यह चिर-पुरातन पहचान लेकर स्वाभिमान और शक्ति के साथ खड़ा ‘अपना’ भारत है – डॉ. मनमोहन वैद्य

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कोरोना महामारी से भारत की लड़ाई के बीच चीन द्वारा लद्दाख में किये अतिक्रमण और गलवान में हुए संघर्ष में सीमा की रक्षा करते 20 भारतीय जवान वीरगति को प्राप्त हुए. इस क्षति की मीडिया में काफी चर्चा हो रही है और साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि 1962 के बाद चीन के साथ ऐसा खूनी संघर्ष पहली बार हुआ है. भारतीय सेना के शौर्य और पराक्रम पर और भारत के नेतृत्व की दृढ़ता- सजगता पर कुछ लोग प्रश्नचिन्ह खड़े कर रहे हैं. ऐसे प्रश्न करने वालों का इतिहास खंगाला जाए तो याद आएगा कि ये सब वही लोग हैं, जिन्होंने भाजपा को केंद्र में आने से रोकने और नरेंद्र मोदी को हराने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया था. वर्तमान सहित ऐसी सभी समस्याओं का जन्म इन शक्तियों की अदूरदर्शिता,अव्यावहारिकता, नेतृत्व-क्षमता और राष्ट्र की संकल्पना के अभाव में ही निहित है.

शायद जिस प्रकार की दृढ़ता, साहस और संयम का परिचय भारत के शीर्ष नेतृत्व ने डोकलाम और अभी गलवान क्षेत्र में दिया है, ऐसा इसके पहले चीन के साथ कभी नहीं हुआ था. 1962 के बाद भी उनका अतिक्रमण तो चलता ही रहा, परंतु उसका मजबूत विरोध अब तक नहीं हुआ था. सेना के शौर्य व पराक्रम के साथ नेतृत्व की भूमिका भी विशेष महत्व की होती है. 1998 के सफल पोखरण अणु परीक्षण से यह तथ्य उजागर हुआ था, क्योंकि
उसमें भी वैज्ञानिकों के साथ नेतृत्व की निर्णायकता की भूमिका अहम थी. भारतीय वैज्ञानिक 1994 में ही यह अणु परीक्षण करने में सक्षम थे, परंतु अंतरराष्ट्रीय दबाव के चलते उस समय के शीर्ष नेतृत्व ने वह साहस नहीं दिखाया जो 1998 में श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने दिखाया. उस सफ़ल परीक्षण के बाद भारत और भारतीयों की साख दुनिया में बढ़ी.

२०१४ से राष्ट्रविरोधी, आतंकवादी गतिविधियों को लेकर पाकिस्तान के साथ और चीन के साथ भी भारत के रवैये में एक मूलभूत परिवर्तन दिखता है. उरी हवाई-हमला, बालाकोट, डोकलाम, गलवान, कश्मीर में जारी पाक-समर्थित आतंकवाद का सफल प्रतिरोध -इन सभी गतिविधियों से यह परिवर्तन स्पष्ट हुआ है. अब तक उपेक्षित भारतीय सीमाओं पर गति से हो रहा विकासात्मक ढाँचा-निर्माण एवं पहले पाकिस्तान के और अब चीन के कब्जे में रहा अक्साई-चिन का भारतीय भूभाग वापस लेने की मनीषा, यह दृढ़, साहसिक और दूरदर्शी नेतृत्व का परिचायक है. चीन की बौखलाहट का यह भी कारण हो सकता है. अर्थात् इससे भारत में ही राष्ट्रविरोधी गतिविधियों का समर्थन करने वाले कुछ तत्व असहज हो रहे हैं.

