जब सिंहस्थ में राम के नाम उमड़ी भीड़

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इन दिनों पूरा देश ‘राममय’ है. अयोध्या में नवनिर्मित राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा की तिथि (22 जनवरी) जैसे-जैसे नजदीक आती जा रही है, ‘राम से बड़ा राम का नाम’ की उक्ति जोर-शोर से चरितार्थ होती नज़र आ रही है. सबको अपने अपने राम याद आ रहे हैं. मेरे जैसे वे असंख्य लोग तो मन ही मन अपने आपको मात्र इसलिए धन्य मान रहे हैं, जिनके माता-पिता के नाम में ‘राम’ समाहित है. वाकई राम नाम की महिमा अपरम्पार है.

‘राममय’ होने के इस दौर में अकिंचन को अपनी जन्मस्थली उज्जैन में अंकपात क्षेत्र का राम जनार्दन मंदिर रह-रहकर याद आ रहा है. उज्जैन में हर बारह साल के बाद आयोजित होने वाले सिंहस्थ महापर्व में आस्था का अनूठा जन सैलाब उमड़ता है. श्रद्धालु मूलतः पर्व स्नान की तिथियों पर पुण्यसलिला क्षिप्रा नदी में डुबकी लगाने आते हैं. एक महीने तक चलने वाले इस विशाल धार्मिक समागम में उन्हें संत महात्माओं के दर्शन कर, प्रवचन आदि सुनने का अवसर भी मिलता है.

44 साल पहले जब 1980 का सिंहस्थ महापर्व सनातन धर्म के वैभव का पर्याय बना हुआ था, उस वर्ष भी उज्जैन के राम जनार्दन मंदिर क्षेत्र में राम भक्तों अपार भीड़ उमड़ी थी. अवसर था- वहाँ हर रात आठ बजे आयोजित होने वाले ‘रामचरित मानस’ नामक अद्भुत ध्वनि प्रकाश कार्यक्रम का. इसका आयोजन भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले गीत एवं नाट्य प्रभाग ने किया था. मध्यप्रदेश शासन के सूचना तथा प्रकाशन संचालनालय के सहयोग से 15 अप्रैल से 14 मई तक चले इस अनूठे कार्यक्रम का शुभारम्भ राज्यपाल सी.एम. पुनाचा ने किया था.

मंगलनाथ के वनक्षेत्र में रामचरित मानस के अलग-अलग प्रसंगों के प्रभावशाली मंचन को देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग दिन ढलने से पहले ही आकर ऊँचे टीलों पर बैठ जाते थे. रात के अँधेरे में हौले से उभरती रोशनी के दायरे में कभी तीन सौ फीट के मंच पर तो कभी आसपास के सघन वन क्षेत्र में बने अलग-अलग स्टेजों पर जैसे ही रामचरित मानस के पात्र प्रकट होते दर्शकों में हिलोर मच जाती. लाउड स्पीकरों पर पार्श्व संगीत के साथ इन कलाकारों के पहले से रिकार्डेड संवाद गूँजने लगते थे. ध्वनि एवं प्रकाश तकनीक पर आधारित सॉंग एंड ड्रामा डिवीज़न की इस अलौकिक प्रस्तुति का आकर्षण उन दिनों सिनेमा से भी कई गुना ज्यादा था. इसका निर्देशन उस ज़माने में रंगमंच के जाने-माने हस्ताक्षर वीरेंद्र नारायण ने किया था. वे गीत एवं नाट्य प्रभाग के निदेशक भी थे. उनकी दृश्य-श्रव्य विधा में गज़ब की पकड़ थी.

