1976 में प्रभु जोशी का लिखा यह उपन्यास पुनर्वसु की पहल पर 2018 में प्रकाशित हो पाया

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नान्या : उपन्यास
लेखक : प्रभु जोशी

उसके अनुसार इस कृति को अप्रकाशित छोड़ देना एक साहित्यिक अपराध होता। लिहाज़ा यह राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ। प्रभु जोशी ने इस उपन्यास को एक मासूम बच्चे “नान्या” की ओर से लिखा है। एक बच्चे के अंतर्मन में किस प्रकार की उमड़न-घुमड़न चलती रहती है। वह किस प्रकार से दुनिया का जान-समझ रहा है ? अपने आसपास की दुनिया को किस प्रकार देख रहा है, संबंधों का समझ रहा है ? “जिस रात नान्या का जनम हुआ उसके अगले दिन गोरा लोग रातम-म-रात देस छोड़ के भाग गए।” उसके दायजी सारेगाम (भोपाल) में सरकार की नौकरी करते हैं।

नानकी का जनम बहुत बाद में हुआ वो अपनी माँ के साथ भोपाल में रहती है। नान्या अपने बाबा-दादी के साथ मालवा के एक छोटे से गाँव में रहता है। दायजी उसे बहुत लाड़-प्यार से रखते हैं। दोनों की रोज की नोंक-झोक होती है दादी कहती – थारा बड़ा बा सुंदर-कांड का पाठ करे, और लंका-काण्ड खुद ई मचाता रै। बा, दादी के सामने कटा-छेणी करते पर उसकी पीठ पीछे तारीफ़ कि दादी का हाथ में कुंजी है। दादी पोंगा-पंडताई की जब-तब हँसी उड़ाती रहती। वह गाँव में रह कर भी अपनी सोच में नयी थी। दादा और पोते का रिश्ता बेमिसाल है। मज़ाल है, कोई नान्या के ऊपर हाथ उठा सकता।

नान्या का एकमात्र दोस्त बोंदू था. फिर एक दिन एक भूरिया (कुत्ता) भी उसका दोस्त बन गया और नान्या के साथ रहने लगा. भूरिया के दोस्त बनते ही नान्या को बहुत हिम्तत आ गयी। भूरिया के आने से नान्या को आवाज़ भी मिली। वो कड़क आवाज में डांटता, डपटता और दुलारता भी। नान्या भूरिया की नस-नस जानता है, भूरिया कब कब क्या-क्या करता है। बोंदू के साथ स्कूल में और स्कूल के बाद भी अपना समय बिताता। बाद में दोनों साथ-साथ डोलते फ़िरते। उसके हिसाब से तो उसके दोस्त के पास “ऐसा गंज ज्ञान है हौं, मूलक सार,वो, भोंदू बिलकुल नी है” ..हाँ, उसी ने बताया पीपल के नीचे मुत्ती करने से पाप लगता है. फीफी में फोड़ा हो जाता है। अड़कानी बाईराँ (माहवारी) के आने से क्या-क्या होता है ? बच्चा कैसे आता है ?

बंजारा बाग़ में सोना-चांदी गड़ा है और उन्हें वह सोना-चांदी खोदना है। और, खोदने का काम छुप-छुप कर करते रहें.. मोटर पेट्रोल पी कर चलती है यह भी बताया। दादी कहती – “नान्या, तन से हारी जाव, पे मन से कभी नी हारणों रे, छोरा..!” खजाना खोजने की जुगत थे में यही तो हुआ। भूख से लस्टम-पस्टम हो मरने लगे पर बंजारा बाग़ नहीं छोड़ा। उसी दिन ग्वारपाटा का रस पिला के बोंदू ने बकया तो नान्या ने सोचा, नान्या चाहता है कहीं से उसे अमर जड़ी मिल जाये और वो दादी और बड़े बा को पिला दे ताकि वो दुई कभी न मरें। वह जिन्दगी की वास्तविक किताब को गाँव में भलीभांति पढ़ रहा है …