१९६२ में चीन के साथ हुए युद्ध में भारतीय सेना के अतुलनीय शौर्य और बलिदान के बावजूद हमारी हार हुई. इसके दो मुख्य कारण स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं.  पहला उस समय के भारत के शीर्ष नेतृत्व में दूरदर्शिता का अभाव और दूसरा, युद्ध की बिलकुल ही तैयारी न होना

चीन के विस्तारवादी स्वभाव से अवगत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री गुरूजी और अन्य अनेक दूरदृष्टा नेताओं ने संकेत दिया था कि चीन को भाई-भाई कहकर गले लगाते समय चीन से  धोखा मिल सकता है. उस चेतावनी की पूर्णतः अनदेखी कर सुरक्षा की दृष्टि से कोई तैयारी न करने  तथा चीन को गले लगाए रहने के
परिणामस्वरूप  हमें 1962 युद्ध में शर्मनाक व दुःखद नतीजे भुगतने पड़े. इस घटना के बाद ही भारतीय सेना को सुसज्ज करने का निर्णय लिया गया, परन्तु सेना की शक्ति ठीक होना पर्याप्त नहीं होता. राजकीय नेतृत्व की परिपक्वता और दृढ़ता अत्यावश्यक है.

अभी 06 दिसंबर, 2013 का तत्कालीन रक्षा मंत्री श्री ए. के.  एंटनी का सदन में बोलते हुए वीडियो सामने आया. उसमे वे कहते हैं, – “भारत की तुलना में बुनियादी ढांचे के निर्माण के क्षेत्र में चीन बहुत उन्नत है. उनका बुनियादी ढांचा तथा विकास भारत से बेहतर है. ….स्वतंत्र भारत की कई वर्षों से एक नीति थी कि सीमा का विकास ना करना सबसे अच्छा बचाव है. अविकसित सीमाएं विकसित सीमाओं की तुलना में सुरक्षित होती हैं. इसलिए, कई वर्षों तक, सीमावर्ती क्षेत्रों में सड़कों या हवाई क्षेत्रों का निर्माण नहीं हुआ. उस समय तक, चीन ने सीमावर्ती क्षेत्रों में अपने बुनियादी ढांचे का विकास जारी रखा. इसलिए, परिणामस्वरूप, वे अब हमसे आगे निकल गए हैं. सीमावर्ती क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे की दृष्टि से, क्षमता की दृष्टि से हमारी तुलना में वे आगे हैं. मैं यह स्वीकार करता हूँ. यह एक ऐतिहासिक तथ्य है.” स्वतंत्रता के तुरंत बाद ही भारत की विदेश नीति, सुरक्षा नीति और आर्थिक नीति ने गलत दिशा पकड़ ली थी. सुरक्षा नीति का उदाहरण ऊपर आया है.

आर्थिक नीति की बात करें तो ग्रामाधारित विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था पर बल देने के स्थान पर महानगरों के इर्द-गिर्द घूमती केंद्रीकृत अर्थव्यवस्था के चलते वे गाँव अविकसित रहे, जहाँ भारत का 70 प्रतिशत समाज रहता है. लोगों को अच्छी शिक्षा के लिए, स्वास्थ्य की सुविधा के लिए और रोज़गार प्राप्त करने अपना गाँव छोड़ दूर शहरों में स्थलांतर को बाध्य होना पड़ा. इन नीतियों का दाहक परिणाम अभी कोरोना महामारी के समय देखने को मिला, जब रोजगार हेतु अन्य राज्यों में गए लाखों मजदूरों को अपने कमाने के शहर में परायापन महसूस होने लगा और वे उपलब्ध साधन से  अपने गांव की ओर चल पड़े. इस स्थलांतर से वे अपनों से, अपनी ज़मीन, और तो और अपनी संस्कृति से दूर होते चले गए. भारत में सर्वाधिक रोज़गार कृषि से प्राप्त होता है. स्वतंत्रता के बाद की नीतियों के कारण कृषि और किसान की उपेक्षा ही हुई.

विदेश नीति की बात करेंगे तो जब-तब गुट निरपेक्षता की बात होती रही. वैश्विक सन्दर्भ में भारत के सामर्थ्यवान होने तक रणनीति की दृष्टि से गुट निरपेक्षता की बात करना समझ सकते हैं, पर वह हमारी विदेश नीति का स्थायी आधार तो नहीं बन सकता! क्योंकि, जिन दो महासत्ताओं से निरपेक्षता की बात हो रही थी, उन दोनों महासत्ताओं का राष्ट्रीय जीवन, उनका वैचारिक अधिष्ठान, उनका राष्ट्रीय, सामाजिक और मानव जीवन का अनुभव भारत के राष्ट्रीय, सामाजिक, वैचारिक अधिष्ठान आदि से इतना अविकसित, अपूर्ण और अपरिपक्व है कि उनके आधार पर हमारी नीति तय करने का  विचार भी अपने आप में *दासता की मानसिकता का परिचायक है.

