शाबाश !

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“पापा, हिस्ट्री इज अबाउट टू बी मेड !” आदतन सुबह देर से जागते हैं अपन। आज सुबह मैसेज वाली ट्यून से नींद टूटी और मोबाइल चेक किया तो यही मैसेज सामने था। खास बात ये कि मैसेज कनाडा से था और मेरे दामाद वैभव पटेल ने किया था कि, “पापा, हिस्ट्री इज अबाउट टू बी मेड !”

बता दूं कि वो भी क्रिकेट के बड़े शैदाई हैं। समझते देर न लगी कि मैसेज और उसका मजमून ब्रिस्बेन को लेकर था ! अपनी नींद फौरन फुर्र थी। उलटे दिल धाड़-धाड़ बजने लगा। पहला ही ख्याल आया कि ऐसा क्या हुआ ब्रिस्बेन में ? दूसरा ख्याल आया क्या रोहित ने फोड़ दिया कंगारुओं को, तो क्या मैं रोहित की इस पारी को देखने से चूक गया ? तौबा ! आप यकीन नहीं करेंगे कि मोबाइल मेरे हाथ में था और मुझे ये तक भान न था कि उसमें देखूं सुबह के कितने बजे हैं ?

कनाडा के और अपने इंदौर के समय में यही कोई साढ़े ग्यारह-बारह घण्टे का फर्क है। गोया जब अपने यहां सुबह की दस बजती है तो वहां रात के दस बजे के आसपास का समय होता है। सो कनाडा और मेरे दामाद को छोड़िए, दुनिया में बेशुमार लोग होंगे, जिन्होंने आज इस मैच को पहली गेंद से लेकर आखरी गेंद तक देखा होगा। और एक अपन नामुराद थे, जो चाहकर भी सुबह जल्दी न उठे। खैर। अपन ने मोबाइल पर ही फौरन क्रिकइंफो की वेबसाइट खोली और उस पर भी सबसे पहले स्कोर कार्ड जांचा। पता चला रोहित तो कभी के खेत रहे थे और शुभमन गिल भी 91 रनों की पारी खेलकर वापस थे।

रोहित को लेकर सचमुच मन खट्टा हुआ तो गिल को लेकर हर्ष, हैरत और अफसोस कि ये शतक से क्यों और कैसे चूक गया ? अगले पल मैं वेबसाइट की ‘कमेंट्री’ पर था। नित्य कर्म से निवृत्त होते-होते उसने बताया कि रहाणे आते ही चढ़कर खेलने लगे थे और एक चौके के बाद लियोन को आगे निकलकर छक्का भी टिका चुके थे। फिर मुंह-हाथ धोकर टीवी खोलता तब तक रहाणे भी रवाना थे और पता चला ‘टी’ यानी खिलाड़ियों के चायपान का समय हो चुका था ! कुछ मिनट बाद जब खेल शुरू हुआ तो पुजारा और पंत सामने थे और फिर रहाणे के ट्रॉफी उठाने और उसे नटराजन को सौंपने के बाद तक अपन एक पल के लिए भी टीवी के सामने से न हिले ! वाकई क्या कमाल क्लाइमेक्स था ये !

लोग कहते हैं वनडे और टी 20 में खूब रोमांचक खेल देखने को मिलता है। सुपर ओवरों को छोड़ दें तो वनडे में अधिकतम सौ ओवर होते हैं और टी 20 में चालीस। उनमें क्रमशः हमने आठ सौ और साढ़े चार सौ से ज्यादा रन बनते देखे हैं और देखते हैं। क्या आप आज के इस टेस्ट मैच के आखरी सेशन के महज सैंतीस ओवरों के और करीब डेढ़ सौ रनों के इस खेल के रोमांच से उसकी कोई तुलना कर सकते हैं ? पीतल और सोने में फर्क समझ आ जाएगा आपको। एक नमूना बताता हूँ।

जब नाथन लियोन की उस गेंद को पंत आगे बढ़कर मारने गए, चूके और उस पल जब गेंद विकेटकीपर पेन की तरफ गई, न जाने कितनी जानें हलक में अटक गई होंगी ! फिर जब पुजारा आउट हुए और रिव्यू लिया, जब मयंक का कैच पकड़ा गया, जब सुंदर बोल्ड हुए, जब ठाकुर आउट हुए और, और तो और जब जीत के लिए छह रन चाहिए थे और पंत स्टाइल मारने के चक्कर में छक्का मारने गए, तब जाने कितनों को अपनी हवा मंगल-बुध होती मालूम हुई होगी ! ये है असली क्रिकेट यानी टेस्ट क्रिकेट।

वो क्रिकेट, जो खिलाड़ियों के तमाम स्किल्स का रियल टेस्ट लेता है। पुजारा को देखिए। इस पारी में उन्हें कितनी गेंदें शरीर और हेलमेट पर लगीं, एक बार तो उनकी अंगुली चोटिल हुई और वो दर्द से बिलबिला उठे, लेकिन राणा सांगा की तरह लोहा लिया उन्होंने। नया बच्चा गिल गोया अभिमन्यु की तरह कंगारू ‘कौरवों’ के चक्रव्यूह में भी बिलकुल न डिगा और उसे छिन्न-भिन्न करके माना। फिर यही पंत है, जिसे लेकर मेरी पिछली एक पोस्ट पर क्रिकेटप्रेमी मित्रों के उद्गार थे कि ये किसी काम के नहीं और इन्हें पहली फुर्सत में बाहर कर दिया जाना चाहिए !

