आखिर कब तक

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कविता

आखिर कब तक गिद्धों से
मैं अपना वर्चस्व बचाऊंगी,
आखिर कब तक सीता की तरह
अग्नि परीक्षा देती जाऊंगी।

क्या इतने युगों के तप मेरे,
अकारण ही सब व्यर्थ हुए
सतयुग से कलयुग का ये सफ़र
यूं पलभर में ही भ्रष्ट हुए।

जानती जो नारी त्रेता की,
तप के उसका कोई मोल नहीं
जी लेती वो भी अपना जीवन,
बिना किसी गठजोड़ के ही।

महिला दिवस पे नारी का,
कोरा दिखावा करते हैं
नवरात्रि में देवी बना कर,
वर्चुअल अब्यूज भी करते हैं।

हो आज की या सतयुग की,
नारी कभी ना हारी है,
नेता हो या असुर कोई
सब की अकड़ उतारी है।

पर इन गिद्धों के हमले से,
मैं आखिर में आज हार गई,
अपना वजूद बचाते हुए
सर्वस्व तुम पे यूं वार गई।

तुम समाज के उद्धारक बन,
मन्द मन्द मुस्कुराते रहे,
जीत मानकर इसको अपनी
हार का फंदा मुझे डालते रहे।

बस एक बात ये गौर करना,
घर को अपने जब जाओगे
मां, पत्नी या बेटी से फिर,
कैसे नज़रें मिला तुम पाओगे।

कवियित्री: सुरभि नोगजा, भोपाल