ब्रजेश राजपूत
कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम आते ही शाम को कमलनाथ मध्य प्रदेश कांग्रेस दफतर पर थे। आतिशबाजी कर फुर्सत हुयी और नारेबाजी में मगन कार्यकर्ताओं की भीड को माइक लेकर उन्होंने कहा कर्नाटक की जीत कार्यकर्ताओं और बजरंग बली की जीत है और ऐसी ही जीत मध्यप्रदेश में दोहरायी जायेगी। जय जय कमलनाथ के नारे के साथ कमलनाथ कार्यालय से निकल गये मगर दूसरी तरफ बीजेपी खेमे से किसी की कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी। भोपाल में रोज एक ही जगह पर एक पौधा लगाकर कमलनाथ से रोज एक सवाल कर मीडिया से मुखातिब होने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित टीवी पर गरजने बरसने चमकने वाले अनेक बीजेपी प्रवक्ता भी कर्नाटक चुनाव पर दिन भर चुप ही रहे।
भाजपा की ये चुप्पी बहुत कुछ कह रही है। राजनीति में जरूरी नहीं कि हर सवाल का जवाब दिया जाये मगर राजनीति में सवालों से लंबे समय तक बचा भीं नहीं जा सकता। तो सवाल यही है कि कर्नाटक चुनाव से मध्यप्रदेश बीजेपी ने क्या सीखा। ये सवाल यहां इसलिये भी क्योंकि मध्यप्रदेश और कर्नाटक में बहुत सारी समानताएं है। कर्नाटक के बाद इस साल जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं उनमें मध्यप्रदेश भी है। कर्नाटक के समान यहां पर भी 2018 में बीजेपी को हटाकर लोगों ने कांग्रेस को चुना था। कर्नाटक जैसा सत्ता पलटने के लिये ऑपरेशन लोटस मध्यप्रदेश में भी चला था जिसमें कांग्रेस के विधायकों को कर्नाटक के रिसोर्ट में ही रखा गया था। उनके इस्तीफे से सरकार गिरी और सत्ता में फिर बीजेपी की वापसी हुयी।
कर्नाटक की बीजेपी सरकार जैसा मध्यप्रदेश सरकार पर चालीस प्रतिशत कमीशन का दाग तो नहीं लगा है मगर प्रदेश के मंत्रियों के दबे छिपे भ्रष्टाचार जनता में चर्चा का विषय जरूर है ये बात मुख्यमंत्री से लेकर बीजेपी के संगठन मंत्री तक सब जानते हैं। कर्नाटक में तो सिर्फ चार साल पुरानी सरकार के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी थी यहां तो अठारह साल होने को है। कर्नाटक में भी डबल इंजन सरकार के ढोल बजाकर विकास के गीत गाये गये यही हाल मध्यप्रदेश में भी है भोपाल के गली चौराहों नुक्कड़ों पर विकास लगातार डबल इंजन सरकार के होर्डिंग पर सजे मोदी शिवराज के मुस्कुराते फोटो दिखते हैं। अखबारों पर भी हफते में कम से कम तीन बार आने वाले पूरे पन्ने के विज्ञापन भी मोदी शिवराज के फोटो से सजे हैं। अब तो इन विज्ञापनों में बदलाव भी दिख रहा है मोदी उपर तो शिवराज नीचे की तरफ जगह पा रहे हैं। यानिकी फोकस मोदी ही हैं।
बीजेपी की अंदर की खबर रखने वाले जानकार दावा करते हैं कि मध्यप्रदेश में चुनाव को लेकर पार्टी में कुछ चीजें पहले ही तय हो गयीं हैं जैसे विधानसभा चुनाव पीएम मोदी के चेहरे और उनकी जन हितैषी योजनाओं के दम पर ही लडा जायेगा। विधानसभा चुनाव तो तीन विधानसभा चुनावों की कमान संभालने वाले अनुभवी शिवराज सिंह चौहान ही लडायेगे और उनको बदलने की अटकलों पर पूर्ण विराम लग गया है। ये जरूर है कि उनके मंत्रिमंडल में गुजरात जैसा आमूल चूल बदलाव प्रस्तावित है जो कभी भी कर दिया जायेगा।
