यह साधु संतों की जमात नहीं है … 21वीं सदी की राजनीति है …

Share on:

कौशल किशोर चतुर्वेदी

जुलाई के महीने में मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के आसमान में काले बादल डेरा डाले थे, उनके आस पास ही भूरे बादल भी मंडरा रहे थे। मानसून अपने शबाब पर था, जब जी में आता तब भूरे बादल उमड़ घुमड़ कर तेज़ बारिश कर देते तो कभी काले डरावने बादल आसमान की तरफ़ निगाहें करने पर लोगों की जान सांसत में डाल देते।

कुछ यही हाल जुलाई के महीने में मंत्री पद की शपथ लेने वाले उन 28 मंत्रियों की भी थी जो विभागों का इंतज़ार करते करते ही पूरे सात दिन गुज़ार चुके थे।अब बात विभागों के बँटवारे से बहुत दूर जा चुकी थी और चर्चा का केंद्र इक्कीसवीं सदी की राजनीति हो चुकी थी। 20वीं सदी के पहले देवभूमि लंबे समय तक ग़ुलामी का दौर देख चुकी थी। बीसवीं सदी के पाँचवें दशक में आज़ादी का सूरज भारत के आसमान पर उम्मीद भरी किरणें लेकर आया था। राजतंत्र लोकतंत्र में तब्दील हो चुका था। पर 21 वीं सदी के 20 वें साल तक पहुँचते-पहुँचते दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र जिसकी लाठी उसकी भैंस की तर्ज़ पर राजनीतिक दलों की मुट्ठी में क़ैद नज़र आ रहा है।

मध्यप्रदेश में मंत्रियों के विभागों के बँटवारे पर खरी-खरी बात करने के लिए ख्यात पूर्व नेता प्रतिपक्ष कैबिनेट मंत्री गोपाल भार्गव का बयान 21वीं सदी की राजनीति पर कटाक्ष कर रहा है।विभागों के बंटवारे में देरी पर गोपाल भार्गव का कहना है कि कोई साधु संतों की जमात नहीं सबकी अपनी महत्वाकांक्षा है, इसलिए देरी हो रही है।

प्रदेश सरकार के सीनियर मंत्री गोपाल भार्गव का यह बेबाक बयान है। मंत्रिमंडल में विभागों के बंटवारे में उलझन पर उनका इशारा सिंधिया समर्थकों की तरफ था कि कोई साधु महात्मा की जमात नहीं है सब की महत्वाकांक्षा होती है।वह अपने दल के नेतृत्व से चर्चा कर चाहते हैं कि अच्छा विभाग मिले।इसी में विलंब हो रहा है।उनका कहना था कि विभाग का बंटवारा कब होगा इस प्रश्न का सही उत्तर हमारे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ही दे सकते हैं।

हालाँकि उत्तर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के पास भी नहीं है।जब वह दिल्ली रवाना हुए तो उनका कहना था कि दिल्ली से लौटने के बाद विभागों का बँटवारा कर दूँगा। जब दिल्ली से लौटे तो उनका कहना था कि एक दो दिन वर्कआउट करके विभागों का बँटवारा करूँगा।और अब एक बार फिर कैबिनेट का समय सुबह से शाम बदलकर शायद उन्होंने फिर कुछ घंटों की मोहलत ले ली है ताकि विभागों का बँटवारा ऐसा हो कि उपचुनावों तक स्थिति नियंत्रण में बनी रहे।

पर यह बात सौ फ़ीसदी सही है कि साधु संतों की जमात नहीं है राजनीति बल्कि अब काजल की कोठरी बन गई है। एक पुरानी कहावत है कि  “काजल की कोठरी में कैसो ही सयानो जाय एक लीक काजल की लागे है तो लागे है” अर्थात आप चाहे कितने ही दूध के धुले क्यों न हों, गलत जगह या गलत संगति में जायेंगे तो असर तो होगा ही…21वीं सदी की राजनीति का हाल शायद कुछ ऐसा ही हो गया है।विधायकों के रूप में लोकतंत्र कभी इस रिसॉर्ट में क़ैद होता है तो कभी उस रिसोर्ट में।वह भी कड़े पहरे में क़ैद होता है ताकि कोई परिंदा भी पर न मार सके। गुरुग्राम जयपुर भोपाल बेंगलुरु तो प्रतीक मात्र है शायद लोकतंत्र की अब 72 साल बाद यही नियति हो गई है।

और अब राजनीति के संत जैसा तमग़ा तो किसी बिरले को ही मिलता है जैसे मध्यप्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी को मिला है। भाजपा में पंडित दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे उँगलियों पर गिने जा सकने वाले कुछ नाम होंगे तो बाक़ी कार्यकर्ताओं की लंबी फ़ौज हो सकती है। तो कांग्रेस में स्वतंत्रता संघर्ष में तन, मन और धन की आहुति देने वाले उन नामों की लंबी सूची भी शामिल है जिन्होंने आज़ादी के बाद अपनी राह पकड़कर राजनीति की तरफ़ मुड़कर भी नहीं देखा होगा बल्कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी या समाजसेवी लेखक पत्रकार के बतौर ज़िंदगी गुज़ार दी होगी। बाक़ी लाल बहादुर शास्त्री सहित कई नाम राजनीति में भी संतत्व के पार की यात्रा में शुमार हैं और रहेंगे।

पर दुख की बात यह है 21 वीं सदी में अब राजनीति की राहें करवट बदल चुकी हैं। जो राजनीति में संत होने का दावा करते हैं उनकी हक़ीक़त दबी ज़ुबान में बयां करते चौराहों पर उनके क़रीबी मिल ही जाएँगे। तो गाँवों में खेतों की मेड़ों तक भी हवा ने कभी उनके राज उगले ही होंगे और संत होने के दावों की क़लई खोली ही होगी।

21 वीं सदी में तो वह साधु संत भी अब इस दावे से बचते नज़र आते हैं जो वास्तव में सांसारिकता से परे हैं। क्योंकि साधु-संतों की जमात में सेंध लगाकर काले कारनामों में लिप्त रहे नामों की लंबी फ़ेहरिस्त है जिनके फ़रेब, वासनाओं और अपराधों का कच्चा चिट्ठा हर चौक चौराहों पर चस्पाँ है। जो साधु संत राजनीति में कदम रखकर संतत्व की धारा बहाने का ध्येय लेकर आए थे, उनका दर्द या राजनीति की धारा में बदलाव की उनकी खुशी वह ही साझा कर सकते हैं। चाहे मंचों से या फिर अकेले में … पर करें यह बाध्यता भी नहीं है। इंसान कभी-कभी अपने अनुभवों के साथ इस लोक से परलोक की यात्रा का मन भी बना लेता है…तब भी अनुभवों के कुछ छींटे इधर-उधर छिटक ही जाते हैं जो दोस्त यारों के बीच वार्तालाप के ज़रिए ज़ुबानों की सैर करते रहते हैं।

खैर यह बात पुख़्ता है कि राजनीति में अब साधु-संतों की जमात नहीं है बल्कि राजनीति को महत्वाकांक्षा की पराकाष्ठा जकड़ चुकी है जो मर्यादा, नैतिकता जैसे बंधनों से मुक्त होकर खुले आसमान में पर लगाकर लोकतंत्र की नई परिभाषा गढ़ रही है।