अटलजीः गठबंधन धर्म के प्रवर्तक

Share on:

जयराम शुक्ल

“लोकतंत्र 51 बनाम 49 का खेल नहीं है । लोकतंत्र मूलतः परंपराओं, सहयोग और सहिष्णुता के आधार पर सत्ता में भागीदार बनाने का तंत्र है”
-अटल बिहारी बाजपेयी

भारतीय लोकतंत्र में गठबंधन की राजनीति की विवशता को गठबंधन धर्म विशेषता में बदलने का जो युगांतरकारी काम अटल बिहारी वाजपेयी ने किया है वह संसदीय इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय के रूप में स्मरण किया जाएगा। आजादी के बाद वे डा. राममनोहर लोहिया से भी एक कदम आगे रहे जिन्होंने क्षेत्रीय दलों की अस्मिता को समझा और उनकी राष्ट्रीय स्तर पर प्राण प्रतिष्ठा की। आज और निकट भविष्य में भी यह कल्पना करना ही निरर्थक बात है कि किसी एक राजनीतिक दल के झंडे पर केंद्र की सरकार कभी बन सकती है। यही गठबंधन की राजनीति को धर्म की तरह अपनाकर आगे बढने का संसदीय युग है अटलजी इसके आदि प्रवर्तक के रूप मे जाने जाएंगे।

अटलजी के संसद में दिए गए वक्तव्यों पर केंद्रित पुस्तक ‘गठबन्धन धर्म'(प्रकाशक प्रभात प्रकाशन नई दिल्ली) की भूमिका में अटलजी लिखते हैं- ” मैं इस विचार से सहमत नहीं हूँ कि छोटे दल लोकतंत्र की प्रगति में बाधा हैं। छोटे दलों की अपेक्षाओं को राष्ट्रीय स्तर पर पर्याप्त महत्व दिया जाना चाहिए। भारत एक बहुभाषी, बहुधर्मी और बहुजातीय समाज है। छोटे-छोटे जातीय या क्षेत्रीय समूह अपनी पहचान बनाए रखने के इच्छुक रहते हैं। यह देश समृद्ध विविधताओं से भरपूर है। ये विविधताएं अक्सर राजनीतिक क्षेत्र में अभिव्यक्त होती हैं, हमारे समाज की इस जटिल रचना को मानने और स्वीकार करने की जरूरत है, ताकि गठबंधन सरकारें सफलतापूर्वक चलाई जा सकें।.. सभी विभिन्न पहचान वालों को यह अहसास रहना चाहिए कि एकात्म समाज की जरूरत को आगे बढ़ाने के लिए सहयोग करना उनके ही हित में है।”

इतिहास पर दृष्टि डालें तो यह तथ्य उभरकर स्वमेव प्रकट हो जाएगा कि गठबंधन की राजनीति के उद्भव और विकास के पीछे काँग्रेस की बड़ी भूमिका है। आजादी के बाद हुए जिस काँग्रेस को भारतीय जनता ने अपना भाग्यविधाता मानते हुए चुनावों में जनादेश सौंपा था वही काँग्रेस साठ के दशक आते-आते स्वेच्छाचरिता के राह पर चल पड़ी। पंडित नेहरू का एक ही अघोषित ध्येय था “एको अहम् द्वितीयो नास्ति”। कांग्रेस की पहली केंद्र सरकार के गठन से पहले ही उनके समकालीन और लगभग उन्हीं के कद के नेताओं में आचार्य कृपलानी, नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण और डा. राममनोहर लोहिया ने काँग्रेस को छोड़कर अपनी अलग राह चुन ली। काँग्रेस सिर्फ हुजूरियों का समूह बनकर रह गया। विपक्ष की भूमिका में कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट उठ खड़े होने लगे।

जब जनसंंघ राजनीति में नवांकुर था। शुरुआती दौर में ही काँग्रेस का नेतृत्व इतना असहिष्णु था कि केरल की नम्बूदरीपाद के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त कर दिया। इधर मध्यभारत में विंध्यप्रदेश अपने धारदार समाजवादी आंदोलनों के लिए सुर्खियों में आने लगा। सोशलिस्ट यह मुख्यविपक्ष था। सीधी जैसे अति पिछड़े क्षेत्र से लोकसभा में काँग्रेस अपना पहला चुनाव हार गई। विधानसभा सीटों में तीन चौथाई में समाजवादियों को जनादेश मिला। यह घटनाक्रम नेहरूजी की निर्विघ्न सल्तनत के लिए एक तरह से चुनौती थी। परिणामतः बिना किसी ठोस आधार के विंध्यप्रदेश को विलोपित कर दिया गया। क्षेत्रीय अस्मिता पर काँग्रेस का यह भीषण प्रहार था। ऐसी प्रवृत्तियों के चलते दक्षिण काँग्रेस की सरकार के खिलाफ उठ खड़ा हुआ। अन्ना दुरई के आह्वान पर जो तूफान उठा उसने साठ के शुरुआती दशक में तामिलनाडु से कांग्रेस के सितारे को गर्दिश में डाल दिया। इस बहर का असर दक्षिण के अन्य प्रांतों में भी पड़ा जिसका परिणाम आज सामने है।