सोलह साल से ज्यादा के अनुभवी मुख्यमंत्री को एक तरफ कर चुनाव लडना आसान नहीं होगा मगर उनकी रीति नीति और प्रचार के तरीकों पर आलाकमान ऐतराज करने लगा है। बडी बडी सभाएं और लगातार महंगे इवेंट पर सवाल उठने लगे हैं हो सकता है आने वाले दिनों में इनमें कोई बदलाव भी दिखे। शिवराज ने 2018 के चुनाव के पहले सर्व सुखदायी संबल योजना लाकर चुनाव जीतने की सोची थी ठीक ऐसा ही 2013 में लाडली बहना योजना से उम्मीद की जा रही है। इस योजना की शुरूआती धूम अच्छी रही मगर कांग्रेस के डेढ हजार रूपये वाली नारी सम्मान योजना और पांच सौ रूपये में गैस सिलेंडर के वायदे ने शिवराज मामा की ढाई करोड मतदाता बहनों को भटकाने का काम तो कर दिया है।
शिवराज सरकार से अलग अब बात बीजेपी संगठन की। मध्यप्रदेश का संगठन ने चुनाव की तैयारियां तो की है फिर चाहे बूथ लेवल तक मतदाता की मार्किंग हो, संगठन एप पर वोटरों और कार्यकर्ताओं का डिजिटलाइजेशन हो या फिर कार्यकर्ताओं को लगातार कार्यक्रम देना मगर दिल्ली से नियुक्त प्रभारियां ने संगठन के बोझ को बढा दिया है आलम ये है कि प्रदेश के नेता इन प्रभारियां के काम करने के तरीकों के खिलाफ खुलकर बोलने लगे हैं जो बीजेपी जैसी अनुशासित पार्टी में पहले नहीं होता था। मगर इन प्रभारियों की टीम में आने वाले दिनों में कुछ प्रभारी और जुडेंगे जो चुनाव के लिहाज से संगठन को और कसेंगे, सत्ता संगठन में समन्वय बनायेंगे।
प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा अपने स्तर पर जो कुछ कर सकते हैं कर रहे हैं मगर सत्ता वाले राज्य में संगठन हमेशा बौना होता है और फिर सत्ता बीस साल पुरानी हो तो बैठक कर सरकार के कामकाज और सरकारी योजनाओं को जनता तक पहुंचाने के उपदेश देने के अलावा कुछ रह भी नहीं जाता तो मध्यप्रदेश में यही हो रहा है। सत्ता और संगठन में क्या और कहां कमजोरियां हैं ये आलाकमान के पास ग्राउंड रिपोर्ट के साथ फीडबैक पहुंच गया है। अब सवाल फैसला लेने का है। सरकार और संगठन से जुडे मामलों में बीजेपी को कडे फैसले लेने होंगे क्योंकि कर्नाटक ने खतरे की घंटी बजा दी है। ऑपरेशन लोटस ने भाजपा की सरकार तो बनवायी थी मगर मध्यप्रदेश में उस ऑपरेशन के बाद के घाव पक गये है।
फिर एक बडे ऑपरेशन की जरूरत है जो आलाकमान को करना होगा। वरना कुछ बातें तो कर्नाटक के नतीजों ने साफ कर दी हैं जैसे डबल इंजन अब पटरी पर आसानी से नहीं दौड रहा, धर्म और ध्रुवीकरण बहुत नहीं चल रहा, मोदी का जादू विधानसभा चुनावों में असरकारी नहीं दिख रहा और अब वोटर किसी पार्टी का अब वफादार नहीं रहा। तो जरूरी है कि बीजेपी आलाकमान एमपी की तासीर को समझकर रणनीति बनाये वरना टेलर मेड कपडे पहनाने की कोशिश में कपडे फट जाते हैं जैसा कर्नाटक में हुआ।