पढ़िए नए अंदाज में अब फिल्म समीक्षा सिर्फ घमासान डॉट कॉम पर…
(राजेश राठौर)
Gangubai Kathiawadi Review : फिल्में बनती इसलिए है ताकि कलाकारों से लेकर मजदुर तक को काम मिल सकें। फिल्म इंडस्ट्री (Film Industry) करोड़ों-अरबों की होती है और उसके कारण माया नगरी यानि मुंबई की जीवन रेखा चलती है। उसके अलावा फिल्म लोगों का मनोरंजन भी करती है। अच्छा बुरा दिखाती भी है और सिखाती भी है। आज हम बात करते है पिछले कई दिनों से विवादों में चल रही गंगूबाई काठियावाड़ी (Gangubai Kathiawadi) फिल्म की। आपने अभी तक फिल्म समीक्षा अलग तरह से पढ़ी होगी, लेकिन अब हम कुछ अलग अंदाज में फिल्म की समीक्षा आपको पढ़ाते है।
बेरिस्टर के घर में पैदा हुई गंगा (गंगूबाई) यानि आलिया भट्ट (Alia Bhatt)। ऐसे परिवार में जन्मी कोई भी लड़की कभी कोठे वाली नहीं बन सकती है। गंगा की किस्मत कहें या दोस्ती का भरोसा जिसने उसे कोठे तक पहुंचा दिया। वैसे किस्मत तो जन्म के साथ ही तय हो जाती है, लेकिन जीवन में कर्म उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है। दोस्ती भी खराब नहीं होती बस सिलेक्शन और विश्वास की सीमा दोनों ही हमारे हाथ में होती है। गंगा को बेचने वाला वो दोस्त हमें धोखे से बचने की सीख देता है। खैर गंगा अब कोठे में पहुंच चुकी है, लेकिन मजबूरी में गलत काम शुरू करने वाली गंगा भी बहुत कुछ सीखा देती है। वेश्यावृति को सही बताने के लिए गंगूबाई प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मिलने दिल्ली पहुंच गई थी। लेकिन ये गंगा अंडरवर्ल्ड डॉन करीम लाला के पास पहुंच जाती है।
वैश्या को मिला भाई
अब देखिए गंगा के जीवन की असलियत एक दोस्त उसे कोठे पर बैच देता है और एक अंदाज अंडरवर्ल्ड डॉन करीम लाला के पास वह जाती है तो गंगा ने सोचा भी नहीं होगा कि लाला उसे अपनी बहन बताएगा। फिल्म का यह दृश्य सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या कोई वैश्या को अपनी बहन मान सकता है और लाला ने उसको अपनी बहन माना, जिससे खून का रिश्ता भी नहीं है। फिल्म के डायरेक्टर संजय लीला भंसाली की फिल्म का टाइटल भले ही गंदा लगता हो लेकिन फिल्म में एक मां का ममत्व एक वैश्या को भाई का मिलना और वैश्या के बच्चों को पढ़ाना ताकि वो इस गलत रास्ते पर न आए। जिस तरह से गंगा ने कोठे को अपनी किस्मत न मानकर आगे का जीवन सुधारने की हिम्मत जुटाई वो कबीले तारीफ है। वास्तविक जीवन में गंगा की जगह कोई और लड़की होती तो शायद आत्महत्या के आलावा कुछ नहीं करती। गंगा ने कोठे की जो लड़ाई लड़ी वह स्वाभिमान को जिंदा रखने के लिए पर्याप्त है।
जब वैश्या ने लिया मां बनने का फैसला