अमरीका और उस समय का रूस जो इन महाशक्ति के केंद्र थे, उनका राष्ट्रीय जीवन 500 वर्षों का भी नहीं है. जिस विचारधारा की वे दुहाई देते थे उन्हें 100 साल का भी अनुभव नहीं था. दूसरी ओर भारत का इतिहास, राष्ट्रीय जीवन कम से कम 10 हजार वर्ष पुराना है.

अध्यात्म-आधारित भारतीय जीवन का दृष्टिकोण एकात्म, सर्वांगीण और वैश्विक रहा है. इसीलिए सामर्थ्य संपन्न होने पर भी भारत ने अन्य देशों पर युद्ध नहीं लादे. व्यापार के लिए दुनिया के सुदूर कोनों तक जाने के बावजूद भारत ने न उपनिवेश बनाए, न ही उनका शोषण किया, न उन्हें लूटा, न ही उन्हें कन्वर्ट किया और ना ही उन्हें ग़ुलाम बनाकर उनका व्यापार किया. हमारे लोगों ने वहां के लोगों को संपन्न बनाया, समृद्ध बनाया, सुसंस्कृत बनाया. भारत की यह प्राचीन सर्वसमावेशक विश्व दृष्टि ही दुनिया में भारत की पहचान भी है. उसी फलस्वरूप वही दृष्टि हमारी विदेश नीति का भी आधार होनी चाहिये थी.

परन्तु भारत के पहले प्रधानमंत्री पर साम्यवाद का प्रभाव था. इसलिए भारत की अध्यात्म आधारित वैश्विक, सर्वांगीण और एकात्म दृष्टिकोण की विशिष्ट पहचान को नकार कर आधुनिकता के नाम पर आकर्षक पश्चिमी शब्दावली के मोह में भारत की नीति की दिशा ही बदल दी गयी. बाद में कांग्रेस में साम्यवादियों का प्रभाव बढ़ता गया और अंततः
कांग्रेस पूरी तरह साम्यवादियों के प्रभाव में ही आ गयी.

परिणामतः भारत की भारत से दूरी बढ़ती गयी. भारत और भारत का जो स्वत्व या पहचान है, जो सदियों से दुनिया जानती है, उसे नकारना माने अपने आप को प्रगतिशील, लिबरल, इंटलेक्चुअल कहलाने का चलन सा हो गया.

परन्तु समाज में सतत चल रहे सामाजिक एवं राष्ट्रीय जागरण के चलते २०१४ के चुनाव में एक गैर- कांग्रेसी पक्ष स्वतंत्रता के पश्चात् पहली बार पूर्ण बहुमत ले कर सत्ता में आया. इतना ही नहीं, यह सम्पूर्ण देश में चल रहे उस सक्रिय समाज की भी जीत थी, जिसने अपनी जड़ों से जुड़कर अपनी सांस्कृतिक धरोहर को वर्तमान संदर्भ में परिभाषित करते हुए देशव्यापी पुनर्जागरण किया और प्रगतिशील विचार के नाम पर औपनिवेशिक सोच को भारतीय समाज पर थोपने वालों को नकारा.

2019 में और अधिक जन समर्थन के साथ फिर इसी कहानी का दोहराया जाना यह 2014 से आगे परिवर्तन का बिंदु था. 16 मई 2014 को लोकसभा चुनाव के परिणाम घोषित हुए और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को पूर्ण बहुमत की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार बनाने का निमंत्रण मिला. 18 मई के ‘सन्डे गार्डियन’ के सम्पादकीय की शुरुआत यह थी कि “आज, 18 मई 2014, इतिहास में उस दिन के रूप में दर्ज किया जा सकता है, जब ब्रिटेन ने अंततः भारत छोड़ दिया. चुनावों में नरेंद्र मोदी की जीत एक लंबे युग के अंत का संकेत है, जिसमें सत्ता की संरचना और स्वभाव उन लोगों से बहुत भिन्न नहीं था, जिनके माध्यम से ब्रिटेन ने भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन किया था. कांग्रेस पार्टी के तहत भारत कई मायनों में ब्रिटिश राज की ही निरंतरता था.” सम्पादकीय की यह शुरुआत ही इस परिवर्तन का मूलग्राही वर्णन है.

