चुनावों का क्या है, ऐसे ही आते और जाते रहेंगे – अन्ना दुराई

Shivani Rathore
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देश में चरण दर चरण आम चुनाव चल रहे हैं। कुछ राज्यों में चुनाव हो गए हैं तो कुछ राज्यों में अभी पूर्ण होना बाक़ी है। यदि मैं यह कहूँ कि चुनावों में अब वो बात नहीं रही तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। होने वाले चुनावों में अब सब कुछ बदल सा गया है। कहा जाता है कि जनता बहुत समझदार होती है। वो सोच समझकर अपना वोट करती है। लेकिन होने वाले चुनावों में आजकल ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता। मैं यह कतई नहीं कहता कि जनता बेवकुफ हो गई है। यह जरूर है कि जनता की सोचने समझने की शक्ति खत्म कर दी गई है। जन सामान्य के सोच का दायरा भी अब सिमटता जा रहा है। छोटी छोटी गैर जरूरी बातों में उलझकर भी जनता अपना वोट कर देती है। आज भी अनेक मतदाता, मतदान स्थल पर पहुँचकर ही किसे वोट करना है, यह तय करते हैं। राजनैतिक दलों द्वारा भी कई क्षेत्रों में चुनाव वादों के नहीं विवादों के बनाएँ जाते हैं। जन सामान्य में क्षणिक आवेश पैदा कर वोट कबाड़ने की राजनीति अब आम हो गई है। आपसी छिंटाकशी से पूरा का पूरा चुनाव नेता लड़ लेते हैं। जनता भी चटखारे लेने में जुट जाती है। चुनावी चौपालों पर नेताओं की मसखरी भरी बातों को ज्यादा तवज्जो मिलती है।

नेता भी अब जनता के दिमाग़ से खेलने लगे हैं। वे जनता को मुर्ख समझते हैं और उन्हें हर क्षण गैर जरूरी बातों में उलझाने में मशगूल रहते हैं। नेता आजकल जन भावनाओं से खेलते से प्रतीत होते हैं। जनता को अब पटाकर नहीं बल्कि डराकर वोट लेने की परंपरा भी प्रारंभ हो गई है। जनसेवा के प्रति समर्पित होने का दावा करने वाले नेतागण चुनावों में बेहिसाब खर्च क्यों करते हैं, ये भी जनता जानकर अनजान बन जाती है। जनता को चुनावी चकाचौंध के मायाजाल में फंसा दिया जाता है। जनता भी अपने लिए सही गलत का फैसला नहीं कर पाती। नेताओं को अपने सर आँखों पर बैठाने वाली जनता अक्सर थोड़े ही दिनों में ठगी जाने सी भी महसूस करने लगती है। आजकल राजनैतिक पार्टियों के घोषणा पत्र एवं संकल्प पत्र की अपनी अस्मिता और प्रभावशीलता गुमनामी के दौर से गुजर रहीं है। चुनाव में राजनीतिक दल महज चुनाव चिन्ह के लिये रह गया है, चुनाव अभियान व्यक्तिगत नाम से ही चलता है। राजनैतिक दल अपने कार्यों का लेखा-जोखा जनता के सम्मुख प्रस्तुत करना अपनी गरीमा खोना मानते हैं। चुनाव परिणाम मतदाता के मत से नहीं बल्कि चुनाव प्रबंधन से ही प्रभावित होने लग गये हैं।

वाकई जनता अब अपने एक वोट की कीमत से दूर होती जा रही है। चुनाव भी अब मुद्दों के नहीं मुंहजोरी के बनते जा रहे हैं। मुद्दे आते भी हैं तो अब टिक नहीं पाते लेकिन किसने किसको क्या कहा ये ही चुनाव में नेताओं की हार जीत के सबब बन जाते हैं। होना यह चाहिए कि नेताओं के वाद विवादों से नहीं बल्कि इरादों से उन्हे वोट किया जाए। नेताओं की नौटंकी की बजाय उनके जन समस्याओं से निपटने के नवाचारों को वोट की कसौटी माना जाए। नेताओं के मान सम्मान पर स्वयं को झोकने की बजाय जनता अपने आत्म सम्मान के लिए वोट करे। जनता यदि जागृत नहीं हुई तो चुनावों का क्या है, ऐसे ही आते और जाते रहेंगे। बाद में सब यूँ ही लकीर पीटते रहेंगे।