इस पूरी फिल्म में यदि कोई सामाजिक चेतना और अधिकार का संदेश है तो वो यह है कि गंगा अपनी कोठे की मालकिन से कहती है कि सबको हफ्ते में एक दिन छुट्टी मिलती है, तो हम भी एक दिन धंधा नहीं करेंगे। गंगा डंके की चोट पर कोठे की मालकिन को आईना दिखाकर जिस तरह से सबको घुमाने ले जाती है वो दृश्य देखने लायक है। पैसे के लिए हमेशा मरने वाली कोठे की मालकिन की जब अंतिम सांस समाप्त हो जाती है तब गंगा उसके हाथ में पैसे देकर कहती है ये मरते दम तक पैसे के लिए मरती रही। उसके बाद जब गंगा कोठे की मालिक हो जाती है, तो उस दौरान धंधा करने वाली एक लड़की गंगा से आकर कहती है, मैं एक बच्चें को जन्म देना चाहती हूं। यह सुनकर गंगा के चेहरे के भाव बताते है कि एक महिला ही महिला का दर्द समझ सकती है। वैसे आम जीवन में यह कहा जाता है कि महिला ही महिला की दुश्मन होती है। गंगा जिस इमोशनल अदा के साथ उस लड़की को मां बनने की सहमति देती है वह दृश्य आंखो में पानी लाने के लिए मजबूर कर देता है। आम जीवन की तरह गंगा उस लड़की से ये सवाल नहीं करती कि दुनिया क्या कहेंगी। बच्चे को पिता का नाम कौन देगा। गंगा ने मां का दर्द समझा और उस लड़की को मां बनने कि सहमति दे दी। जिस तरह से कोठे वालियों के साथ पुलिस का जो पैसो का संबंध होता है वो भी इस फिल्म में दिखाया गया है। वो कोई नई बात नहीं है।
भाई समझकर लिए पैसे
अंडरवर्ल्ड डॉन करीम लाला यानि (अजय देवगन) गंगा को काठियावाड़ी का चुनाव लड़ने के लिए न केवल मदद का भरोसा देता है बल्कि पैसे भी देता है। गंगा जिस तरीके से लाला से पैसे लेने से मना करती है वो भी सिखने लायक है। जिस अंदाज में लाला गंगा को पैसे देकर कहता है भाई समझ कर रख लें, वो बात घनघोर अंधेरे में रोशनी जलाने जैसा है। गंगा चुनाव जीत जाती है तो सारी महिलाएं खुश हो जाती है। गंगा चुनाव क्यों जीती इस पर बात करना भी जरुरी है। गंगा ने उन 4 हजार महिलाओं की लड़ाई लड़ने का विश्वास दिलाया। गंगा के हर शब्द में अपनेपन की झलक थी, जिसने गंगा को नेता बना दिया।
बाप का नाम पुछा तो पढ़िए क्या जवाब दिया गंगूबाई ने
अब हम बात करते है फिल्म के और सामाजिक संदेश की और वो ये है कि इंसान के जीवन में शिक्षा से बढ़कर कुछ नहीं होता। संस्कार हो या पैसा इज्जत हो या पद कई न कई उसका रास्ता शिक्षा से ही निकलता है। बोलचाल की भाषा में कहते है ना पैसा तो वैश्य भी कमा लेती है। लेकिन गंगूबाई ने बता दिया कि पैसा ही सबकुछ नहीं होता है, शिक्षा सबसे बढ़ी होती है। यही तो कारण है जो गंगूबाई को धंधे वालियों के बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूल जाने के लिए मजबूर कर देती है। गंगूबाई जिस तरह से स्कूल के प्रिंसिपल से उन बच्चों के पढ़ाई के अधिकार को लेकर लड़ती है, उसको देखकर लगता है कि असली समाज सेवा यही है। स्कूल का प्रिंसिपल जब उन बच्चों के बाप का नाम पूछता है और गंगूबाई जो जवाब देती है उसको सुन कर पढ़े लिखे प्रिंसिपल के मुंह पर ताला लग जाता है। भले ही फिल्म वेश्यावृति के आधार पर बनी हो, लेकिन 3 बाते समाज को सोचने पर मजबूर करती है कि फिल्में सिर्फ 3 घंटे का मनोरंजन नहीं होती कुछ न कुछ सीखने के लिए मजबूर करती है। समय मिले तो जरूर फिल्म देखें।