हिदायतउल्ला खान
राहत इंदौरी जब रंग से खेला करते थे, तब भी उनके पास कई दोस्त थे, लेकिन अब ज्यादा नहीं हैं। जो हैं उनमें इंदौर के हीरानंद दानीवर भी हैं। इन्हें राहत इंदौरी के सैकड़ों शेर याद हैं और वो नज़्में भी, जिन्हें शायद राहत इंदौरी भूल गए थे। सिर्फ शायरी ही नहीं हैं, दानीवर की तिजोरी में राहत इंदौरी कैद हैं। कहते हैं च्मैं और राहत इंदौरी उन दिनों (1966) के दोस्त थे। जब हम नूतन स्कूल में नवीं में पढ़ा करते थे। दसवीं और ग्यारवीं हमने यहीं पढ़ी। उसके बाद आर्ट्स कॉलेज में एडमिशन ले लिया। मुझे गाने का शौक था, चटर्जी आर्केस्ट्रा का मैं पहला सिंगर था, मोहम्मद रफ़ी को गाता था। कॉलेज में कॉम्पिटिशन था, तब राहत इंदौरी ने मुझसे कहा- मैं भी गाऊंगा। मुझे नहीं पता था, वो गा लेते थे। मैंने पूछा क्या गाओगे? बोले – झूमती चली हवा याद आ गया कोई…।Ó मुझसे पूछा तुम क्या गाओगे? मैंने कहा, राजा और रंक का – फिरकी वाली तू फिर आना।
राहत आसान नहीं थे, शरारत करते थे और हाथ भी उनका खुला था। लड़ाई-झगड़े कर लेते थे, लोगों की फिरकी लेना उनका शगल था, मस्तखोर थे और फनकार होने के सारे गुण उनमें दिखते थे। जहां हमें गाना था, वहां किसी को गाने नहीं दिया जा रहा था, हूटिंग हो रही थी। तभी राहत पहुंचे और उन्होंने गाना बदल दिया। अब उनकी जबान पर था- ये दिल न होता बेचारा… । पर बात बन नहीं पाई, लेकिन उन्हें समझ आ गया, गाना उनका काम नहीं है। बस, इसके बाद उन्होंने लफ्ज बुनना शुरू कर दिए। हालात ठीक नहीं थे, इसलिए मैंने कॉलेज बदला, क्रिश्चियन कॉलेज पहुंच गया, लेकिन राहत सिर्फ पढ़ते नहीं थे, काम भी करते थे। जहां कभी सरोज टॉकीज हुआ करता था, बस वहीं उनकी दुकान थी। शानदार पेंटर थे। फिल्मों के पोस्टर तो बनाते ही थे, दुकानों के बोर्ड बनाने में उनको महारत थी। मैं टेलरिंग का काम करने लगा था। ऐसा कोई दिन नहीं था, जब उनसे मुलाकात ना होती हो।
उनकी दुकान पर वक्त गुजरता था। वो मेरी दुकान पर साइकल से आते थे। जहां वो काम करने जाते थे, हम भी साथ चले जाते। वो सीढिय़ों पर चढ़कर बोर्ड बनाते और नीचे से हम सामान उठा कर देते थे। लाजवाब पेंटर थे और ब्रश पर उनकी शानदार पकड़ थी। जहां मिल्की-वे टॉकीज हुआ करता था, वहां वो फिल्मों के पोस्टर बनाया करते थे। वहां तो मेरा ज्यादा जाना हुआ नहीं, लेकिन जो उनकी दुकान थी, वहां तकरीबन रोज ही जाते थे। पेंटिंग के साथ उन्होंने शेर कहना शुरू किया और जो पहले कुछ शेर मेरे कान तक पहुंचे वो थे- जो लोग तेरे प्यार तेरे ग़म में मर गए…वो जि़ंदगी की मांग में सिंदूर भर गए। उफ़ ये सिसकते साज़, यह शम्मे धुआं-धुआं…तुम क्या गए कि बज़्म को वीरान कर गए।
पचास साल पहले की बात होगी तो वो सिर्फ शेर नहीं कहते थे, नज्में भी खूब कहीं हैं। शायद तभी कहीं थीं। मैंने राहत के साथ कई शहरों का सफऱ किया। मुंबई भी गए, जिस मुशायरे में थे, उसके मेहमान खुसूसी दिलीप कुमार और हाजी मस्तान थे। सदारत नौशाद साहब की थी। राहत को कलकत्ता से आना था, उन्होंने हमें इंदौर से बुला लिया था। बमुश्किल मुशायरागाह तक पहुंच पाए थे, लेकिन उसके बाद दिलीप कुमार, हाजी मस्तान, नौशाद से हम मिलें। इस मुशायरे में राहत को खूब दाद मिली, उन्होंने पढ़ा था- तू तो अपने मशविरों का ज़ख्म देकर छोड़ दे… मुझको जि़ंदा किस तरह रहना है मुझ पर छोड़ दे। जब ये शेर पढ़ा तो दिलीप कुमार खड़े होकर दाद दे रहे थे- दिल तेरे झूठे ख़तों से बुझ चुका, अब आ भी जा…जिस्म के गौतम से क्या उम्मीद कब घर छोड़ दे। मुझे उनकी पुरानी गज़़ल याद आ रही है- मुझ पर नहीं उठे हैं तो उठकर कहां गए… मैं शहर में नहीं था तो पत्थर कहां गए। कितने ही लोग प्यास की शिद्दत से मर गए…मैं सोचता रहा कि समंदर कहां गए। मैं खुद ही मेज़बान हूं मेहमान भी हूं ख़ुद… सब लोग मुझ को घर पे बुलाकर कहां गए। पिछले बरस की आंधी में गुंबद तो गिर गया…अल्लाह जाने सारे कबूतर कहां गए। अब उनकी याद है, जो तब तक रहना है, जब तक खुद की याद है- मैं एक सच हूं अगर सुन सको तो सुनते रहो… गलत कहूं तो मेरे मुंह पर हाथ रख देना।