दिग्विजय सिंह
भारत में कृषि सुधार के नाम पर केन्द्र सरकार द्वारा लाए गए तीन अध्यादेशों का पूरे देश में विरोध हो रहा है। किसानों का कहना है कि पहले अध्यादेश में कृषि उपज मंडियों के बंद होने से किसानों का शोषण शुरू हो जाएगा। दूसरे अध्यादेश में गेहूँ, चावल, दलहन और आलू, प्याज के भंडारण की छूट देने से कालाबाज़ारी शुरू हो जाएगी। अंततः मध्यम और निम्न वर्ग जमाखोरी के कारण मूल्य वृद्धि का शिकार बनेगा। तीसरे अध्यादेश में अनुबंधित कृषि का प्रावधान है। ऐसा होने पर छोटे किसान अपने ही खेतों में मजदूर बनकर रह जाएंगे।
मोदी सरकार द्वारा सुधार के नाम पर लाए जा रहे ये तीनों अध्यादेश वास्तव में किसान, छोटे व मध्यम व्यापारी और उपभोक्ताओं के हितों के विपरीत हैं। हर राज्य के किसान संगठन, व्यापारी संघ और कर्मचारी यूनियन इन अध्यादेशों को काला कानून बता रहे हैं। किसानों का कहना है कि उचित मूल्य और बेहतर बाजार के नाम पर केन्द्र सरकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में किसानों की किस्मत सौंपने जा रही है। जो किसानों का पोषण नहीं बल्कि शोषण करेंगे। मैं भी इस आशंका से सहमत हूँ।
जब देश में लाॅकडाउन था और करोड़ों लोग कोरोना की दहशत में थे तब किसानों का भला करने की जगह बड़ी-बड़ी कम्पनियों का भला करने के लिये “कोरोना के संकट काल में“ केन्द्र सरकार ने हमेशा की तरह अध्यादेश का सहारा लिया और बिना किसानों से संवाद और संसद में चर्चा कराए किसानों पर काला कानून लागू कर दिया। राज्य सरकार के संवैधानिक अधिकार की भी अनदेखी की है।
इस तरह प्रधानमंत्री मोदी ने आम जनता की “आपदा” में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए “अवसर” ढूँढ लिया!
हमारे देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का महत्वपूर्ण योगदान है। देश के दस करोड़ से अधिक किसानों ने अपनी मेहनत से हरित क्रांति के सहारे देश को खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाया है। आज़ादी के बाद से कांग्रेस के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकारों ने महत्वपूर्ण निर्णय लेते हुए कृषि विकास में अनेक दूरगामी निर्णय लिए थे, जो उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हासिल करने में सहायक रहीं। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने जमाखोरी और कालाबाजारी पर कड़ा प्रहार करते हुए आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 बनाया ताकि बाजार में जीवन उपयोगी वस्तुओं की कीमतों पर नियंत्रण रखा जा सके।
खाद्यान्न की कमी से जूझते देश में पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने कृषि लागत और मूल्य आयोग (Commission for Agriculture Costs and Prices) गठित किया जिसकी अनुशंसाओं पर किसानों को उनकी लागत के अनुरूप न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) दिए जाने के प्रावधान किए गए।
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत की परम्परागत खेती को अनेक कृषि अनुसंधान केन्द्र, कृषि विश्वविद्यालय प्रारंभ कर हरित क्रांति में बदल दिया। इंदिरा ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर किसानों के लिए बैंकों के दरवाजे खोल दिए। सिर्फ तीन दशक में किसानों ने शासकीय सुविधाओं के सहारे खाद्यान्न उत्पादन में देश को आत्मनिर्भर बना दिया था।
