ये दीर्घ शंका का समय

Share on:

प्रकाश भटनागर

बरसों पहले ट्रेन में एक रोचक वाकया देखा था। एक सज्जन बर्थ पर आराम से डटे हुए थे। दूसरा यात्री आया। मामला आरएसी यानी रिजर्वेशन अगेंस्ट कैंसिलेशन वाला था। ऐसी स्थिति वाले दो यात्रियों को एक ही बर्थ साझा करना होती है। इससे पहले तक बर्थ को बपौती माने बैठा यात्री उसे शेयर करने के लिए राजी नहीं हो रहा था। टीटीई आया। रेलवे की पुलिस भी आ गयी। दोनों ने पहले वाले यात्री को नियम-कानून समझा दिए। दूसरा यात्री विजयी भाव से बर्थ पर पहुंचा। तब पहले वाले ने उससे कहा, ‘मुझे कमर की बहुत तकलीफ है। बार-बार लेटना होगा। उम्मीद है तुम ये परेशानी समझोगे।’ फिर क्या था। सारे नियम-कायदे एक तरफ रह गए। दूसरे मुसाफिर को उस आधी बर्थ पर तशरीफ टिकाने के लिए भी बमुश्किल जगह मिल सकी। उसके लिए वह सफर नरक बनकर ही रह गया।

क्या ऐसा ही कुछ मध्यप्रदेश की हाल ही में बदली हुई राजनीति में होने जा रहा है। सिंधिया की बदौलत बनी सरकार खालिस आरएसी वाली हालत में है। आधी बर्थ भाजपा की और आधी उन भाजपाइयों की, जो कांग्रेस से अपनी तशरीफ उठाकर यहां आ गए हैं। नरेंद्र मोदी और अमित शाह में से एक को टीटीई और दूजे को रेलवे की पुलिस समझ लीजिये। दोनों ने साथ आए सिंधिया को साझा सरकार के नियम समझा दिए। मंत्रिमंडल बना तो शिवराज सिंह विजयी भाव से लकदक हो गए। लेकिन अब लगता है कि सिंधिया ने भी कमर दर्द का बहाना बनाकर लम्बा पेंच उलझा दिया है। विभागों के वितरण को लेकर भी घमासान मच रही है। पहले मंत्रिमंडल के सदस्यों को लेकर मामला दिल्ली पहुंचा और अब विभागों के बंटवारे का मामला भी दिल्ली पहुंंच गया। जाहिर है कि घमासान मलाईदार विभागों को लेकर है। दोनों पक्षों की यही कोशिश रहेगी कि सामने वाले के हिस्से में शाकाहारी किस्म के महकमे धकेल दिये जाएं।

शिवराज ने दिल्ली में आज कह दिया कि भोपाल पहुंचते ही विभागों को बांट दूंगा। जाहिर है कोई सहमति तो बन ही गई होगी। तय बात है कि साथ में वह लिस्ट लेकर गए हैं, जिसमें उनके हिसाब का विभाग वितरण किया गया है। सिंधिया भी जोर लगा रहे हैं। एक सूची तो उनके खीसे में भी होगी ही। इस तरह ‘ये तेरा घर, ये मेरा घर’ वाली महाभारत रोचक है। शुरू से ही ऐसा चल रहा है। मंत्रिमंडल का विस्तार आसान नहीं रहा। सबने अपने-अपने सुभीते के वो-वो आसान लगाए कि आलाकमान भी शवासन करता नजर आया । सिंधिया वहां बाजी मार ले गए। आखिर उनके ग्यारह और कांग्रेस से आए कुल चौदह मंत्री शिवराज सरकार में हैं। लेकिन लगता है कि विभागों के बंटवारे में भी शिवराज को हिसाब चुकता करने का मौका नहीं मिला है। हालांकि मुख्यमंंत्री होेने के नाते वे इसका भरपूर लाभ लेने की कोशिश कर रहे होंगे।

गुजराती भोजन का स्वाद अमूमन अन्य राज्यों के भोजन जैसा ही होता है। लेकिन उसमें मिलाई जाने वाली शकर गुजरात के खाद्य पदार्थ के स्वाद पर हावी हो जाती है। प्रदेश में भाजपा की कई सरकारें बनीं। सब अपने लोग ही थे। बहुमत भी अच्छा भला मिलता रहा। कोई दिक्कत नहीं आयी मंत्रिमंडल बनाने या विभाग बांटने में। लेकिन अब स्वाद बदल गया है। मिजाज भी। हर निर्णय के लिए आलाकमान पर निर्भरता वाली खालिस कांग्रेस की पद्धति भाजपा में भी मजबूरी की तरह हावी हो गयी है। गनीमत है कि मामला शिवराज सिंह चौहान का है। तबीयत से लचीले। विपरीत परिस्थिति में भी खुद को चुपचाप एडजस्ट कर लेने वाले। इसलिए केवल यह हुआ कि आलाकमान तक पहुंच गए। खुद तलवार नहीं भांजने लगे। आगे आने वाली उलझनों से भी वे अपने लचीलेपन से पार पा लेंगेञ। शिवराज की इसी प्रवृत्ति की वजह से लगता है कि तमाम किन्तु-परन्तु के बावजूद उन्हें ही चौथी बार फिर मुख्यमंत्री बनाया गया। भाजपा का शीर्ष नेतृत्व भी इस पद के योग्य बाकी नेतााओं की रग-रग से वाकिफ था। वह जानता था कि सरकार सिंधिया की मेहरबानी से ही बनी है। ऐसे में किसी और सुपात्र को मुख्यमंत्री बनाने में गुटीय संघर्ष का खतरा था। वह, ‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी’ वाले लक्ष्मीबाई की शैली में सबकी नाक में दम कर सकता था।

ाहुत मुमकिन है कि सावन के पहले सोमवार को राज्य मंत्रिमडल में विभागों को लेकर छाए अनिश्चितता के काले बादल छंट जाएंगे। लेकिन ऐसा आखिरकार कब तक चलेगा? दोनों पक्षों के बीच यूं ही तनातनी के और भी प्रसंग देखने को मिलना तय है। तब कैसे चलेगी प्रदेश में स्थिर सरकार? जाहिर है कि दोनों पक्षों को संतुलन के लिए सम-भाव से झुकने की आदत बनाना होगी। एक और सच्चा किस्सा याद आया। घनघोर किस्म के व्यक्तिपूजक प्राइवेट आॅफिस में एक शख्स किसी काम के लिए काफी समय से परेशान हो रहा था। वह जिस बारे में जानकारी मांगता, उसे कहा जाता की हेड आॅफिस से पूछकर ही कुछ किया जा सकता है। शख्स परेशान हो गया। तभी दफ्तर का एक स्टाफ सीट से उठा। कहा कि उसे लघुशंका के लिए जाना है। चिढ़ा हुआ शख्स बोला, ‘चले जाना, पहले हेड आॅफिस से इसके लिए विधिवत इजाजत तो ले लो।’ लघुशंका का ऐसा किस्सा क्या प्रदेश की आम जनता की नीयती भी बनने जा रहा है! मौजूदा हालात देखकर तो यही दीर्घ शंका सताने लगी है।