आप क्या सोचते हैं….!

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-अन्ना दुराई

मैं जानता हूँ कि यदि इस विषय को छूने का प्रयास करूँगा तो सब पहले यही कहेंगे कि क्या अन्ना भैया आपको भी कहीं पकड़ लिया था। मेरा इशारा यातायात पुलिस की चौराहों चौराहों पर चलने वाली मुहीम की ओर है। जिनके पास लायसेंस, इंश्योरेंस, रजिस्ट्रेशन सब कुछ है, उनकी भी अपनी व्यथा है। व्यक्ति किस मूड में अपने घर से निकलता है। कभी वो किसी परेशानी में होता है। कभी परिवार को लेकर घुमने निकलता है। कभी बिमारी हज़ारी, कभी मौत मय्यत तो कभी सगाई शादी या अन्य समारोह में हिस्सा लेने के लिए निकलता है।

ऐसे में जब उसे हाथ देकर रोका जाता है। गाड़ी साईड में लगाने का बोला जाता है तो बड़ा ही अपमानित महसूस होता है। यातायात पुलिस ऐसी विजयी मुद्रा में किसी को पकड़ती है मानों उसने किसी चोर उच्चके या आतंकवादी को पकड़ा हो। कहा जाता है जाओ वहाँ साहब बैठे हैं, उन्हें कागज बताओ। साहब ऐसे ही अन्य कई पीड़ितों से घीरे होते हैं। सभी अनमने मन से कागज दिखाने के लिए अपनी बारी आने का इंतज़ार करते हैं। साहब की नजर पड़ जाए तब तक बैचेन रहते हैं।

साहब अपने ही अंदाज में कागज देखकर संतुष्ट होते हैं। चूंकि उसके पास सब कुछ है लेकिन फिर भी कोई जान पहचान वाला देख ना ले इसलिए उधर से गुजरने वालों से नजरें बचाते हैं। बगैर अपराध के जब अपराधी की तरह पकड़ा जाता है तो अचकचा सा लगता है। मन कचोटता है। एक झुंझलाहट सी नजर आती है। एक बेबसी सी झलकती है। और तो और आजकल जन सामान्य इतना दब सा गया है कि वह चौराहे से निकलते वक्त पुलिस की नजर में न आए तो अपनी कालर ऊंची कर लेता है। साथ बैठे या आसपास से गुजरते हुए लोगों को गर्व भरी निगाहों से देखता है।

प्रत्यक्ष रूप से गलती नजर आने पर रोकें तो समझ में आता है लेकिन लायसेंस दिखाने के नाम पर जब सड़कों, चौराहों पर मजमा लगाया जाता है तो उचित नहीं लगता। इस दिशा में व्यापक मंथन होना चाहिए। सड़कों चौराहों पर बेइज्जत करने वाली चेकिंग बंद होना चाहिए। कुछ लोग पक्ष में यह भी कहेंगे कि जब आप सही हो तो डर किस बात का। क्या हो गया यदि कागज बता दिए तो। लेकिन बात कुछ अलग है। यहाँ बात आत्म सम्मान की भी है। व्यर्थ की परेशानी से बचने की भी है। सम्मान जनक जीवन जीने की भी है। वाकई इस दिशा में सोचें तो और भी तरीक़े ढूंढे जा सकते हैं। इंदौर शहर के जन सामान्य को इतना सम्मान तो मिलना चाहिए।