70 के दशक में किसानों को व्यापारियों के शोषण से बचाने के लिए कृषि उपज मंडी अधिनियम विभिन्न प्रदेशों में लागू किए गए। इस कानून के तहत किसानों के लिए मंडी समितियां स्थापित की गईं। मंडी कानून ने किसानों को संरक्षण देते हुए उन्हें अपनी फसल के उचित दाम दिलाने का मार्ग प्रशस्त किया। मंडी अधिनियम में किसानों के प्रतिनिधि मंडी समिति के अध्यक्ष होते हैं और निर्वाचित संचालकों में किसानों के वोटों की सीधी भागीदारी होती है। व्यापारियों और हम्मालों के प्रतिनिधि भी बोर्ड में शामिल किए गए। इन सभी को मिलकर हर समस्या का समाधान निकालने के लिए कानूनी तौर पर अधिकार सम्पन्न किया गया है। मध्यप्रदेश में यह कानून 1973 से लागू हो गया था।
कृषि उपज मंडी अधिनियम (APMC) को अब इस अध्यादेश के माध्यम से नगण्य किया जा रहा है, जबकि हमारे देश के संविधान में कृषि को संविधान के अनुच्छेद 123 (3) में वर्णित 7वीं अनुसूची में राज्य के अधिकार क्षेत्र में रखा गया है।
पिछले 50 सालों में कृषि उपज मंडियां किसानों की आशाओं का केन्द्र बन गई हैं, जहाँ केन्द्र सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बोली लगाकर फसलों की बिक्री होती है। वाजिब दाम मिलने पर ही किसान अपनी फसल व्यापारी को बेचता है। व्यापारी उसी दिन भुगतान भी करता है। विलंब होने पर व्यापारी किसान को एक प्रतिशत की दर से 5 दिनों तक ब्याज देता था और 5 दिन से ज्यादा देरी होने पर उसके बाद 5% ब्याज की दर से भुगतान किया जाता है।
नाबार्ड की रिपोर्ट बताती है कि देश में दस करोड़ से अधिक किसान है, जिनमें से आधे से अधिक कर्ज में डूबे हैं। ऐसे में अब नए अध्यादेश से शासकीय कृषि उपज मंडियों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा और व्यापारी भी अनियंत्रित हो जाएंगे। निजी मंडियां खुल जाएंगी और किसान दर-दर भटकता फिरेगा। किसानों का आरोप है कि आटा, मैदा सहित अन्य उत्पाद बनाने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियां मनमानी कीमतों पर किसानों को फसल बेचने मजबूर करेंगी। परिणामस्वरूप देशभर में कंपनियों का कॉकस तैयार हो जायेगा।
फसल खरीदी में व्यापारी द्वारा धोखा देने पर किसान की सुनवाई मंडी में नहीं होगी बल्कि एस.डी.एम. और कलेक्टर के यहां होगी। कलेक्टर के आदेश की अपील केंद्र सरकार के संयुक्त सचिव के पास होगी और उनके आदेश की अपील केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त अधिकारी के पास होगी। यानि कि जो विवाद प्रदेश में निपट जाता था अब वह दिल्ली में निपटेगा।
इतना ही नहीं इस अध्यादेश ने किसानों के अदालत में जाने का रास्ता भी बंद कर दिया गया है।
वर्तमान समय में मंडी में किसान को उचित दाम, उचित तुलवाई, समय पर भुगतान सहित अनेक सुविधाएँ दी जा रही हैं। इन सुविधाओं के बीच राज्य शासन को मंडी टैक्स के रूप में हजारों करोड़ रुपए का राजस्व भी मिल रहा था जिसमें ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कें बन रही थीं और किसानों को मंडी में रहने, ठहरने की सुविधा मिल रही थीं। अब निजी मंडी बनने से यह राशि भी नगण्य हो जाएगी। कर्मचारियों का वेतन नहीं बंट पाएगा।