उसी समय श्री शिव विश्वनाथन का एक लेख प्रकाशित हुआ. इस लेख में लेखक ने एक महत्वपूर्ण स्वीकारोक्ति साझा की है. इसका शीर्षक ही सारी बात कह देता है. शीर्षक है ”मोदी ने मुझ जैसे ‘लिब्रल्स’ को कैसे हराया” शिव विश्वनाथन लिखते हैं – *“सेकुलरिज्म इस तरह से विरोधी वातावरण बना रहा था कि मध्यम वर्ग अपनी मान्यताओं, अपने दृष्टिकोणों के बारे में शर्मिंदगी और हिचक
महसूस कर रहा था सेकुलरिज्म एक ऐसा तेज़तर्रार और जमीन से कटा, बैठकों में सिमटा विमर्श होकर रह गया जहां मध्यमवर्ग अपने को सहज नहीं पाता था*

17 मई को, नरेंद्र मोदी फिर से काशी गए. काशी विश्वनाथ मंदिर में पूजा में शामिल हुए. मंदिर में अर्चना-अनुष्ठान के बाद, वह दशाश्वमेघ घाट चले गए जहाँ नदी के किनारे आरती की गई.……..यह सब टेलीविजन पर प्रसारित हो रहा था, जनता चाहती थी कि इस घटना को पूरा और बिना किसी तरह से टिप्पणी के दिखाया जाए. दूसरी और कुछ लोग यह भी कह रहे थे कि यह पहली बार था, जब इस तरह का अनुष्ठान खुले तौर पर दिखाया गया था. मोदी की मौजूदगी में संदेश साफ था, “हमें अपने धर्म पर शर्म करने की आवश्यकता नहीं है.” यह सब पहले नहीं हो सकता था. पहले तो मुझे इससे चिढ़ पैदा हुई.

लेकिन बाद में, मैं सोच में डूब गया. मेरे एक सहयोगी ने जोड़ा. “आप अंग्रेजी बोलने वाले सेकुलरवादी, जनता से जबरदस्ती करते रहे हैं, जिससे बहुमत को शर्म महसूस होती है.” हालांकि यह टिप्पणी कड़वी और झकझोरने वाली थी, लेकिन मुझे उस पल एहसास हुआ कि मेरे जैसे उदारवादी इतनी बड़ी बात के लिए दोषी हो सकते हैं !” यह नया भारत है, जिसका अनुभव सभी भारतीयों व समूचे विश्व को हो रहा है. किंतु वास्तव में यह नया बिलकुल नहीं, वरन अब तक नकारा गया, दबाया गया, झूठे प्रचार के कारण सदियों पुरानी परंतु नित्य-नूतन और चिर-पुरातन पहचान लेकर स्वाभिमान और शक्ति के साथ खड़ा रहने वाला ‘अपना’ भारत है. और क्योंकि भारत का विचार ही “वसुधैव कुटुम्बकम” और “सर्वेपि सुखिनः सन्तु” रहा है, इसलिए  उसके  स्वत्व के जागरण और आत्मनिर्भरता के आधार पर शक्ति संपन्नता से किसी को भी कोई भय रखने  का कारण है , क्योंकि यह भारत ही है, जो जाग रहा है.

कोरोना महामारी जैसे संकट से जब सारा देश सफलता पूर्वक लड़ रहा है, उस समय विस्तारवादी और अधिनायकवादी चीन द्वारा खड़ी की हुई इस चुनौती की घड़ी में सम्पूर्ण भारतीय समाज को एकता का परिचय देना चाहिए, और दे भी रहा है. राष्ट्रीय सुरक्षा और रणनीति के लिए सेना और सरकार की निर्णय क्षमता पर विश्वास रखकर सभी लोक और दलों द्वारा राजनैतिक परिपक्वता का परिचय देना आवश्यक है. यह राजनैतिक हानि-लाभ या एक दूसरे की हार-जीत तय करने का समय नहीं है.