साठ के दशक के शुरुआती वर्षों में ही डा.लोहिया ने काँग्रेस के खिलाफ विपक्षी दलों की गोलबंदी शुरू कर दी। एक तरह से गठबंधन की राजनीति के पहले सूत्रधार डा. लोहिया बने। लेकिन उनके एजेंडे में न्यूनतम साझा कार्यक्रम से ज्यादा कैसे भी काँग्रेस की प्रांतीय सरकारों को गिराना था। कांग्रेस विरोध ही एकमात्र लक्ष्य था। क्षेत्रीय दल गोलबंद तो हुए और उत्तरप्रदेश समेत कई प्रांतों में साझा सरकारें बनीं भी, लेकिन इस साझेदारी की बुनियाद पर सिद्धांत नहीं सत्ता की बंदरबांट थी। गैर कांग्रेसवाद का लोहिया का मिशन उनकी मृत्यु के साथ ही राख में मिल गया।

केंद्र की सरकार के लिए साझा प्रयास पहली बार 1977 में जनतापार्टी के गठन के रूप में हुआ। जनता पार्टी के गठन का आधार सूत्र कोई सिद्धांत नहीं अपितु आपातकाल में मिली प्रताड़ना और जनता के आक्रोश का प्रबल आवेग था। नाम भले ही जनतापार्टी दिया गया हो वस्तुतः यह एक गठबंधन ही था और सभी घटक दलों की आस्था अपने मूल उद्गम के साथ जुड़ी थी। जपा ने दो काम किए पहला- जिन लोकनायक जयप्रकाश नारायण के पराक्रम से वे सत्ता के तख्त तक पहुंचे उनकी अवहेलना। दूसरा- जिस जनता ने बड़ी उम्मीदों के साथ विश्वास सौंपा था उसपर तुषारापात। जनता पार्टी नेताओं की निजी महत्वाकांक्षा की बलि चढ़ गई। दुखांत देखिए जिस काँग्रेस को उखाड़ने के लिए ये एक हुए थे उसी कांग्रेस के समर्थन से जनता पार्टी टूटी, चरण सिंह की सरकार बनी और फिर बिगड़ी। निराश मतदाताओं ने कांग्रेस को फिर सत्ता सौंप दी।

साझा सरकार या गठबंधन का यह प्रयोग गहरा अवसाद देकर विफल हुआ। दस साल बाद 1989 में एक मौका फिर आया। इतिहास में पहली बार दो विपरीत ध्रुव कम्युनिस्ट और भाजपा एक साथ आए पर यह गठबंधन भी बेमेल ब्याह ही साबित हुआ। 1979 का इतिहास दोहराया गया इस बार चरण सिंह की जगह चंद्रशेखर थे और बाहरी समर्थन कांग्रेस का। बहरहाल नरसिंहराव के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी और चली भी अल्पमत के बावजूद। अल्पमत की भरपाई के लिए ही शायद हर्षद मेहता सूटकेस कांड, लखूभाई पठक प्रकरण हुआ और देश ने घोड़ामंडी की तरह सांसदों को खरीदते-बिकते देखा जो जेएमएम घूसकांड के नाम से मशहूर हुआ।

गठबंधनों की असफलता की सीख लेते हुए अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा ने क्षेत्रीय अस्मिता का सम्मान और छोटे दलों की राष्ट्रीय भागीदारी के सिद्धांत के साथ पहल शुरू की। 1996 के चुनाव में भाजपा सबसे बड़े दल के तौरपर उभरी राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा ने सरकार गठन के लिए बुलाया। वो अटल बिहारी वाजपेयी का ही अडिग फैसला था कि बहुमत सिद्ध करने के लिए किसी अनैतिक तरीके का इस्तेमाल नहीं किया गया जबकि प्रमोद महाजन जैसे दिग्गज थे जो एक इशारे पर वैसे ही बहुमत जुटा सकते थे जैसे कि नरसिंहराव सरकार के समय हुआ था। सदन में अटलजी का वह दृढ़निश्चयी वाक्य आज भी उनके चाहने वालों के कानों में गूँज रहा होगा- “हम फिर से आएंगे जनता के विश्वास और जनादेश के साथ।

