सांस थी, आंस थी, आंव थी, हिलोर थी फिर भी घोट दिया कुएं, बावड़ियों का गला

anukrati_gattani
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वे सांस ले रहे थे। जिंदा थे। लोगो ने उनके पास आना छोड़ा था। फिर भी वे उम्मीद से थे। अपने अंदर आंव को समेटे हुए। निर्मल नीर को सहेजे हुए। ऊपर से कचरा फ़िकता रहा लेकिन वे दुःखी नही हुए और आप हम सबके लिए लबरेज पानी लिए सांस लेते रहे। आस थी कि समाज हमें भूलेगा नही। उम्मीद भी थी कि हम फिर से सहेजे जायेंगें। ये तो रत्तीभर भी उम्मीद नही थी कि जीते जी उनका गला घोंट दिया जाएगा। जिंदा दीवार में चुनवा दिया जाएगा। कल्पना भी नही की थी कि जिनकी बरसो प्यास बुझाई, वो समाज इतना ‘नुगरा’ हो जाएगा। नर्मदा जी क्या आई…सब मिट्टी में मिल गया। अब धरती का सीना छलनी करते बोरिंग हैं जो 700 फीट नीचे भी पानी नही तलाश पा रहे हैं। ये दर्द है शहर के उन कुओं बावड़ियों का जो सरकारी रिकार्ड में 650 के आसपास है और आमजन के हिसाब से 1100 से भी ज्यादा।

नितिनमोहन शर्मा

पनघट, कितना सुंदर शब्द। सुनते ही मन मे एक अनूठा सा आनंद पसरता हैं। हंडे, घड़े, गगरो के संग संग चूड़ियों की खनखनाहट से आबाद पनघट। ये सिर्फ पानी ही नही पिलाते थे बल्कि समाज जीवन का अहम हिस्सा थे ये पनघट। सुख दुःख के किस्सों के संग गिर्री घूमती थी। फिसलती रस्सी के साथ लटकती बाल्टी। पानी उलचती। प्यास बुझाती। पनघट से घर घर का नाता था। पूजे जाते थे। ससुराल में कदम रखते ही नई दुल्हनिया को सबसे पहले इसी पनघट पर पूजन के लिए ले जाया जाता था। “जलवा पूजन” की रस्म तो सबको याद है न? आज भी जारी है। लेकिन अब कहा पनघट? कुएं-बावड़ी? अब बोरिंग या नल पूजकर रस्म अदायगी करना मजबूरी है।

 

निर्मल नीर से भरे कुएं। एक दो नही, सेकड़ो की तादाद में। हर गली मोहल्ले में। मठ मन्दिर आश्रमो ओर देवालयों में। हिलोरे मारती बावड़िया भी। कलात्मकता लिए हुए। ऊपर से नीचे तक सीढ़ियों से आबाद। बारह महीनों “आंव” से आबाद छोटी छोटी कुइयां। मीठे और ठंडे पानी से भरे ये प्राचीन जलस्त्रोत कभी समाज जीवन की पूँजी थे। धरोहर थे। परिवार का हिस्सा थे। झुरमुटों से घिरे सालभर लबालब रहने वाले ताल, तलैय्या और तालाब।

 

ये सब कोई 100-200 साल पहले की बात नही है जी। 80-90 के दशक तक इस इंदौर का ये ही नज़ारा था। पंचकुइया आश्रम…ये नाम ऐसे ही पड़ गया क्या? जाकर दखिये। आज भी पांच कुइयां है। बगल से गुजरती एक नदी सी संरचना भी है जो सिरपुर तालाब के ओवर फ्लो से जुड़ी हैं। ये कुइयां इसी नमी से बारह महीनों जल से आबाद रहती थी। अब सुखी पड़ी है पर आश्रम ने सहेज रखी है। मिट्टी मलबा डाल बन्द नही की।

 

कितनो को याद ” मामा साहब ” का कुआं। कहा था ये कुँआ? आज जिस नृसिंह बाजार चौराहे पर जहा सरपट ट्रैफिक दौड़ रहा है, उसी चौराहे का एक कोना मामा साहब का कुँआ कहलाता था। पानी से लबालब। जब गुजरो तब डिब्बे-पीपे लेकर पानी भरते लोग नजर आते थे। 100-50 साल पहले नही, अभी 20-25 बरस पहले तक ये कुँआ सांस ले रहा था। फिर इसका जीते जी गला घोंट दिया। अब कुएं से लगकर व्यवासियक इमारत तनी हुई हैं। किसे फर्क पड़ा? जबकि शहर का ये इलाका दर्जन-दो दर्जन नेताओ से आबाद हैं।

 

पाटनीपुरा चोराहा। बीचों बीच कुँआ था। आज जहा रामसिंह भाई जी की प्रतिमा लगी है, वहां कुँआ था। ऊंचाई पर। काफी गहरा था और पानी से लबालब। अब वहां प्रतिमा के संग रोटरी बनी हुई है। भंवरकुआं यू ही नाम पढ़ गया क्या? कहा है अब ये कुँआ? किसी को भी नही पता। चंपा बावड़ी याद है? पुराने आरटीओ के पास। बरसो लावारिस पड़ी रही लेकिन पानी से आबाद रही। पुरातत्व विभाग के अधीन हैं। अब वो भी नजर नही आती। दीवार से ढाक दी गई हैं। आज भी पानी से लबरेज है लेकिन किसे फिक्र?

