विविध भारती: ‘देश की सुरीली धड़कन’-कैसे बनी?

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इसी ‘प्रश्न’ के ‘उत्तर’ में ही छुपा है प्रसारण की आधी सदी से भी ज़्यादा का इतिहास.तो आईये मेरे साथ-और जानिए प्रसारण के उस युग का लेखा-जोखा:

“…विविध-भारती 3 अक्टूबर 2020 को 63 वर्ष की हुई है..और 29 नवम्बर 2020 को मैं प्रसारण की दुनिया में 53 वर्ष पूरे करने जा रहा हूँ…53 वर्ष के अपने इस लम्बे सफ़र को जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ तो कई मरहले,कई मंज़र,कई आवाजें,कई प्रस्तुतिकरण,कई हस्तियाँ,कई मील के पत्थर आंखों के सामने कौंधने लगते हैं.
भारत में प्रसारण का आरंभ 23 जुलाई 1927 में हुआ,बम्बई के रेडियो-क्लब के एक प्रोग्राम द्वारा..इसके बाद इसी वर्ष बम्बई और कलकत्ता में निजी स्वामित्व वाले दो ट्रांसमीटरों से प्रसारण-सेवा की स्थापना हुई 1930 में.तत्कालीन सरकार ने इन ट्रांसमीटरों को अपने नियंत्रण में ले लिया और-“इंडियन ब्राडकास्टिंग सर्विस” के नाम से उन्हें चलाना आरंभ कर दिया.1936 में इसका नाम बदलकर “आल इंडिया रेडियो” कर दिया गया.और 1957 में इसे “आकाशवाणी” के नाम से पुकारा जाने लगा.

पचास के दशक के उत्तरार्ध में आकाशवाणी के ‘प्राइमरी-चैनल्स’ सभी प्रमुख शहरों में सूचना और मनोरंजन की ज़रूरत पूरी करने लग गए थे पर मनोरंजन के सबसे बड़े साधन फिल्मी-संगीत पर ‘रोक’ लगा दी गई थी.वजह? वजह थी भारत के तत्कालीन प्रसारण मंत्री डा.केसकर की सोच.वे फिल्म-संगीत को सस्ता मनोरंजन और भारतीय-संस्कृति के विरुद्घ मानते थे.उनके आदेश पर,साढ़े 3 मिनट के रिकॉर्डों में सिमटी इच्छाओं,आकांक्षाओं,उम्मीदों,आदर्शों,संघर्षों,और हसरतों को ‘ज़मीदोज़’ कर दिया गया.लेकिन दूरदराज़ के एक द्वीप ‘श्रीलंका’ ने इन रिकॉर्डों को बड़े प्यार और दुलार से सहेज कर संभालकर रखा.यही नहीं उनमें इज़ाफ़ा भी किया-और ‘विश्व की सबसे बड़ी रिकॉर्ड-लाइब्रेरी’ होने का मर्तबा भी हासिल किया. है न विडम्बना!पैदा कहीं हुआ!! परवान कहीं चढ़ा!!

इसका सबसे बड़ा फ़ायदा रेडियो-सिलोन ने उठाया 30 मार्च 1950 में हिन्दी-सेवा की शुरूआत करके.उनके फिल्म-संगीत पर आधारित कार्यक्रमों ने तहलका मचा दिया. भारतीय श्रोता ही नहीं, दक्षिण-पूर्व एशिया के श्रोता भी ‘चुम्बक’ की तरह रेडियो-सिलोन की तरफ खिचने लगे.रेडियो-सिलोन की इस लोकप्रियता ने भारतीय उत्पादकों का ध्यान भी अपनी ओर खींचा.एक अंग्रेज डैन- मोलीना ने उत्पादकों की नब्ज़ पकड़ते हुए -“रेडियो एडवरटाइजिंग सर्विसेस” की स्थापना की. इसके ज़रिये वो एशिया भर के विज्ञापनों को रेडियो-सिलोन के लिए ‘बुक’ करने लगे एवज़ में उन्हें मिलने लगा. ‘भारी-कमीशन’ और रेडियो-सिलोन को करोड़ों का ‘रिवेन्यू’. उस दौर में विज्ञापन रेडियो पर स्टूडियो में उपस्थित उद्घोषक द्वारा ही पढ़कर किए जाते थे.बाद में इसी एजेंसी की उप-एजेंसी ने विज्ञापनदाताओं के लिए विज्ञापन ही नहीं, कार्यक्रमों का निर्माण भी आरंभ कर दिया.

