्यवसायिक उत्पाद किसम का नया स्वरूप तथाकथित विकसित सभ्यता का एक हिस्सा लगने लगा है । आधुनिक विकसित समाज भी सपरिवार तथाकथित विकसित अबोलेपन की सभ्यता को अपने जीवन का अनिवार्य अंग ही समझने लगा है। विदेशी हूकूमत की गुलामी से लड़ने वाले अखबार, पत्रकार और लोग आजादी और लोकतांत्रिक व्यवस्था के इस बदले स्वरूप को विकसित जीवन का एक हिस्सा मानने समझने लगे हैं। आजादी आन्दोलन से हमारे देश के मानस में यह गहरी समझ बनी हुई थी कि प्रेस, अखबार और समूची पत्रकारिता देश समाज,लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी के मूलभूत रखवाले हैं।राज और बाजार सहित निजी और सार्वजनिक जीवन से जुड़े हुए सवालों को उठाना और लोक समाज को जागरूक करना अखबारों और पत्रकारिता का मूल मंत्र है।

आज अखबार और पत्रकारिता ने जब इसे अपना व्यवसाय बना दिया तो लोक समाज ने भी उसे उसी रूप में मान लिया।यह आजादी के बाद के भारत की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक त्रासदी है। वैश्वीकरण उदारीकरण और भूमंडलीकरण के दर्शन ने दुनिया भर में सर्वप्रभुता सम्पन्न नागरिकों को दो तीन दशकों में ही विश्व बाजार के मूक उपभोक्ताओं में बदल दिया है।जब विचारशील और सक्रिय लोक समूह ही अपनी तेजस्वी लोक चेतना को लेकर बोलने लिखने और सोचने समझने की सारी क्षमताओं के मौजूद होने के बाद भी कृत्रिम मूक बधिरों की तरह अनमनापन दर्शाने वाली भयभीत भीड़ में बिना प्रतिरोध के शामिल होने लगे। तब अखबारों और पत्रकारिता की बड़ी बिरादरी ने भी पत्रकारिता को बाजारवाद की खुली हलचल में बिना किसी हल्लेगुले के शामिल हो जाने में पूरी तरह से मदद की।आज की विकसित सभ्यता का सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि जो जन्मना मूक बधिर और दृष्टिहीन है वे आधुनिक तकनीक का उपयोग कर बोलना पढ़ना और लिखना चाहते हैं या सीख रहे हैं।

जो जन्मना बोल लिख और पढ़ने वाली जमातों के आगेवान वर्ग से जुड़े बहुसंख्यक सम्पन्न और खाते कमाते समाज के खुशहाल जीवन शैली के कर्ताधर्ता लोग हैं। जिनके पास शिक्षा सभ्यता और चेतना की लम्बी विरासत के रूप में अपनी सारी जीवन्त क्षमताओं के मौजूद होने पर भी अधिसंख्य लोग समाज, राज्य और बाजार की मनमानी के सामने दंडवत और मौन है। लोकतांत्रिक राज अभिव्यक्ति की आजादी की संवैधानिक बाध्यताओं को अनदेखा कर अपनी मूल समझ को जानते समझते हुए भी लोक अभिव्यक्ति को नियंत्रित करने में मदद करता है और बाजार ने तो सरकारी सोच को ही बाजार का खुला पैरोकार बना दिया है। वैश्वीकरण और भूमंडलीकरण की अर्थनीति राजनीति को पूरी तरह से बदल कर अपने अंधे अनुगामी में बदल चुकी है। आजादी आन्दोलन से जुड़ी लोकतांत्रिक समझ और लोकचेतना, बाजार नियंत्रित भेड़ चाल में उलझ चुकी है। यही कारण है कि हम तेजी से विकास की अंधी दौड़ में शामिल तो हो गये है पर विचार और प्रचार के अंतर को समझना भूला बैठे हैं।राज व्यवस्था संविधान केन्द्रित और बाजार मुनाफा केन्द्रित व्यवस्था है परन्तु पत्रकारिता और अखबारों का मूल मंत्र अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतांत्रिक व्यवस्था का विस्तार है। अखबारों का बाजार के उत्पाद में बदल जाना ही आजादी आन्दोलन के प्राणतत्व अभिव्यक्ति की आजादी का विलुप्त हो जाना आज हमारी दुनिया की लोकतांत्रिक त्रासदी बन गई है।

अनिल त्रिवेदी अभिभाषक