यह जीत भाजपा के लिए सबक, तो विपक्ष के लिए अवसर भी है

Suruchi
Published on:

कीर्ति राणा

कर्नाटक के परिणाम उन सबके लिए चौंकाने वाले हैं, जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की रिपोर्ट को ही अंतिम सत्य मान रहे थे। भक्तों के लिए भी यह झटका है कि कंधे पर बैठाकर प्रधानमंत्री हर सभा मंच पर जिन बजरंगबली का जयकारा लगवा रहे थे, उन्हें तो मुहब्बत की दुकान पसंद आ गई। कर्नाटक चुनाव में नफरत की दुकानें कहीं हिजाब, तो कहीं हलाल और कहीं बजरंगबली के नाम पर धड़ाधड़ खुल गई थीं, लेकिन परिणाम जो आए… उसका संदेश यही आया है कि यहां के मतदाताओं ने स्थानीय मुद्दों पर बात करने वालों पर अधिक भरोसा किया है और शायद भाजपा के रणनीतिकार आमजन के ‘मन की बात’ समझ पाने में असफल साबित हुए हैं।

रही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बात तो उसे कर्नाटक के परिणाम से कटी अपनी नाक का दर्द भुलाने के लिए उत्तरप्रदेश में निकाय चुनाव के परिणाम वाला झुनझुना हाथ लग गया था। कर्नाटक में मिली अपार सफलता ने बूढ़ी कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे को अपने गृह राज्य में मिली अपार सफलता से जवान बना दिया है। कांग्रेस के लिए तो यहां मिली ऐतिहासिक जीत का श्रेय खरगे से अधिक राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा को भी जाता है। इस परिणाम ने भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा को अपने गृह राज्य हिमाचल प्रदेश के बाद एक राज्य और हारने का दंश दे दिया है। इस राज्य में भाजपा को फिर से सत्ता में लाने के लिए बजरंग बली को कंधे पर बैठाकर खूब रोड-शो किए प्रधानमंत्री ने, लेकिन उनका आशीर्वाद कांग्रेस को मिल गया।

सबक तो कांग्रेस को भी लेना चाहिए, बजरंग दल पर बेन लगाने की घोषित जिद को अमलीजामा पहनाने की अपेक्षा वह कर्नाटक ही नहीं अपने दल वाली राज्य सरकारों में भी कानून व्यवस्था में इतनी सख्ती लाए कि लव जिहाद से लेकर बेवजह अल्पसंख्यकों के लिए तनाव के हालात पैदा करने वाले संगठनों को सिर उठाने का मौका नहीं मिले। ‘द केरला स्टोरी’ का कर्नाटक चुनाव में भाजपा को फायदा नहीं मिला… यह मानकर खुश होने वाले नेताओं को इस सच से यह कहकर आंखें नहीं चुराना चाहिए कि फिल्म में सच कुछ नहीं है। कर्नाटक की जनता ने अपने स्थानीय मुद्दों को नहीं छोड़ा… यह उसकी समझदारी है, लेकिन धार्मिक कट्टरता और नफरत भड़काने वाले व्यक्तियों, संगठन… फिर वो किसी भी समाज के हों, उन्हें सख्ती से दबाने का काम चुनी हुई सरकारों को ही करना है।

कर्नाटक के चुनाव परिणाम का संदेश यह भी है कि यदि यहां हिजाब और हलाल वाली उकसाने की राजनीति को नकारा गया है तो बजरंग बली को बेमतलब चुनाव में घसीटना भी लोगों ने पसंद नहीं किया है। कर्नाटक के इस नतीजे से यह मान लेना भी भूल होगी कि भाजपा की उलटी गिनती शुरू हो गई है। इस राज्य में ‘आॅपरेशन लोटस’ भाजपा ने ही चलाया था। भाजपा को आम मतदाताओं ने नकारा है, लेकिन पिछले डेढ़ दशक में पार्टी ने चाल-चरित्र और चेहरे की जो नई परिभाषा लिखी है, उसके मुताबिक भाजपा के विधायक भले ही कम जीते हैं, लेकिन जेडीएस को अपने साथ मिलाकर उसे कांग्रेस के 20-22 विधायकों पर ही तो अपना जादू चलाना है। जिस दिन वह ठान लेगी… इस अभियान को अंजाम देकर फिर से मेघालय की याद दिला सकती है।

अब जिन बाकी राज्यों में विधानसभा चुनाव होना हैं, उनमें राजस्थान में ज्योतिरादित्य सिंधिया के दोस्त सचिन पायलट कांग्रेस की जमीन खोखली करने में लंबे समय से इसलिए लगे हुए हैं कि कांग्रेस आलाकमान ने उनकी आवाज सुनना ही बंद कर दी है, यानि मप्र जैसी पटकथा के काफी अध्याय लिखे जा चुके हैं। राजस्थान में राजनीतिक भूचाल कभी भी उठ सकता है! आॅपरेशन लोटस वाले सारे मास्टर माइंड कर्नाटक की हार के सदमे में डूबे रहेंगे… यह सोचना कांग्रेस की भूल होगी। भाजपा न सिर्फ अपने कार्यकर्ताओं को काम में लगाए रखती है, उसके नेता भी 24 घंटे कांग्रेसमुक्त भारत का सपना पूरा करने और राजनीति के तालाब को लोटस वैली बनाने में भिड़े रहते हैं।

कर्नाटक में अपना काम पूरा करने के बाद ईडी सहित अन्य एजेंसियों ने छत्तीसगढ़ की तरफ रुख कर ही दिया है, 2 हजार करोड़ के शराब घोटाले की लपटें भूपेंद्र बघेल को कभी भी चपेट में ले सकती हैं। चुनाव परिणाम के बाद से एक जुमला खूब चल रहा है… भाजपा ने राहुल गांधी को संसद से, घर से बेदखल किया और राहुल ने भाजपा को कर्नाटक से ही बाहर कर दिया। कांग्रेस को मिली सफलता का मतलब भाजपा की उलटी गिनती शुरू होना मान लेना भी जल्दबाजी ही होगी, किंतु कर्नाटक में सारे हथकंडे फेल होने के बाद भाजपा विरोधी दलों में एकजुट होने की हिम्मत तो आएगी ही।

कांग्रेस कर्नाटक की जीत में इतनी भी बेगाफिल न हो जाए कि विपक्षी एकता के मंसूबों पर पानी फिर जाए। भाजपा को केंद्र में फिर से काबिज नहीं होने देने के लिए एकजुटता के प्रयास में जुटे विपक्षी दलों को यह भी समझना चाहिए कि आम मतदाता राज्यों में भले ही विपक्ष की सरकार को भरोसेमंद मानता हो, किंतु राष्ट्रीय स्तर पर भी उसकी सोच भाजपा को लेकर बदल ही जाएगी… यह इतना आसान नहीं होगा। कांग्रेस के साथ अन्य विपक्षी दल का कोई नेता अब तक उसका विश्वास नहीं जीता है। भारत जोड़ो यात्रा के पहले चरण की सफलता ने कर्नाटक में जीत दिलाने में मदद की है… इससे इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर डेढ़ दशक में उसकी जो हालत हुई है, वह भी सर्वज्ञात है। उसे अन्य दलों को भी मान-सम्मान देने के लिए अपना दिलोदिमाग बड़ा दिखाना ही होगा। अब यह देखना बाकी है कि इस हार से सबक लेकर भाजपा अपनी सरकार वाले राज्यों में क्या कसावट लाएगी?