इन कार्यक्रमों की आधारशिला भी हिन्दी-फ़िल्मी गाने ही थे. इस एजेंसी द्वारा निर्मित तत्कालीन कार्यक्रम:’ओवलतीन फुलवारी’, ‘कोलगेट रंग-तरंग’, ‘लक्स सितारों के साथी’ और ‘बिनाका गीतमाला’ ने, सारे एशिया को अपनी गिरफ्त में ले लिया.मनमोहन कृष्ण, हमीद सायानी, बलराज (सुनील दत्त),मुरली मनोहर और अमीन सायानी जैसे विश्व-विख्यात ब्रॉडकास्टर दुनिया को दिये.

रेडियो सिलोन के स्थानीय उद्घोषणों, विजयकिशोर दुबे, गोपाल शर्मा और शिवकुमार सरोज ने फिल्म संगीत को विभिन्न ढांचों में ढालकर ऐसे लाजवाब प्रोग्राम बनाए जो श्रोताओं के दिलों पर आज तक छाये हुए हैं.रेडियो पर,’ रेडियो सिलोन का आना,उसके बिकने की गारंटी बन चुका था” .ये वो दौर था जब मनोरंजन का सबसे बड़ा साधन था ‘रेडियो’ और ‘फिल्में’. इनका युवा-पीढ़ी पर इतना ज्यादा प्रभाव था कि हर युवा,दिलीप कुमार की तरह ‘फिल्म स्टार’ या अमीन सायानी की तरह ‘रेडियो स्टार’ बनना चाहता था.

भारत ही के श्रोताओं के दिलो-दिमाग पर झंडे गाड़ती पड़ोसी देश की इस लोकप्रियता और कामयाबी ने ऑल इंडिया रेडियो, जो 1956 में “आकाशवाणी” नाम धारण कर चुका था,के दिग्गजों में खलबली सी मचा दी.उन्होंने फिल्म-संगीत की ‘अहमियत’ को पहचाना और अपनी भूल को सुधारने का दृढ़ निश्चय कर लिया.इस दृढ़ निश्चय को अमली जामा पहनाने के लिए प्रसारण की कद्दावर हस्तियों: पंडित नरेन्द्र शर्मा, गोपालदास, केशव पंडित के नेतृत्व में रेडियो सिलोन की लोकप्रियता का ‘तोड़’ ढूंढने के लिए अनेकानेक बैठकें हुई.विशेषज्ञों की राय ली गई.इन बैठकों के नतीजे के रूप में सामने आई-एक बेहद सुन्दर परिकल्पना इसका नाम रखा गया- ‘विविध-भारती-सेवा’-आकाशवाणी का पंचरंगी कार्यक्रम-जिसमें पांचों ललित-कलाओं का समावेश गया- गीत, संगीत, नृत्य, नाट्य और चित्र.

3 अक्टूबर को इस सेवा की शुरूआत भारत की आर्थिक राजधानी बम्बई (अब मुंबई) से की गई.पंडित नरेन्द्र शर्मा ने इस सेवा का उद्घाटन गीत लिखा.अनिल बिस्वास ने उसे संगीत से संवारा और मन्ना डे ने इसे अपनी सुरीली आवाज से निखारा-बोल थे-‘..नाच रे मयूरा..’
इस सेवा के पहले उद्घोषक बने शील कुमार.

विविध-भारती के शुरूआती कार्यक्रम थे फौजी भाइयों के लिए फरमाइशी प्रोग्राम-‘जयमाला’ और झलकियों और नाटकों के लिए -‘हवा महल’.विविध भारती सेवा में पंख तो लग गये पर उसकी परवाज़ रेडियो सिलोन की बुलंदियों तक न पहुंच सकी. वजह?..फिल्मी गाने और उन पर आधारित प्रोग्राम तो होने लग गए पर ‘विज्ञापन’ अभी भी वर्जित थे.

