जब कोई यह दुनिया छोड़कर जाता है, तो अपने साथ एक पूरा जमाना, एक पूरा दौर ले जाता है

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जब कोई यह दुनिया छोड़कर जाता है तो अपने साथ एक पूरा जमाना, एक पूरा दौर ले जाता है। ऐसा ही शून्य छोड़ गए हैं हमारे पूर्व संपादक, मेरे लिए पितृवत अभय छजलानी। वह दौर जो बाबू लाभचंद जी छजलानी, राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर और अभय जी जैसे लोगों ने रचा था। जी, अभय जी। हम उन्हें सर नहीं कहते थे, अभय जी ही कहते थे। हमसे पहले वाली पीढ़ी अब्बू जी। हम सब यानी न्यूज डेस्क, फीचर, नगर, आंचलिक, प्रूफ रीडिंग आदि सभी की डेस्क एक बड़े से हॉल में थी। आदरणीय अभय जी और महेंद्र सेठिया जी की डेस्क भी वही थी। किसी का कोई केबिन नहीं, हम सब साथ-साथ एक ही हाॅल में।

आदरणीय अभय जी की डेस्क मेरे सबसे करीब थी, मेरे बाईं ओर, एक आवाज की दूरी पर। हम वहीं से बैठे-बैठे बातचीत कर लिया करते थे। फीचर डेस्क के दाएं और थी आदरणीय महेंद्र भैया की डेस्क। राहुल बारपुते जी और रणवीर सक्सेना जी भी उसी हॉल में हमारे साथ बैठते थे। कोई भी लेखक या कोई भी व्यक्ति बगैर अपॉइंटमेंट लिए हमारे या अभय जी के भी पास आ सकता था। उस वक्त मुझे यह पता नहीं था कि यह सब कितना प्रजातांत्रिक है। दिल्ली आदि में जब दूसरे अखबारों में मित्रों से मिलने जाते तब पता चलता कि वहां वरिष्ठ लोगों के केबिन और कनिष्ठ लोगों के छोटे-छोटे दड़बेनुमा खांचे होते हैं।

आप संपादकीय क्षेत्र में भीतर मिलने नहीं जा सकते, जिसके लिए आए हैं वह रिसेप्शन पर आपसे मिलने आएगा, सूचना और प्रतीक्षा के बाद। अतः हमारा हाॅल तो बिल्कुल ही अनूठा था। कोई लेख देना हो या कुछ कहना हो तो बाबा यानी राहुल बारपुतेजी स्वयं उठकर हमारी डेस्क पर चले आते थे। और अभय जी भी कई बार हमारी डेस्क पर कुछ कहने चले आते और हमारे सामने की कुर्सी पर बैठ जाते। अब सोचती हूं तो लगता है इस बात की कल्पना भी कोई अखबारी दफ्तर नहीं कर सकता।

आदरणीय अभय जी मालिक संपादक थे। इसके लिए उन्होंने उलाहने भी खूब सुने। मगर वे उस तरह के मालिक संपादक नहीं थे कि सिर्फ प्रिंट लाइन में उनका नाम जाए। वे समय आने पर स्वयं अपनी कॉपी लिखना जानते थे। अखबार के फान्ट, छपाई और लेआउट कैसा हो कि उत्कृष्ट लगे यह वह स्वयं जानते थे। इस बारे में हम लोगों को स्वयं प्रशिक्षित भी करते थे। अभय जी की खूबी थी असहमति को सुन लेना। मुझे याद है, और मेरे सहयोगीयों को भी बखूबी याद होगा कि मैं किसी बात के खिलाफ कुछ कहते हुए तैश में भी आ जाती थी। उनकी भृकुटी तन जाती। मगर एक-दो दिन में वही मुस्कान चेहरे पर आ जाती। बातों को पचा लेने की उनकी क्षमता अद्भुत थी। उनका ओजस्वी व्यक्तित्व विनम्रता से भी मन्डित था। वे मातहतों से भी ऊंची आवाज में नहीं बोलते थे।

उस समय की नई दुनिया की एक बहुत ही शानदार बात थी। वहां का संदर्भ विभाग और लाइब्रेरी। संदर्भ विभाग में 12-14 लोग दिन भर काम में लगे रहते थे। यह एक जीवंत और संपूर्ण डिपार्टमेंट था। फाइलों में तरह-तरह की खबरों की क्लिपिंग रोज लगती और जिस विषय की क्लिपिंग लगती उसकी नामजद फाइल बन जाती। साल दर साल किसी भी खास विषय की फाइल मोटी होती जाती। नई दुनिया के इन संदर्भों का लाभ संपादकों ने ही नहीं कई जाने-माने लेखक ने भी लिया। जी हां बाहर के लोग भी आदरणीय अभय जी से मौखिक अनुमति लेकर लाइब्रेरी के संदर्भों का उपयोग कर सकते थे। संदर्भों के अलावा लाइब्रेरी में हर मिजाज की पुस्तक थी। कौन सा ऐसा विषय होगा और कौन सी ऐसी पुस्तक होगी जो उस लाइब्रेरी में नहीं थी, यह सोचा भी नहीं जा सकता। बारपुते साहब, माथुर साहब के अतिरिक्त अभय जी में भी लाइब्रेरी को समृद्ध करने के लिए अद्भुत जुनून था। वे स्वयं तो लाइब्रेरी के लिए किताबें खरीदते ही थे और हम में से कोई पुस्तक मेला आदि जा रहा हो तो उसे अच्छी पुस्तकें लाइब्रेरी के लिए लाने को कहते हैं।अब यह सब इतिहास के गर्भ में चला गया है। फिलहाल तो इतना ही। आदरणीय अभय जी को नमन।

लेखिका : निर्मला भूराडिया