किसानों को आशंका सही ही प्रतीत होती है कि इन अध्यादेशों के माध्यम से केन्द्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से छुटकारा पाना चाह रही है, ताकि किसान सरकार से उचित मूल्य की बात ना कर सकें। भाजपा की केन्द्र सरकार इसी बहाने कृषि उपज सहित किसानों की आमदनी दोगुनी करने के वचन से भी बचना चाह रही है। आगे चलकर सरकार समर्थन मूल्य पर खरीदी भी बंद करेगी और बड़ी कम्पनियों से सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिये सीधे खाद्यान खरीदेगी और इस तरह बड़े-बड़े व्यापारी और कम्पनियां किसानों के चारों तरफ अपना जाल बिछा लेंगी।
एक अन्य अध्यादेश में सरकार बड़े-बड़े कार्पोरेट घरानों के लिये ”कांट्रेक्ट फार्मिंग“ का कानून ला रही है। इस कानून में कम्पनियां किसानों से अनुबंध कर उनकी जमीन पर खेती कराएंगी इस तरह छोटे-छोटे किसान अनुबंध के मायाजाल में फंसकर अपने ही खेतों में मजदूर बन जायेंगे। गुजरात, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में इस तरह की खेती के अनुभव कड़वे रहे हैं। अनुबंध के नाम पर किसानों का शोषण किया गया है। गुजरात में तो कंपनियों ने अनुबंध के नाम पर किसानों पर केस दर्ज करवा दिए थे।
केन्द्र सरकार ने अपने तीसरे अध्यादेश में अत्यावश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में संशोधन कर गेहूँ, चावल, दलहन, और आलू, प्याज के मनमाने भंडारण की छूट दे दी है। अभी तक इन आवश्यक चीजों की कालाबाज़ारी रोकने के लिये भंडारण की सीमा तय थी। अब सरकार ने राष्ट्रीय आपदा की स्थिति तथा दोगुनी कीमत न होने तक मनमर्ज़ी से स्टाॅक रखने का नियम बना दिया है। यह अध्यादेश भी किसानों और आम उपभोक्ताओं की जगह बड़े व्यापारियों का भला करेगा तथा कालाबाजारी और जमाखोरी को बढ़ावा मिलेगा।
पहले किसान भंडारण कर सकता था, अब कंपनियों को छूट दे दी गई है। इस फैसले से किसानों में आक्रोश है। भविष्य में यह अध्यादेश अत्यावश्यक वस्तु जैसे गेहूँ, चावल, दलहन, आलू, प्याज की किल्लत का कारण बनेगा। निम्न और मध्यमवर्गीय परिवार महंगी वस्तुएं खरीदने को विवश होंगे। जमाख़ोरों और कालाबजारियों को खुली छूट मिल जाएगी।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि एक दशक पहले प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यू.पी.ए. सरकार ने देश के ऋण-ग्रस्त किसानों का 72 हजार करोड़ रुपए का कर्ज माफ कर किसानों पर मंदी की मार नहीं पड़ने दी थी। मध्यप्रदेश में 2018 में आयी कांग्रेस सरकार ने भी 20 लाख से अधिक लघु और सीमांत किसानों का कर्जा माफ किया था। लेकिन बीजेपी के सत्ता हथियाते ही वह ना सिर्फ़ बंद हो गया, बल्कि उसके कुछ नेता तो इसे पाप तक कहने लगे। आज देश के करोड़ों किसान केन्द्र सरकार से उचित समर्थन मूल्य, उन्नत बीज, सिंचाई सुविधाएं, अनुदान के साथ कृषि उपकरण, खाद्य और कम दर पर बिजली और डीजल की मांग कर रहे हैं। यह सब देने की जगह केन्द्र सरकार बिना आम सहमति बनाए, इस काले कानून रूपी तीन अध्यादेशों को लाकर किसानों की कमर तोड़ने पर आमादा है। जिसमें किसान की जगह कंपनियां आत्मनिर्भर बनेंगी और किसानों की उन बड़ी कंपनियों पर निर्भरता बढ़ती जाएगी।
आज इन अध्यादेशों को लेकर पूरे देश में ग्रामीण इलाक़ों और मंडियों में किसानों और मंडी कर्मचारियों का विरोध प्रदर्शन चल रहा है। मंडियाँ बंद होने से किसानों की उपज भी नहीं बिक पा रही है। कोरोना काल में जब सभी उद्योग धंधे बंद हैं तब कृषि अर्थव्यस्था को सँभालने का काम कर सकती थी, लेकिन दुर्भाग्यवश इसे भी बर्बाद करने की कोशिश की जा रही है। इसलिए इन तीनों अध्यादेशों का विरोध होना चाहिए।