‘विज्ञापन’ और ‘प्रायोजित-कार्यक्रम’ जो रेडियो सिलोन की कमाई का आधार थे, उनका निर्माण बाहर की एजेंसियों और निर्माताओं से करवाया जाता था. इससे कार्यक्रमों के प्रारूपों और प्रस्तुतिकरण में ताज़गी और विविधता रहती थी.इस बात को समझने में विविध-भारती को 10 वर्ष लग गये, तब कहीं जाकर वर्ष 1967 विविध भारती पर “विज्ञापन प्रसारण सेवा” का प्रारंभ हुआ.और इसी वर्ष ‘रेडियो सिलोन ‘बना-“श्रीलंका ब्रॉडकास्टिंग कार्पोरेशन” और इसके पहले उद्घोषकों में,मैं भी शामिल हुआ.

विविध भारती-देश की ‘सुरीली धड़कन की पायदान,पर तेज़ी से तब चढ़ी जब इसके कार्यक्रम और प्रसारण में रेडियो-सिलोन की तर्ज पर; ऊल-मूल-चूल परिवर्तन किया गया.यही नहीं रेडियो-सिलोन की तरह विविध-भारती ने भी ‘बाहरी-निर्माताओं’और ‘एजेंसियों’ को विज्ञापन और प्रायोजित-कार्यक्रम बनाने के लिए आमंत्रित किया.इसमें बहुत से वो निर्माता भी शामिल हुए जिन्होंने रेडियो सिलोन को लोकप्रियता के शिखर तक पहुँचाया था-उनमें सबसे प्रमुख थे:भारत में कमर्शियल-ब्रॉड कास्टिंग के शहंशाह अमीन सायानी.

रेडियो सिलोन की “बिनाका गीतमाला”जब रेडियो सिलोन छोड़कर विविध भारती में “सिबाका गीतमाला”बनकर आई तो देश की सुरीली-धड़कन में नगाड़ों की गूंज भी शामिल हो गई.प्रायोजित कार्यक्रमों और विज्ञापनों की विविध भारती पर जैसे बाढ़ सी आ गई.
7 वर्ष रेडियो सिलोन में कार्य करने के बाद मेैं जब 1974 के मध्य में बम्बई पहुँचा तो विविध- भारती अपने पूरे शबाब पर आ चुकी थी.मैंने अपना सफर बतौर “फ्रीलांसर” अपने आदर्श और गुरू अमीन सायानी की छत्र-छाया में शुरू किया,और विविध भारती को देश की ‘सुरीली धड़कन, बनने की यात्रा का न केवल ‘गवाह’ बल्कि उसका ‘हिस्सा’ भी बना.

शुरूआत मैंने ‘फिल्म के प्रायोजित कार्यक्रमों’ से की.कुछ अकेले और कुछ अमीन साहब के साथ युगल बंदी में’ जिनमें प्रमुख थे:’अलीबाबा चालीस चोर’,’कसौटी’,’रज़िया सुल्तान’,:प्रतिज्ञा’ ‘कुरबानी’,’मैं इंतकाम लूंगा’,’रोटी कपड़ा और मुकान’,और ‘शोले, ‘मुझे याद आया’ ‘आप और हम’ ‘पॉलीडोर संगीतधारा’ जैसे छोटे-मोटे साप्ताहिक कार्यक्रम लिखते और बोलते हुए- मेरी झोली में आया वो प्रोग्राम जिसने मुझे अंतरराषट्रीय ख्यति तो दिलवाई ही और फ्री-लान्सर की हैसियत से मुझे पूरी तरह स्थापित कर दिया.ये प्रोग्राम था-‘मोदी के मतवाले राही’ जिसको 1979-80 में विश्व के सर्वश्रेष्ठ प्रायोजित कार्यक्रमों की ‘कैटेगरी, में “अमरीकन क्लीओ अवार्ड” से नवाज़ा गया.इसमें मुझे ‘प्रमुख-किरदार’और ‘प्रस्तुतकर्ता’ के रूप में पुरस्कृत किया गया.कालान्तर में ‘हवामहल’ और ‘मोदी के मतवाले राही’ विविध भारती के ऐसे दो प्रोग्राम थे जिनके प्रसारण के दौरान बजने वाले विज्ञापनों की मांग सबसे ज्यादा थी.इतनी ज्यादा कि उस ‘स्लाट’ को 6 महीने पहले बुक करना पड़ता था..लोकप्रियता की ये चरम सीमा थी!इनके अलावा ‘इंस्पेक्टर ईगल’ एक ऐसा कार्यक्रम था जिसके प्रसारण के दौरान सड़कें सूनी हो जाती थीं!!

