गौरीशंकर दुबेे
बात 1981 की है। मालवा मिल के मजदूरों के ज्यादातर बच्चे यशवंत निवास रोड पर मालवा मिल सरकारी स्कूल में पढ़ते थे। स्कूल दो से पांच बजे तक लगती थी। स्कूल आने जाने के रास्ता नीलकमल टॉकिज था। एक रास्ता स्कूल और दूसरा गोमा की फैल के लिए निकलता था। नीलकमल में चल रही फिल्म के अलावा आने वाली फिल्मों के पोस्टर, जिनमें कुछ अंग्रेजी फिल्मों के भी होते थे, लगते थे। नीलकमल के परदे के पीछे तीन छोटे कमरे आज भी हैं और वह नीम का पेड़ भी, जिसके नीचे बैठकर राहत इंदौरी सुस्ता लिए करते थे। तब वे राहत कुरैशी कहलाते थे।
उनका नियम था -खुद के पैसे से चवन्नी की कट पीते थे और दो साथियों को भी पिलाते थे। साथ में सेंव परमल की दावत चलती थी। एक खोबा भरके वे मुझ दुबले पतले विद्यार्थी को भी देते थे। मेरे भाई हरिशंकर ने उनके साथ आईकेडीसी कॉलेज में प्रोफेसरी की थी। कॉमरेड पिता ओंकारलाल को वे पंडितजी पुकारते थे और मुझे छोटे पंडितजी। उन दिनों साल में एक बार एक रुपए पांच पैसे के टिकट पर फिल्म देखने को मिल जाए, तो क्या कहने। वैसे राहत सर इंटरवल के बाद आगे की खाली सीट होने पर गेटकीपर को कह देते थे, बच्चे को बैठा लो, तो अपनी दाल गल जाती थी।
मैं रोजाना स्कूल छूटने के बाद उनके ब्रश को सफेद रेगजीन पर सर्फिंग करते देखता था। 90 के दशक के पहले मालवा मिल चौराहे पर ममता कपड़ों की दुकान से लेकर, मुमताज सेठ की किराना दुकान, राजू की टी स्टॉल से लेकर जालू सेठ की जलेबी की दुकान और अग्रवाल बुक स्टोर्स के साइन बोर्ड उन्होंने ही बनाए थे। हमारे स्कूल का ब्लैक एंड व्हाइट सूचना बोर्ड मांडने भी वे आए थे और तब नंबर वन दुकान” दौलतराम साइकिल सर्विस” चेन कॅवर और पिछले मडगार्ड पर नंबर के साथ उन्होंने ही लिखा था। तब अमिताभ बच्चन और नीतू सिंह की याराना ने खूब धूम मचाई थी। टिकट के लिए भीड़ में लोग दब जाते थे। नीलकमल के लिए ही नहीं, बल्कि अलका, प्रेमसुख, राज, देवश्री, रीगल और नवीनचित्रा टॉकिज के लिए भी उन्होंने ही पोस्टर बनाए थे, जिसमें अमिताभ बच्चन झालर की जैकेट पहने गिटार बजा रहे थे।
नीलकमल के पहले और दूसरे गेट पर पोस्टर पहले ही टांगे जा चुके थे और बाकी टॉकिजों के पोस्टर इसी टॉकिज के परिसर में सुखाए जाते थे। . राहत सर पेंटर जैसे नहीं लगते थे। काला पेंट, जिसके लुप्स में बेल्ट नहीं होता था, लेकिन सफेद शर्ट – इन करते थे। उन दिनों संदल के जूते पहनते थे। हाथ में एक पतरा, जिस पर रंग ढुले रहते थे और हवाओं से झूलती आवाज देता ट्रांजिस्टर, गाने सुनाया करता था। बीच बीच में राहत साहब मुस्कराते हुए साथियों को बताते थे -इसके निर्माता ये हैं , लिखा इन्होंने है , गाया इन्होंने। संगीत फलांने फलांने ने दि या था।
एक बार मकबूल फिदा हुसैन पाटनीपुरा से बग्घी में गुजरे में तो हाजी मुमताजउद्दीन साहब से पूछा -भई चितेरे राहत साहब यहीं रहते हैं, तो उन्होंने कहा -नहीं, अब उनके बड़े भाई अकील की नौकरी बैंक में लग गई है, इसलिए तीनों भाई श्रीनगर एक्सटेंशन में रहने लगे हैं। जब राहत साहब पेंटरी किया करते थे, तो उनकी आंखों में कुछ और तैरता दिखाई देता था। शायद वे जानते थे कि दुनिया में शेरो शायरी करने आए हैं। बस कुछ वक्त कूची और रंगों के साथ गुजारना है।
उनके पिता रफतउल्लाह साहब सहकारी बाजार में लोडिंग रिक्शॉ चलाते थे। परिवार नयापुरा से बेकरी की गली नंबर 2 में आ बसा था। तब बच्चे भंवरे फिराने और पतंग उड़ाने में लगे रहे थे, लेकिन राहत साहब बिजली के खंबे की रोशनी में पढ़ा करते थे। दिन में जो काम मिल जाता था, करते थे। जो भी मेहनताना मिलता था, वो अपनी अम्मी मकबूल, जिन्हें पूरा मोहल्ला खाला कहता था, को सौंप देते थे। 2013 में आदिल कुरैशी ने रात को मुझे कहा, चलो खास शख्स से मिलाता हूं। हम क्योरवेल अस्पताल में थे, जहां राहत साहब पलंग पर बैठे सिर इधर उधर कर रहे थे। मैंने पूछा -सर क्या हुआ, तो उन्होंने कहा कि ऐसा लग रहा है, मानों छत से नीचे कूद जाऊं।
दरअसल, उनकी शूगर बढ़ी हुई थी। शायद चार सौ पार। हालांकि बाद में वे स्वस्थ्य होकर घर लौटे। ,लोगों ने सलाह दी च् ये व्यायाम किया करो, मीठा मत खाया करो तो वे बोले -यार जिंदगी खर्च करने के लिए है। कहा करते थे च्ज् हम तो उसकी दुनिया में बाजार करने आए हैं।ज्ज् अफसोस, इस बाजार से ऐसा इंसान चला गया, जो हमेशा खुश रहता था। परेशान आदमी की जगह खुद को रखकर परेशानी दूर कर देता था।