1996 और 1998 तक देश ने राजनीतिक अस्थिरता का चरम देखा। पहले देवगौड़ा और फिर गुजराल के रूप में दो अल्पजीवी प्रधानमंत्री मंत्री और। इन दो सालों में सत्ता की राजनीति सर्कस में बदल गई। अंदर रिंगमास्टर की भूमिका में थे माकपा सुप्रीमो हरिकिशन सिंह सुरजीत और बाहर काँग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी.. मीडिया तब इस स्थिति पर “ओल्ड्समैन आर इन हरी” कहकर मजाक उड़ाता था। साँप अपना स्वभाव नहीं छोड़ता भले ही वह चंदन के पेड़पर लिपटे-लिपटे दूध का सेवन करता रहे। अंततः इंद्रकुमार गुजराल साहब की सरकार भी वैसे ही गई जैसे चरण सिंह और चंद्रशेखर की गई थी।

कांग्रेस ने मध्यावधि चुनावों को देश की नियति बना दिया। हम नहीं तो फिर कोई नहीं। गठबंधन सरकारों को बनवाने और गिरवाने के पीछे यह सोच रही कि जनमानस में यह बात अच्छे से कायम हो जाए कि कांग्रेस ही स्थाई सरकार दे सकती है। 77 से 99 के बीच आठ चुनाव हुए। कांग्रेस के स्थायी सरकार के दावे के दर्प को तोड़ने वाले शिल्पकार अटल बिहारी वाजपेयी ही थे, जिनके नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बना।

वाजपेयी जी चुनावपूर्व और चुनाव बाद के गठबंधनों में बुनियादी फर्क मानते थे। चुनाव के पहले का गठबंधन ही वास्तविक राजनीतिक समूह होता है जिसे जनता उसके सिद्धांतों के आधार पर वोट देती है। चुनाव बाद के गठबंधन महज सत्ता की छीना झपटी के लिए होते हैं। वाजपेयी जी ने इसकी भी पहल की थी कि चुनाव पूर्व गठबंधन को दलबल कानून में एक राजनीतिक समूह माना जाना चाहिए। यदि ऐसा हो तो राजनीतिक स्थिरता गठबंधन युग में भी सुनिश्चित की जा सकती है।

वाजपेयी जी की इस टीस के पीछे 1999 के बजट सत्र में जयललिता द्वारा समर्थन वापस लेने और महज एक वोट से सदन में पराजित होने की वजह से गया। एक वोट जुटाना आज की राजनीति में कोई मुश्किल काम नहीं जहां जनप्रतिनिधि गले में अपने रेट की तख्ती टँगाए घूमते हों। अटलजी संसदीय राजनीति की सुचिता के चरमोत्कर्ष थे। यद्दपि इस एक वोट का पाप भी कांग्रेस के खाते में गया क्योंकि यह एक वोट उड़ीसा में मुख्यमंत्री का पदभार ग्रहण कर चुके गिरधर गमांग का था जिन्होंने लोकसभा से इस्तीफा नहीं दिया था। लोकसभा में एक सांसद मुख्यमंत्री के वोट से 13 महीने में ही वह सरकार गिर गई जिसने विदेशी दबाव और दुनिया की महाशक्तियों की परवाह किए बगैर देश को परमाणु शक्ति संपन्न बना दिया। जिसने देश को स्वाभिमान के साथ जीना सिखा दिया।

छोटे दलों के प्रति हिकारत ने ही 1999 में काँग्रेस सरकार बनने से रोक लिया यदि मुलायम सिंह को उनकी मंशा के अनुरूप सत्ता में हिस्सा और महत्व मिल गया होता तो इतिहास ही दूसरा होता। बहरहाल फिर चुनाव हुए और इस बार जीत अटल के गठबंधन धर्म की हुई। अटल जी लिखते हैं- ” चौबीस दलों के राजग ने इसलिए अनेक सफलताएं हासिल कीं; क्योंकि हमने सहयोग और परस्पर विश्वास से काम किया। गठबंधन की राजनीति का भी एक धर्म है और हमने उस धर्म का पालन किया।”

गठबंधन आज युग का यथार्थ है। काँग्रेस ने भी इसे स्वीकार किया है तभी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की दो पारिया सफल हो पाईं। वाजपेयी सिर्फ़ भाजपा भर के ही नहीं समग्र भारतीय राजनीति के कुशल भाष्यकार थे। उनकी राजनीतिक प्रतिस्थापनाएं स्वस्थ लोकतंत्र और संसदीय राजनीति का पथ प्रदर्शन करती रहेंगी।