तब मेरा उनको यही जवाब था कि मैं अभी उन्हें कम से कम पांच टेस्ट मैच और खेलता देखना चाहूंगा। आप देखिए कि आज की पंत की ये पारी उनकी समझबूझ में आए बदलाव की प्रदर्शनी भी थी। एक अनुशासन और समयोचित समीकरण के साथ उन्होंने बेशुमार गेंदों को लेफ्ट अलोन किया यानी बिना खेले छोड़ा। खासकर पुजारा के आउट होने के बाद। उन्होंने तय कर लिया था कि वो एक छोर पर रुकेंगे और हमले का दायित्व मयंक, सुंदर आदि उठाएंगे। आखिर वही नाबाद रहकर मैच निकालकर लाए।

दरअसल जिस बंदे में अलग प्रतिभा है, उसके साथ हमें अतिरिक्त अवसरों और धैर्य का निवेश करना ही चाहिए। पहले भी ये हुआ है। खुद सचिन का पहला वनडे शतक कोई पौन सौ मैचों के बाद आया था ! आगे युवराज सिंह के साथ भी बीसीसीआई ने यही नीति अपनाई थी और उन्हें खेलने और ‘खिलने’ के पर्याप्त से भी अधिक मौके दिए गए। बाद में वो कितने बेशकीमती साबित हुए, ये जग जानता है। पंत भी ऐसे ही हैं। हां, अब बस उन्हें खुद को और निखारते चलना है, जो उनके और भारतीय क्रिकेट के लिए भी सबसे अच्छी बात होगी। उम्मीद है कोई उन्हें इस बात से अवगत कराएगा।

बहरहाल इस जीत के बाद सुंदर पिचई से लेकर सुनील छेत्री, एबी डिविलियर्स, महेला जयवर्धने और दुनियाभर के तमाम खिलाडियों, खेलप्रेमियों व गणमान्य हस्तियों ने टीम इंडिया पर तारीफों और खुशी की पुष्प वर्षा की है। यद्यपि अपनी निगाह में ये जीत वो फल है, जिसका बीज इसी ऑस्ट्रेलिया में छह साल पहले 2014 में तब बोया गया था जब रवि शास्त्री टीम के डायरेक्टर बने थे और महेंद्रसिंह धोनी ने बीच सीरीज में कप्तानी तजकर टेस्ट क्रिकेट को नमस्ते कर दिया था।

उस समय सचिन, सहवाग, द्रविड़, लक्ष्मण, गांगुली, कुंबले आदि एक-एककर पहले ही विदा हो चुके थे और टीम नवनिर्माण के दौर से गुजर रही थी। तब इसी ऑस्ट्रेलिया में टीम इंडिया के डायरेक्टर रवि शास्त्री ने कहा था कि ये टीम (पहली बार कप्तान बनाए गए विराट कोहली की) नतीजों के पीछे जाने वाला क्रिकेट नहीं खेलेगी, बल्कि अपनी क्षमता साबित करने वाला और अपने खेल के ब्रांड (शैली) को विकसित और स्थापित करने वाला क्रिकेट खेलेगी। आपको जानकर शायद हैरानी हो कि यही कंगारू यानी ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट का मूल मंत्र है !

इसका मतलब ये है कि आप अपनी पूरी क्षमता से अपना खेल खेलो, उसमें कोई कोताही न हो और नतीजे से कोई मतलब न रखो। गोया फ़िल्म ‘थ्री इडियट’ का वो डायलॉग है न कि आप अपने काम में एक्सीलेंसी लाओ, कामयाबी खुद आपके पास आएगी ! कंगारू क्रिकेट का विजन बस यही है। आक्रामक क्रिकेट खेलना उनका एकमात्र ध्येय होता है और अभीष्ट भी। इसी गरज से टीम में वो उन्हीं खिलाड़ियों को घरेलू क्रिकेट में खोजते, निखारते, मांजते और चुनते हैं, जो उस आक्रामक शैली का क्रिकेट खेलते हैं।

फिर उसी शैली के क्रिकेट का वो अभ्यास करते हैं। मैच दर मैच वैसी तैयारी करते हैं, योजना बनाते हैं और हर खिलाड़ी की एक भूमिका तय करते हैं। फिर सब अपनी-अपनी भूमिका अनुरूप खेलने की कोशिश करते हैं। इससे मतलब नहीं कि मैच का नतीजा क्या आएगा ! इसी फलसफे से उन्होंने क्रिकेट की दुनिया पर ढाई दशक तक राज भी किया। हालांकि ये हालिया टीम इसमें कामयाब नहीं हो पा रही है तो इसकी एक वजह ये है कि वहां अब वैसा आक्रामक क्रिकेट सफलता से खेलने वाले युवा खिलाड़ी नहीं निकल रहे।

उदाहरण के लिए जो बर्न्स, पुकोवस्की, मार्कस हैरिस, लाबुशेन और कैमरून ग्रीन आदि को देखें तो इनके खेल में न वैसी धार है और न वैसे तेवर, जो हेडन, पोंटिंग, क्लार्क, गिलक्रिस्ट और सायमंड्स आदि में साफ दिखते थे। जाहिर है अभी कंगारू क्रिकेट का ग्राफ थोड़ा गिरा हुआ है। यदि आज आपने मैच के बाद रहाणे को सुना हो तो उन्होंने दो बार ये बात कही कि हमारा फोकस नतीजे पर नहीं, बल्कि बेहतर क्रिकेट खेलने पर था। रवि शास्त्री ने भी कहा कि दरअसल इस सिलसिले की शुरुआत आज से पांच-छह साल पहले हुई थी। यानी वही बात, जो ऊपर मैंने 2014 के ऑस्ट्रेलिया दौरे के हवाले से लिखी है। सो निष्कर्ष कुलजमा ये है कि भले सीरीज कंगारू हारे हों लेकिन जीत कंगारू क्रिकेट की ही हुई है। शाबाश टीम इंडिया।