हम किस ‘सीमा’ तक चीनी नाराज़गी की परवाह करना चाहते हैं ?

Akanksha
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Shravan Garg

श्रवण गर्ग

प्रधानमंत्री ने इस वर्ष चीन के राष्ट्रपति जिन पिंग को उनके जन्म दिवस पर शुभकामना का संदेश नहीं भेजा। भेजना भी नहीं चाहिए था। जिन पिंग ने भी कोई उम्मीद नहीं रखी होगी। देश की जनता ने भी इस सब को लेकर कोई ध्यान नहीं दिया। कूटनीतिक क्षेत्रों ने ध्यान दिया होगा तो भी इस तरह की चीज़ों की सार्वजनिक रूप से चर्चा नहीं की जाती। सोशल मीडिया पर ज़रूर विषय के जानकार लोगों ने कुछ ट्वीट्स अवश्य किए पर वे भी जल्द ही शब्दों की भीड़ में गुम हो गए। ऐसे ट्वीट्स पर न तो ‘लाइक्स’ मिलती हैं और न ही वे री-ट्वीट होते हैं। उल्लेख करना ज़रूरी है कि चीन के राष्ट्रपति का जन्मदिन पंद्रह जून को था। यह दिन प्रत्येक भारतवासी के लिए इसलिए महत्वपूर्ण हो गया है कि इसी रात चीनी सैनिकों के साथ पूर्वी लद्दाख़ की गलवान घाटी में हुई हिंसक झड़प में हमारे बीस बहादुर सैनिकों ने अपनी कुर्बानी दी थी। चीनी सैनिक शायद अपने राष्ट्रपति को उनके जन्मदिन पर इसी तरह का कोई रक्त रंजित उपहार देना चाह रहे होंगे। भारतीय परम्पराओं में तो सूर्यास्त के बाद युद्ध में भी हथियार नहीं उठाए जाते। चूँकि सीमा पर चीनी सैनिकों की हरकतें पाँच मई से ही प्रारम्भ हो गईं थीं, प्रधानमंत्री की आशंका में व्याप्त रहा होगा कि हिंसक झड़प जैसी उनकी कोई हरकत किसी भी दिन हो सकती है पर इसके लिए रात भी पंद्रह जून की चुनी गई।

चीनी राष्ट्रपति को जन्मदिन की शुभकामनाएँ ना भेजे जाने पर तो संतोष व्यक्त किया जा सकता है पर आश्चर्य इस बात पर हो सकता है कि प्रधानमंत्री ने तिब्बतियों के धार्मिक गुरु दलाई लामा को भी उनके जन्म दिवस पर कोई शुभकामना संदेश प्रेषित नहीं किया। पंद्रह जून को लद्दाख़ में हुई झड़प की परिणति छह जुलाई को ही इस घोषणा के साथ हुई कि चीन अपनी वर्तमान स्थिति से पीछे हटने को राज़ी हो गया है। इसे संयोग माना जा सकता है कि इसी दिन दलाई लामा हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला स्थित अपनी निर्वासित सरकार के मुख्यालय में अपना 85वाँ जन्मदिन मना रहे थे। सर्वविदित है कि चीन दलाई लामा की किसी भी तरह की सत्ता या उसे मान्यता दिए जाने का विरोध करता है।

चीन का यह विरोध पचास के दशक में उस समय से चल रहा है जब उसके सैनिकों ने तिब्बत में वहाँ के मूल नागरिकों (तिब्बतियों ) द्वारा की गई अहिंसक बग़ावत को बलपूर्वक कुचल दिया था और 1959 में सीमा पार करके दलाई लामा ने भारत में शरण ले ली थी। दलाई लामा तब 23 वर्ष के थे। जवाहर लाल नेहरू ने न सिर्फ़ दलाई लामा और उनके सहयोगियों को भारत में शरण दी धर्मशाला में उन्हें तिब्बतियों की निर्वासित सरकार बनाने की स्वीकृति भी प्रदान कर दी। देश में इस समय कोई अस्सी हज़ार तिब्बती शरणार्थी बताए जाते हैं। तिब्बत में चीनी आधिपत्य के ख़िलाफ़ अहिंसक विद्रोह का नेतृत्व करने के सम्मान स्वरूप दलाई लामा को 1989 में नोबेल शांति पुरस्कार से नवाज़ा गया था।