 

छोटा गणपति मन्दिर से लगी तात्या की बावड़ी तो पूरे मल्हारगंज को पानी पिलाती थी। ये बावड़ी न केवल जनसामान्य की प्यास बुझती बल्कि नगर निगम के टैंकर भी भरती थी। 90 के दशक तक ये बावड़ी नगर निगम का एक मजबूत हाइड्रेंट थी। अब कहाँ है बावड़ी? सामने मल्हारगंज थाना है लेकिन तात्या की बावड़ी अतिक्रमण में गुम हो गई। इसे जिंदा करने की एक ईमानदार कोशिश तत्कालीन महापौर डॉ उमाशशि शर्मा के कार्यकाल में हुई थीं। तब बावड़ी में ब्लास्ट कर फिर से पानी की आंव शुरू करने के पुरजोर प्रयास हुए। फिर डॉ शर्मा की बिदाई के बाद ये बावड़ी फिर बियाबान में गुम हो गई।

 

सदर बाजार के मुख्य मार्ग पर ही दो दो बावड़ियां थी। आज भी है। पानी से भरी। पर चेनल ताले लगाकर कब्जा ली गई है। कोई सुध नही लेता अब इन बावड़ियों की। एरोड्रम रॉड का लाल कुँआ और लाल बावड़ी भी मौजूद हैं। कुँआ तो मुख्य कालानी नगर चौराहे पर ही है। वो तो गनीमत है कि उस कुएं से राजस्थानी समाज की रतजगे वाली आस्था जुड़ी है। अन्यथा ये भी अब तक हजम हो जाता। ऐसे शहर में सेकड़ो उदाहरण है जो साफ बताते है कि हमने अपने पुरखों की इस विरासत को न केवल बिसरा दिया बल्कि उनकी दुर्गति करने में भी पीछे नही रहे। बचा काम जमीन के जादूगरों ने सत्ताधीशों के साथ मिलकर पूरा कर दिया। पटेल नगर हादसे ने एक मौका फिर दिया है शहर को कि वो अपनी विरासत को नए सिरे से सहेज ले।

 

रोजगार का साधन थे कुएं बावड़ियां

 

शहर के कुएं बावड़िया केवल प्यास ही नही बुझाते थे, बल्कि रोजगार का एक बड़ा साधन थे। राजस्थान से आने वाले प्रवासियों के लिए तो ये कुएं बावड़िया वरदान साबित हुए। एक बड़ी आबादी इन कुओं, बावड़ी से पानी उलीचकर घर और दुकान पर देने लगे। राजस्थान से जुड़ा पालीवाल समाज और सिखवाल समाज इस बात का गवाह है कि कैसे उनके पुरखो में इन जलस्त्रोतो के जरिये मरुभूमि से मालवा में स्थाई ठिकाना बनाया। चार आने- आठ आने का एक पीपा पानी की आमदनी ने आज राजस्थान से आये परिवारों को स्थाई इंदौर का निवासी बना दिया।

कपड़ा मार्केट से लेकर बीच शहर के बाजारों में ये समाज ही इन कुओं ओर बावड़ियों से पानी भर भरकर दुकानों तक पहुँचता रहा। आज भी ये परम्परा कायम है। देखना है तो चले आईये कपड़ा मार्किट वाले इलाके में। कपड़ा मार्किट के बीचों बीच बना कुँआ आज भी पनघट बना हुआ है और यहां से अब डिब्बे तो नही केन में पानी भरकर दुकानों के बाहर, शटर खुलने से पहले पहुँच रहा है।

पूर्व मेयर डॉ उमाशशि ने की थी ईमानदार कोशिश

पुरखो की इस विरासत को बचाने की ईमानदार कोशिश तत्कालीन महापौर डॉ उमाशशि शर्मा में की थी। वे ठेठ इन्दौरी थी। आंखों से इन सब कुओं और बावड़ियों को जिंदा देखा था। कसक थी मन मे। इसलिए उन्होंने अपने कार्यकाल में शहर के सभी कुओ और बावड़ियों के प्रति जागरूकता का अभियान चलाया था। निगम् अमले ने कुओं और बावड़ियों का सफाई अभियान भी छेड़ा था। कई कुएं जिंदा भी हुए। सबसे अहम तात्या की बावड़ी अभियान रहा। विस्फोटक से यहां बावड़ी को जिंदा करने के पुरजोर प्रवास हुए। इस उम्मीद के साथ कि बावड़ी में पानी की कोई नई आंव मिल जाये और ये पुनर्जीवित हो जाये। लेकिन डॉ शर्मा के कार्यकाल खत्म होने के बाद फिर किसी ने सुध नही ली। शहर को स्मार्ट होने का चस्का लग गया। जिसका परिणाम सबके सामने है।