सनातन धर्म से जुड़ी इस प्रस्तुति को लेकर उनकी प्रतिबद्धता भी अद्भुत थी. उज्जैन में इस प्रस्तुति के मंचन के दौरान उन्होंने स्वयं की जीवन शैली और खान-पान की आदतों को पूरी तरह बदलकर सात्विक और शाकाहारी बना लिया था. समूची प्रस्तुति का संगीत भी उन्होंने ही तैयार किया था. ध्वनि और प्रकाश की अभिनव तकनीक पर आधारित इस प्रस्तुति में काम करना कलाकारों के लिए भी एक बड़ी चुनौती था. उन्हें रात-रात भर जागकर वन क्षेत्र में यहाँ-वहाँ बने एक स्टेज से दूसरे स्टेज पर भागते हुए पहुंचकर खुले आसमान के नीचे रिहर्सल करनी पड़ती थी. जो रात के अँधेरे में किसी को नज़र नहीं आते थे. भागदौड़ भरी यह प्रक्रिया रंगमंच की स्थापित परंपरा से बिलकुल अलग थी. क्योंकि यहाँ सारा खेल तकनीक का था. दर्शकों से दूरी के चलते अभिनय पक्ष तो लगभग गौण ही था. बस मेकअप और कॉस्टयूम पर ही सारा दारोमदार था.

अस्सी के दशक में मंचित इस रामायण में राम की भूमिका निभाने वाले 66 वर्षीय देवेन्द्र जोशी जनसंपर्क विभाग से अपर संचालक के पद से सेवा निवृत्त होकर इन दिनों पुणे में अपने बेटे के यहाँ रहते हुए स्वास्थ्य लाभ ले रहे हैं. उन्हें आज 44 साल बाद भी रामायण के मंचन की स्मृतियाँ रोमांचित करती हैं- “वे सात सौ रूपये जो (छात्र जीवन में पॉकेट मनी की जगह तनख्वाह की तरह) इस प्रस्तुति में ‘राम’ का रोल करने के लिए प्राप्त हुए थे, वे आज भी जीवन की अनमोल पूँजी की तरह सहेजकर रखे हुए लगते है.”

इस प्रस्तुति में भरत का किरदार निभा चुके पंकज पाठक का पत्रकारिता में लम्बी पारी के अलावा कविता के क्षेत्र में भी दखल रहा है. इन दिनों वे अपने बेटे के पास मेलबोर्न (ऑस्ट्रेलिया) प्रवास के दौरान हिन्दी के वैश्विक प्रसार की गतिविधियों में सक्रिय हैं. फ़ोन पर हुई चर्चा में भरत के अपने किरदार को याद करके वे आज भी भाव विव्हल हो जाते हैं- “चार दशक पूर्व युवावस्था में वीरेन्द्र नारायण जैसे स्थापित निर्देशक के साथ ‘रामचरित मानस’ में काम कर भरत की भूमिका निभाना मुझे आज भी जीवन के परम सौभाग्य की अनुभूति कराता है. मुझे लगता है कि वह उस ज़माने में रामचरित मानस की दुनिया में सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुति थी. सुन्दर काण्ड से तो आज भी सर्वाधिक लोग स्वयं को कनेक्ट करते है.”

इन्दौर में फार्मा सेक्टर में सीनियर एग्जीक्यूटिव के बतौर कार्य करते हुए 67 वर्षीय अनिल वर्मा भी इस प्रस्तुति की यादों के भँवर में उतराते हुए भावुक हो जाते हैं- “लक्ष्मण का रोल निभाने में मेरी मूँछे और हेयर स्टाइल आड़े आ रही थीं, सो निर्देशक वीरेंद्र नारायण जी के आदेश पर मुझे भरी जवानी में अपनी मूंछों को मुंडवाना पड़ा और हेयर स्टाइल भी बदलनी पड़ी. पर लक्ष्मण के पात्र को जीना ज़िन्दगी भर के लिए कई सबक सिखा गया. लक्ष्मण का रोल निभाने के बाद भले ही नौकरी की जद्दोजहद में रंगमंच का शौक पीछे छूट गया लेकिन जीवन के रंगमंच पर जब कभी मूर्छित होने की नौबत आई, रामायण में हनुमान द्वारा पहाड़ समेत उठाकर लाई गयी संजीवनी सुंघाने के प्रसंग ने फार्मा सेक्टर में काम करने वाले व्यक्ति की चेतना लौटाई.”

लेखक – विनोद नागर