भारतीय-संस्कृति और इतिहास को उजागर करते इन कार्यक्रमों को भला कौन भूल सकता है? ‘पत्थर बोलते हैं,’कोहिनूर गीत गुंजार’,’एवरेडी के हमसफर”किस्सा तोता मैना” “एक धागे के मोती” मनोरंजन की नई परिभाषा लिखते-‘सैरीडॉन के साथी”शालीमार सुपर लैक जोड़ी”-बॉर्न’विटा क्विज कॉन्टेस्ट ”सिबाका गीता माला’ ‘एस. कुमार्स का फिल्मी मुकदमा’ और विविध भारती पर लगातार 19 वर्ष तक चलने वाला-हास्य प्रोग्राम:-‘सेन्टोजन की महफिल. ‘बिनाका गीत माला’ के बाद-विश्व में सबसे लम्बी अवधि तक प्रसारित होने वाला ये कार्यक्रम आपके इस दोस्त द्वारा ही निर्मित और प्रस्तुत होता था.

रेडियो सिलोन की लोकप्रियता में अपना विनम्र योगदान देने के बाद विविध भारती को ‘देश की सुरीली धड़कन’ बनाने में मेरे योगदान का सही मूल्यांकन तब हुआ जब विविध भारती की विज्ञापन प्रसारण सेवा ने अपनी ‘सिल्वर जुबली’ पर सर्वश्रेष्ठ 25 प्रायोजित कार्यक्रमों की घोषणा की.इनमें तकरीबन 9 में मेरा योगदान था.

अमीन सयानी, विजय किशोर दुबे, बालगोविन्द श्रीवास्तव, हसन रिज़वी,विनोद शर्मा, हमीद सायानी, शील कुमार, मधुप शर्मा, सत्य शर्मा, विजय बहल,प्रदीप शुक्ला, कुसुम कपूर,सईद-उल-हसन, गोपाल शर्मा, रूपा सांगले, ब्रिज मित्तल,कैलाश गोयल, के.के.बिलिमोरिया,आशा शर्मा, ज़रीना कादर , बृजभूषण, मधुर जी जैसी दिग्गज हस्तियों के योगदान के बिना विविध भारती कभी भी ‘देश की सुरीली धड़कन’ का मुक़ाम हासिल नहीं कर सकती थी.
जब हम किसी शानदार इमारत पर नज़र डालते हैं..तो उसके “कंगूरों” पर तो हमारी नज़र जाती है,जिस पर वो इमारत खड़ी है..लेकिन उसकी “नींव के पत्थरों” पर हमारा थोड़ा सा भी ध्यान नहीं जाता. ‘जो दिखता है वही बिकता है’ की परिपाटी, विविध-भारती-सेवा पर आज पूरी तरह हावी हो चुकी है. इलेक्ट्रॉनिक-मीडिया से जुड़ी उसकी हर साइट पर विविध भारती के कार्यक्रमों की उपलब्धियों,कार्यक्रम निर्माताओं,प्रस्तुतकर्ताओं का लेखा-जोखा, तारीफों के पुलन्दे तो मिलते हैं पर उन हस्तियों का नाममात्र का ज़िक्र नहीं जिन्होंने सही मायनों में
विविध भारती को “देश की सुरीली धड़कन” बनाया और विविध-भारती की प्रसारण सेवा को ज़मीन से उठाकर आसमान की बुलंदियों तक पहुंचाया.उषा साराभाई,अशोक आजाद,राम सिंह पवार,मुक्ता चतुर्वेदी,क़ब्बन मिर्ज़ा,विजय चौधरी,यतीन्द्र श्रीवास्तव,रेणू बंसल,मोना ठाकुर, बृजभूषण साहनी,लोकेन्द्र शर्मा, पुरुषोत्तम दारवेकर, गंगा प्रसाद माथुर.जहां तक मुझे याद आते हैं,ये विविध-भारती-सेवा के कुछ वो नाम हैं- जिन्होंने उसे शिशुवस्था से किशोरावस्था तक पहुंचाने में अपना खून-पसीना एक किया, पर जिनका तनिक सा भी जि़क्र कहीं नहीं मिलता.