ओलती से गिरते पानी में मस्ती करता है। पड़ते पानी में प्रेमा के साथ फुगड़ी खेलता है, बकरी का दूध बिना नागा पीता है क्योंकि बकरी के दूध पीने से फुर्ती आती है तभी बकरी का बच्चा बगटुक-बगटुक भागता है। फिर एक दिन आता है जब उसे सरेगाम आना होता है। राजा बेटा बनने। उसे दादी की यह बात बहुत भली और तर्कसंगत लगी –”अरे नान्या… अपनो गाम में घर है… माल में खेत है… कुण्डी में पाणी है, कोठी में नाज है, ग्वाडा में गाय है और हाथ में हरकत और बरकत है…और ऐसे में भी, कोई हाथ पैर हो जावे, तो चार-आठ लोग दौड़ी के अपना आंगन में अई के खड़े हो जाय-बता, फिर अपण, गाँव को कांकड़ छोड़ी के सरेगाम क्यों जाव !

दरअसल हमें उपनिवेश और ग़ुलाम बनाने के लिए हमारी भाषा, वूसा, और भोजन को टारगेट बनाया गया। इस बात को उपन्यास में बड़े सलीके से प्रकारान्तर से कहा गया है। मैं कभी मालवा के गाँव में नहीं गयी, वहाँ की बोली सुनने का अवसर भी नहीं मिला पर इसे पढ़ते हुए लगता यह गाँव रचा-बसा था कि लगता है कुछ खोया हुआ सा मिल गया। मालवी बोली न जानते हुए भी कहीं भी इसकी रवानगी में,कथा-रस में ख़लल नहीं पड़ता। और, यही इस उपन्यास का प्राणतत्व है. सर्वथा मौलिक भी है। सत्तर के दशक का बचपन और आज के बचपन को भी आप आमने -सामने रख सकते हैं। बच्चों के सामने अब सूचना का भण्डार है परवीन शाकीर कहती हैं – ‘जुगनू को हर वक़्त परखने की ज़िद करें /बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गए हैं।’

अब वे नान्या जैसे भोले तो हो नहीं सकते। सारेगाम आ कर माँ के कपड़ों में उसे दादी के कपड़ों वाली बास नहीं मिली। दादी के लत्ते कपड़ो में उसे कच्ची-हरी घास, ओस और जंगली फूलों-पौधों की, पत्तियों की, बीड और बाड़े की बास होती। माँ का पहनावा अलग हो चला, ये नानकी वो वाली नानकी नहीं रही। वह तरस जाता है, माँ उसे माथे की पाटी और एक कावा उसके गाल में चुम्मी दे दे। वह माँ के हाथ की रोटी जिमेगा — इस ख़्वाहिश का रोमांच काफूर हो जाता है जब माँ पूछती है तुझे कौन सी सब्जी पसंद है जबकि दादी को सब मालूम है। ”

उसे भटे भाते नी हैं। भिड़ी भुरालाकर देती है ..करेले काटते है.. गवारफल्ली देख के वो पिन्नाटे में आ जाता है और, कद्धू खाने से तो, ओके पेट से पददू निकलती है।” वह समझ नहीं पाता, माँ किताब की बोली में उससे क्यों बात करती है? वह नानकी के वास्ते ढेर सारे खिलौने लाता है पर उसकी खिलौने वाली पोटली खोलने की टोक बुरी लगी। एक खिलौने के रास्ते वह नानकी के करीब जा सकता था। उसका दिल टूट गया। उसे दायजी की बात चुभी उसे ये घर अपना नहीं लगा वो अपने गाँव लौटने की राह पकड़ता है ..
नान्या का टूटना बेहद त्रासद है।

प्रका. : राजकमल प्रकाशन
दरियागंज, नई दिल्ली
मूल्य : 150/-