टाई एंड डाई

Mohit
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आज के दैनिक भास्कर में एक ‘तथ्य’ छपा, ‘न्यायमित्र गुप्ता ने कहा, गरीब अपने परिजनों का अंतिम संस्कार कर सकें, इस पर भी सरकार को कुछ करना चाहिए। इस पर जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, एक न्यूज रिपोर्ट में दिखाया गया कि नदी में शव फेंका जा रहा है। मुझे नहीं पता कि चैनल के खिलाफ अब देशद्रोह का केस दर्ज हुआ या नहीं।’

अखबार में जैसा छपा है, जस-का-तस यहाँ दर्ज किया गया है। यह एक तथ्य है, जिसे पढ़कर क्या समझ आता है, क्या ये कि जस्टिस चंद्रचूड़ सरकार से पूछ रहे हैं, या ये कि वे सरकार पर तंज कर रहे हैं या फिर ये कि वे सरकार को आदेश दे रहे हैं? ये निर्भर करता है कि आप इसे कैसे लेते हैं। यदि अखबार इसका विश्लेषण छापता तब आप की राय वैसी होती, जैसा अखबार का विश्लेषण होता।

टाई एंड डाई एक कला है, कपड़ों को रंगने की। जिन लोगों ने कभी इसे किया हो तो वे जानते हैं कि इसमें कपड़ा, रंग और धागे की मदद से कपड़े को अलग-अलग डिजाइन में रंगा जाता है। यदि आपने कपड़े को कोने से पकड़कर धागे से बाँधा है तो डिजाइन अलग होगी, यदि कपड़े को बीच में से पकड़कर धागा बाँधे हैं तो अलग, दोनों विपरीत कोनों को साथ मिलाकर बाँधा होगा तो अलग होगी, दोनों समानांतर कोनों को पकड़कर बाँधा तो अलग।

कहने का मतलब है कि इन्हीं तीन चीजों से आप अलग-अलग डिजाइन बना सकते हैं। ठीक यही बात आप तथ्यों के लिए कह सकते हैं। लेकिन ये ज्ञान पहले नहीं था। कई सालों तक इस खुशफहमी में रहे कि तथ्यों को कैसे बदला जा सकता है? बात सही भी थी तथ्यों को तो नहीं बदला जा सकता है। इस सिलसिले में जब इतिहास-लेखन का विवाद पहली बार पढ़ा तो लगा कि यह विवाद ही बेमानी है। जो हुआ, वह तो हुआ ही था न… अब इसमें वामपंथी इतिहासकार औऱ दक्षिणपंथी इतिहासकार क्या अलग-अलग कर देंगे।

कल एक पोस्ट पढ़ रही थी गाँधी पर आम्बेडकर की टिप्पणी को लेकर। आम्बेडकर गाँधी से नाराज थे औऱ उनका गाँधी के महात्मा होने में कतई यकीन नहीं था। उस पोस्ट में आम्बेडकर के हवाले से बताया था कि गाँधी ने वर्ण-व्यवस्था का समर्थन किया था। यह एक तथ्य है, जिससे कोई इंकार नहीं कर सकता है। इसी तरह आज सुबह चली बातचीत में राजेश ने पूछा कि जब देश में स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था, तब बाबा साहेब कहाँ थे, क्या कर रहे थे?

जाहिर सी बात है कि आम्बेडकर ने खुद को इस लड़ाई से अलग रखा था। वजह उनकी यह आशंका कि अंग्रेजों के रहते जातिगत भेदभाव से मुक्ति पाई जा सकती है। जैसे ही अंग्रेज गए हम फिर से उसी भेदभावपूर्ण इतिहास में लौट जाएँगे। यह एक अलग तथ्य है। गाँधी का वर्ण व्यवस्था पर यकीन औऱ आम्बेडकर का आजादी की लड़ाई में अनास्था दोनों ही तथ्य है। आप चाहें तो इन्हें दोनों के खिलाफ इस्तेमाल कर सकते हैं।

पत्रकारिता के शुरुआती दिनों में एक मजेदार शब्द सुना था। सुना तो पहले भी था, लेकिन इस तरह से अर्थ समझ नहीं आया था, शब्द था, एंगल…। एक सीनियर रिपोर्टर दूसरी सीनियर रिपोर्टर से कह रहे थे, खबर में से एंगल निकालना ही तो रिपोर्टिंग है।

नई-नई थी तो समझ नहीं आ रहा था कि खबर में से एंगल कैसे निकाला जाता है? अब तक तो यही समझा था कि खबर का मतलब कौन, कहाँ, कब, कैसे और क्यों जानना ही है। ये एंगल का क्या एंगल है समझ नहीं आ रहा था।

बचपन में जब ताऊजी कहा करते थे कि ये अखबार तो कांग्रेसी है तो समझ नहीं आता था कि ताऊजी को कैसे पता कि यह अखबार कांग्रेसी है। आखिर तो वे अपने शहर से पूरे जीवन में गिनती के दस बार से ज्यादा बाहर नहीं गए हैं, लेकिन वे पूरे विश्वास से यह कैसे कह लेते हैं।

पत्रकारिता में आते ही इस सवाल का जवाब मिलने लगा। धीरे-धीरे तथ्य और एंगल के रिलेशन भी समझ आने लगे। जब यह समझ आने लगा तो पहली बार तथ्यों और तथ्यात्मकता की अवधारणा पर शक होने लगा औऱ उसकी परिणति तथ्यात्मकता से अविश्वास होने में हुई।

इसी क्षेत्र में रहते यह जाना कि टाइ एंड डाय के कपड़े की तरह आप तथ्य को अलग-अलग एंगल से उठाकर अलग-अलग निष्कर्ष निकाल सकते हैं। एक ही तथ्य को संदर्भ से काटकर, नए औऱ अलग संदर्भ से जोड़कर, आगे-पीछे की घटनाओं को निकालकर या फिर कोई नया एंगल निकालकर पेश कर सकते हैं और आपकी राय को प्रभावित किया जा सकता है।

कॉलेज के दिनों में हमारी एक प्रोफेसर ने कहा था कि सोशल साइंस में कुछ भी निश्चित नहीं है। यदि आपके पास तर्क है तो आप किसी भी चीज पर सवाल उठा सकते हैं औऱ उसे अपने तर्कों से गलत भी सिद्ध कर सकते हैं औऱ सही भी। उदाहरण के तौर पर निःशस्त्रीकरण… विद्वानों का एक वर्ग ऐसा भी है जो इसे गलत मानता है, औऱ उनके तर्क भी गलत नहीं हैं।

कहने का मतलब इतना ही है कि तथ्यों को जैसे चाहे वैसे इस्तेमाल किया जा सकता है और उससे अपने मनपसंद निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। यदि आप सिर्फ तथ्यों के भरोसे अपनी राय बना रहे हैं तो सावधान हो जाइए, आप राय नहीं बना रहे हैं, आपको उस खास दिशा में राय बनाने के लिए मजबूर किया जा रहा है।

इसीलिए कई साल हुए तथ्यों के झाँसे से मुक्ति पा ली है। और आँकड़ों से मुक्ति तो बैंजामिन डिजराइली ने पढ़ाई के शुरुआती सालों में ही यह कहकर दिला दी थी कि (दुनिया में तीन तरह के झूठ होते हैं – झूठ, सफेद झूठ और सांख्यिकी)

डॉ. अमिता नीरव