यहाँ मुझे याद आ रहे हैं आकाशवाणी की “प्लेटिनम-जुबली” के अवसर पर ढाई मिनट के उस विज्ञापन के शब्द जिसे तकरीबन 15 दिन तक मेरी आवाज़ में सभी चैनलों पर प्रसारित किया गया था-

V/O -75 वर्ष पहले इस देश की ध्वनि तरंगों ने छुआ था एक नयाआकाश..

V/O -आकाश से निकली एक वाणी, जिसका उद्घोघोष देवता किया करते थे -देखते ही देखते वो हुई-जनवाणी..

(पार्श्व में-डगर डगर सब कलियां जागीं)

V/O -बह निकली ‘शब्द’ और ‘संगीत’ की धारा..

-(पार्श्व में-“सुर की नदियां हर दिशा से बह सागर में मिले”- भीमसेन जोशी)

V/O -इस गंगा को भागीरथ ने ही नहीं हर घर ने समेटा अपने रेडियो सेट में..

(पार्श्व में-ओपनिंग सिग्नेचर-ट्यून आफ ए.आई.आर.)

V/O -एफ.एम.की परदादी..शार्टवेव की चाची…और मीडियम वेव की नानी..यही तो है आप सबकी आकाशवाणी..

(पार्श्व में -“यहां के गीत वाह, वाह, मीठी बोली वाह,वाह”- अनु मलिक)

V/O -This is All India Radio right from 23 July 1927 to 23 July 2002…Giving you 75 years of broadcasting..

(पार्श्व में- बिगुल,मार्चिंग-म्यूज़िक)

V/O -जुलूस,जलसा,आंधी,तूफान, कर्फ्यू,दंगा या हो अंधाधुंध बारिश का पानी-सदा सभी के साथ चली-कभी न थमी- वो है आकाशवाणी…

(पार्श्व में- मिले सुर मेरा तुम्हारा, तो सुर बने हमारा- भीमसेन जोशी)

उपरोक्त शब्दों के अर्थ इस “इलेक्ट्रानिक-क्रांति” के युग में क्या बदल चुके हैं कंटेंट,भाषा, आवाज़ें, प्रस्तुतिकरण क्या ये कल की बात बन कर रह गए हैं? आज पर यदि हम नजर डालें तो देखते हैं कि तकनीकी-विकास पाकर रेडियो अब एफ.एम.ब्रॉड-कास्टिंग में ढल चुका है.उच्चस्तरीय-ध्वनि और साफ-सुथरे प्रसारण का आलंबन रेडियो को मिल चुका है.नित नए नए रेडियो स्टेशनों में इज़ाफा हो रहा है पर ‘Qwality’ कहीं पीछे छूटी जा रही है और ‘Qwantity’ अपने चरम पर है.पर एक चीज़ आज भी नहीं बदली. रेडियो-बीते कल का हो या आज का उसका आधार,उसके कार्यक्रमों की धुरी,कल भी फिल्म संगीत था,और आज भी फिल्म-संगीत है.इसके बिना कोई भी ‘धड़कन’-‘सुरीली नहीं बन सकती. इस का अनुभव विविध-भारती अतीत में कर चुकी है..”