सवाल केवल इतना भर नहीं है कि प्रधानमंत्री ने दलाई लामा को उनके जन्मदिन पर शुभकामनाएँ प्रेषित नहीं कि जबकि पिछले वर्ष बौद्ध धार्मिक गुरु को उन्होंने फ़ोन करके ऐसा किया था। तो क्या पंद्रह जून को पूर्वी लद्दाख़ में हुई चीनी हरकत के बावजूद हम इतने दिन बाद छह जुलाई को भी दलाई लामा को बधाई प्रेषित करके चीन को अपनी नाराज़गी दिखाने के किसी अवसर से बचना चाहते थे ?
अगर ऐसा कुछ नहीं है तो इतने भर से भी संतोष प्राप्त किया जा सकता है कि केंद्रीय राज्य मंत्री और अरुणाचल से सांसद किरण रिजिजु द्वारा दलाई लामा को बधाई प्रेषित करके एक औपचारिकता का निर्वाह कर लिया गया। रिजिजु स्वयं भी बौद्ध हैं। पर वर्तमान परिस्थितियों में तो इतना भर निश्चित ही पर्याप्त नहीं कहा जा सकता।

सवाल किया जा सकता है कि चीन के मामले में इतना सामरिक आत्म-नियंत्रण और असीमित कूटनीतिक संकोच पाले जाने की कोई तो चिन्हित-अचिन्हित सीमाएँ होंगी ही। चीन के संदर्भ में हमारी जो कूटनीतिक स्थिति दलाई लामा और उनकी धर्मशाला स्थित निर्वासित सरकार को लेकर है, वही बीजिंग के एक और विरोधी देश ताइवान को लेकर भी है। ऐसी स्थिति पाकिस्तान या किसी अन्य पड़ौसी सीमावर्ती देश को लेकर नहीं है। दो वर्ष पूर्व जब दलाई लामा के भारत में निर्वसन के साठ साल पूरे होने पर उनके अनुयायियों ने नई दिल्ली में दो बड़े आयोजनों की घोषणा की थी तो केंद्र और राज्यों के वरिष्ठ पार्टी नेताओं को उनमें भाग न लेने की सलाह दी गई थी।तिब्बतियों की केंद्रीय इकाई ने बाद में दोनों आयोजन ही रद्द कर दिए थे।उसी साल केंद्र ने दलाई लामा और उनकी निर्वासित सरकार के साथ सभी आधिकारिक सम्बन्धों को भी स्थगित कर दिया था।

किसी जमाने में तिब्बत को हम अखंड भारत का ही एक हिस्सा मानते थे (या आज भी मानते हैं) तो वह आख़िर कौन सा तिब्बत है ? क्या वह दलाई लामा वाला तिब्बत नहीं है ? वर्तमान दलाई लामा अपनी उम्र (85 वर्ष) के ढलान पर हैं। हो सकता है कि चीन आगे चलकर अपना ही कोई बौद्ध धर्मगुरु उनके स्थान पर नियुक्त कर दे या फिर वर्तमान दलाई लामा ही अपना कोई उत्तराधिकारी नियुक्त कर दें । ऐसी परिस्थिति में हमारी नीति क्या रहेगी ? क्या गलवान घाटी की घटना के बाद दलाई लामा के जन्मदिन के रूप में हमें एक ऐसा अवसर प्राप्त नहीं हुआ था, जब हम चीन के प्रति अपनी नाराज़गी का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शन कर सकते थे ?अमेरिका जिसके कि साथ हम इस समय चीन को लेकर सबसे ज़्यादा सम्पर्क में हैं उसने तो दलाई लामा को आधिकारिक तौर पर उनके जन्मदिन की बधाई दी है। हमने ही इस अवसर को चूकने का फ़ैसला क्यों किया ?