नितिनमोहन शर्मा
हमारे भारत मे तो राजा भरत ने राजा रामचंद्र जी की पादुकाओं के जरिये एक दो नही, पूरे 14 बरस तक राज्य संचालन किया। सिंहासन पर अपनी जगह बड़े भाई रामचंद्र जी के पदवेश उन्होंने रखे। और उसी पदवेश को हाज़िर नाजिर मान अयोध्याजी का शासन किया। शासन भी उसी रामराज्य की भावनाओं के अनुकूल जो मर्यादा पुरुषोत्तम के मनोनुकूल थी। ये भारत के संस्कार में ही है। ये घुट्टी भारत के डीएनए में ही है कि जिन्हें आप प्राणों से प्रिय मानते है, सम्मान देते है, उन पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते है।
रामजी की पादुकाओं के संग भरत के राज्य संचालन का ये प्रसंग फिर से इस भरत भूमि पर याद आया है। कारण बना है कांग्रेस का अध्यक्ष पद चुनाव। हालांकि यहां न कोई राम है न कोई भरत। ये पौराणिक प्रतीक तो महज इसलिए याद आये की वयोवृद्ध मल्लिकार्जुन खड़गे चुनाव तो जीते लेकिन उनकी इस जीत को गांधी परिवार की जीत मुकर्रर किया गया है। खड़गे की ताजपोशी पर कांग्रेस में तो हर्ष है लेकिन विरोधी उन्हें ‘ मनमोहन पार्ट-2’ का तमगा दे रहे हैं। यानी गांधी परिवार के ‘ यस मेन’। यानी अध्यक्ष की कुर्सी पर खड़गे बेठे दिखेंगे जरूर, लेकिन करेंगे वो ही जो सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के मनोनुकूल होगा। यानी…वही, खड़ाऊ वाले खड़गे।
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मल्लिकार्जुन ये खड़ाऊ ( चरण पादुका-पदवेश ), कॉंग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर तो वैसे रख नही पाएंगे, जैसी त्रेतायुग में रखी गई थी। लेकिन कांग्रेस का संचालन उसी खड़ाऊ के जरिये ही होना तय है, जो मल्लिकार्जुन के लिए ” 10 जनपथ” पर बहुत सोच समझकर तैयार हुई थी। अब विरोधी, खासकर भाजपा भले ही खड़गे के चयन पर खिल्ली उड़ाए लेकिन शायद उसको स्मरण नही, उमा भारती प्रसंग में उसके दल में भी कुछ कुछ ऐसा ही घटित हुआ था।
याद आया? उमा भारती से भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में मुख्यमंत्री की कुर्सी छीनी थी। तब उनकी जगह किसे सत्तासीन करे, ये संकट भाजपा के पास भी था। दावेदारो की भीड़ थी लेकिन उमाजी के वारिस बने स्व बाबूलाल गौर जैसे खांटी नेता। तब स्व गौर ने कहा था कि में उमाजी की खड़ाऊ कुर्सी पर रखकर सरकार चलाऊंगा। वे जब लौटकर आएंगी, उन्हें ‘ज्यो की त्यों धर दीनी चदरिया’ की तर्ज पर सत्ता सोप दूंगा। फिर क्या हुआ…ये सबको पता है और आज भी उमाजी ‘ निर्वासित’ है। अब ये ही भाजपा खड़गे की खड़खड़ाहट पर हंस रही है।
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हंसने वाली भाजपा के लिए कांग्रेस का ये चुनाव भी कई सबक साथ लेकर आया है। सबसे बड़ा सबक तो ये है कि आप कितने भी सोनिया राहुल प्रियंका को ‘घेरे’ में लो, पार्टी में इस परिवार के प्रति निष्ठा आज भी अटूट ही नही अटाटूट हैं। दूसरा सबक ये है कि कांग्रेस ने वोट के जरिये अपने दल के अध्यक्ष का चुनाव कर ये तो बता दिया कि उसके पास चुनाव के जरिये अध्यक्ष चुनने की कूबत है। क्या भाजपा के पास है? भाजपा भले ही इस पूरी प्रक्रिया को नूराकुश्ती करार दे लेकिन कांग्रेस ने रिस्क तो ली।
सोचिए अगर थरूर भले ही चुनाव हार जाते लेकिन उन्हें कभी ज्यादा मत मिलते तो? ये साफ सन्देश देश दुनिया में जाता कि भारत की सबसे पुरानी पार्टी में गांधी फेमिली के प्रति निष्ठाओं में कमी आना शुरू हो गई है। उलटे कांग्रेस ने थरूर के जरिये अपने दल में आंतरिक लोकतंत्र का उदाहरण भाजपा सहित अन्य पार्टियों के समक्ष तो पेश किया। साथ ही भाजपा सहित सब दल को ये सन्देश भी दे दिया कि कांग्रेस में गांधी परिवार के प्रति निष्ठाओं में रत्तीभर कमी नही आई, फिर भले ही चाहे कितने ‘ नेशनल हेराल्ड’ हो जाये।
इस चुनाव ने गांधी परिवार से मुक्त हो कांग्रेस..जैसे कथित अभियान की भी हवा निकाल दी। थरूर को मिले वोट इस बात का साफ संकेत देते है कि ये 99 प्रतिशत ओर 1 प्रतिशत का मुकाबला था। यानी पूरी पार्टी गांधी परिवार के साथ एकजुट है। चाहे ईडी की रेड पड़े या लगातार पार्टी चुनाव हारे। “हारे का सहारा-गांधी परिवार हमारा” की तर्ज पर पूरी कांग्रेस वैसे ही 10 जनपथ के समक्ष नतमस्तक है जैसे हारे का सहारा-खाटू श्याम हमारा के जयघोष के साथ कृष्णानुरागी खाटू नरेश के समक्ष दंडवत होते है।